ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 9/ मन्त्र 5
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - वैश्वानरः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
ध्रु॒वं ज्योति॒र्निहि॑तं दृ॒शये॒ कं मनो॒ जवि॑ष्ठं प॒तय॑त्स्व॒न्तः। विश्वे॑ दे॒वाः सम॑नसः॒ सके॑ता॒ एकं॒ क्रतु॑म॒भि वि य॑न्ति सा॒धु ॥५॥
स्वर सहित पद पाठध्रु॒वम् । ज्योतिः॑ । निऽहि॑तम् । दृ॒शये॑ । कम् । मनः॑ । जवि॑ष्ठम् । प॒तय॑त्ऽसु । अ॒न्तरिति॑ । विश्वे॑ । दे॒वाः । सऽम॑नसः । सऽके॑ताः । एक॑म् । क्रतु॑म् । अ॒भि । वि । या॒न्ति॒ । सा॒धु ॥
स्वर रहित मन्त्र
ध्रुवं ज्योतिर्निहितं दृशये कं मनो जविष्ठं पतयत्स्वन्तः। विश्वे देवाः समनसः सकेता एकं क्रतुमभि वि यन्ति साधु ॥५॥
स्वर रहित पद पाठध्रुवम्। ज्योतिः। निऽहितम्। दृशये। कम्। मनः। जविष्ठम्। पतयत्ऽसु। अन्तरिति। विश्वे। देवाः। सऽमनसः। सऽकेताः। एकम्। क्रतुम्। अभि। वि। यान्ति। साधु ॥५॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 9; मन्त्र » 5
अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 11; मन्त्र » 5
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अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 11; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अस्मिञ्छरीरे किं किं विज्ञेयमित्याह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! यद्दृशये ध्रुवं निहितं कं ज्योतिर्ब्रह्मास्ति तदाधारे यज्जविष्ठं पतयत्स्वन्तर्वर्त्तमानं मनोऽस्ति तदाश्रयेण समनसः सकेता विश्वे देवा एकं क्रतुं साध्वभि वि यन्तीति यूयं विजानीत ॥५॥
पदार्थः
(ध्रुवम्) निश्चलम् (ज्योतिः) स्वप्रकाशं सर्वप्रकाशकं वा (निहितम्) स्थितम् (दृशये) दर्शनाय (कम्) सुखस्वरूपम् (मनः) अन्तःकरणवृत्तिः (जविष्ठम्) वेगवत्तमम् (पतयत्सु) पतिरिवाचरत्सु (अन्तः) आभ्यन्तरे (विश्वे) सर्वे (देवाः) स्वस्वविषयप्रकाशकानि श्रोत्रादीनीन्द्रियाणि (समनसः) समानं सहकारि साधनं मनो येषान्ते (सकेताः) समानं केतः प्रज्ञा येषान्ते (एकम्) असहायम् (क्रतुम्) जीवस्य प्रज्ञानम् (अभि) आभिमुख्ये (वि) (यन्ति) प्राप्नुवन्ति (साधु) ॥५॥
भावार्थः
हे मनुष्या ! अस्मिञ्छरीरे सच्चिदानन्दलक्षणं स्वप्रकाशं ब्रह्म द्वितीयो जीवस्तृतीयं मनश्चतुर्थानीन्द्रियाणि पञ्चमाः प्राणाः षष्ठं शरीरञ्च वर्त्तत एवं सति सर्वे व्यवहाराः सिद्धा जायन्ते येषां मध्यात्सर्वाधार ईश्वरो देहान्तःकरणप्राणेन्द्रियधर्त्ता जीवादीनामधिष्ठानं शरीरमिति विजानीत ॥५॥
हिन्दी (3)
विषय
इस शरीर में क्या-क्या जानने योग्य है, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जो (दृशये) दर्शन के लिये (ध्रुवम्) निश्चल (निहितम्) स्थित (कम्) सुखस्वरूप (ज्योतिः) अपने से प्रकाशित और सब का प्रकाशक ब्रह्म है, उसके आधार में जो (जविष्ठम्) अतिवेगयुक्त (पतयत्सु) पति सदृश के आचरण करते हुओं में (अन्तः) मध्य में वर्त्तमान (मनः) अन्तःकरण का व्यापार है, उसके आश्रय से (समनसः) सहकारि साधन मन जिनका और (सकेताः) तुल्य बुद्धि जिनकी वे (विश्वे) संपूर्ण (देवाः) अपने-अपने विषयों को प्रकाशित करनेवाली श्रोत्र आदि इन्द्रियाँ (एकम्) सहायरहित (ऋतुम्) जीव के प्रज्ञान को (साधु) उत्तम प्रकार (अभि) सन्मुख (वि) विशेष करके (यन्ति) प्राप्त होते हैं, यह आप लोग जानो ॥५॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! इस शरीर में सच्चिदानन्दस्वरूप अपने से प्रकाशित ब्रह्म, द्वितीय जीव, तृतीय मन, चौथी इन्द्रियाँ, पाँचवें प्राण, छठा शरीर वर्त्तमान है, ऐसा होने पर सम्पूर्ण व्यवहार सिद्ध होते हैं । जिनके मध्य से सब का आधार ईश्वर, देह, अन्तःकरण प्राण और इन्द्रियों का धारण करनेवाला और जीवादिकों का अधिष्ठान शरीर है, यह जानो ॥५॥
विषय
देह में मन की स्थिति ।
भावार्थ
इस देह में ( दृशये ) दर्शन करने के लिये ( ध्रुवं ) स्थिर नित्य ( ज्योतिः ) ज्योति, सुख दुःखादि का प्रकाश करने वाला, स्वयं प्रकाश आत्मा ( नि-हितं ) स्थित है । जो (कम् ) स्वयं सुखमय कर्त्तारूप है । और (पतयत्सु ) गति करने वाले वा अपने २ स्थान पर अपनी वृत्तियों के स्वामी के समान वर्त्तने वाले अध्यक्षों के तुल्य इन प्राणों वा विषयों की ओर दौड़ते हुए इन्द्रियों के बीच में या उनके ऊपर घोड़ों पर सारथि के समान, ( अन्तः ) देह के ही भीतर (जविष्ठं ) अति वेग से युक्त ( मनः ) ज्ञान करने का साधन 'मन' भी स्थित है ( विश्वेदेवाः ) सब विषयों की कामना करने वाले इन्द्रियगण वा प्राण, ( समनसः ) मन के सहित मिलकर ( सकेताः ) ज्ञानयुक्त से होकर ( एकम् क्रतुम् अभि) एक ही कर्त्ता आत्मा की ओर (वि यन्ति) विशेष रूप से जाते हैं । वे स्वयं मन सहित होकर चेतनवत् देख, सुनकर भी उसी एक कर्त्ता आत्मा को प्राप्त होते हैं, उसी को अपना ज्ञान भी देते हैं। सब इन्द्रिय पृथक् २ होकर भी एक ही भोक्ता आत्मा को बतलाती हैं। ये देव प्राणगण ही नर हैं उनका स्वामी जीवत्मा ही 'वैश्वानर' है ।
टिप्पणी
“अस्ति आत्मा दर्शनस्पर्शनाभ्यामेकार्थग्रहणात् ॥” न्यायसूत्र । ३ । २ । १ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ वैश्वानरो देवता ॥ छन्दः – १ विराट् त्रिष्टुप् । ५ निचृत्त्रिष्टुप् । ६ त्रिष्टुप् । २ भुरिक् पंक्ति: । ३, ४ पंक्ति: । ७ भुरिग्जगती ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥
विषय
'ध्रुव ज्योति' का दर्शन
पदार्थ
[१] (पतयत्सु अन्तः) = विविध कर्मों में लगे हुए प्राणियों के अन्दर प्रभु (निहितम्) = निहित हैं, विद्यमान हैं। वे प्रभु (ध्रुवं ज्योतिः) = एक अविचल प्रकाश हैं। (मन्ते जविष्ठम्) = [मनसः] मन से भी अधिक वेगवान् हैं। (दृशये कम्) = वे प्रभु दर्शन के लिये होते हैं, तो आनन्द को देते हैं प्रभु-दर्शन अद्भुत आनन्द का हेतु होता है। [२] सो (विश्वे देवा:) = सब देववृत्ति के व्यक्ति (समनस:) = मनन से युक्त होते हुए (सकेता:) = ज्ञानसहित होते हुए उस (एकं क्रतुम्) = अद्वितीय सृष्टिकर्ता को (साधु) = सम्यक् (अभिवियन्ति) = प्राप्त होते हैं। ये सब कर्मों को करते हुए प्रभु का स्मरण करते हैं और प्रभु को पानेवाले होते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- देववृत्ति के व्यक्ति मनन व ज्ञान को अपनाते हुए अन्तः स्थित ध्रुवज्योति रूप प्रभु को देखने का प्रयत्न करते हैं ।
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो ! या शरीरात सच्चिदानंदस्वरूपाने प्रकाशित ब्रह्म, दुसरा जीव, तिसरे मन, चौथी इंद्रिये, पाचवा प्राण, सहावे शरीर असे असल्यामुळे संपूर्ण व्यवहार सिद्ध होतात. सर्वांचा आधार ईश्वर असून देह, अंतःकरण, प्राण व इंद्रियांना धारण करणारे व जीवाचे अधिष्ठान शरीर आहे, हे जाणा. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
In order that the individual soul may see the one immovable blissful divine light enshrined in the cave of the heart, there is the mind, fastest of psychic faculties in the personality of all those who direct themselves to the one centre. All the organs of perception, in fact all the illuminative elements of nature, all of equal competence, united together and in unison with the mind efficiently move toward the individual soul.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should be known in this body is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men! you should know that there is a Firm (immortable and unwavering) light which is All-Bliss and steady. This is known as Brahma, Supreme Being or God. Based upon that there is the mind swiftest among all things that fly. On the basis of the mind, there are all the senses of one accord, with one intention, manifesting their own objects-eyes ears etc. having mind as their common means and of common knowledge. They go well unobstructed to receive knowledge of the soul.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men! in this body there is one self-refulgent Brahma (God) Who has Absolute existence, consciousness and Bliss. The second is Jeeva or soul. Third is the mind. Fourth are the senses, fifth are the Pranas (vital breaths) and sixth is the body. In this way, all dealings are accomplished. Among them, Goa is the support or axle of all, the soul is the upholder of the body, senses, Pranas and inner senses (mind, intellect etc.) and the seat of the soul is body. All about this truth you must know well.
Translator's Notes
It is not correct on the part of Griffith to translate विश्व देवा: here and almost everywhere else as "All Gods". He seems to be obsessed with the erroneous idea of polytheism in the Vedas.
Foot Notes
(कम्) सुखस्वरूपम् । कम् इति सुखनाम (NG 3, 6) = Embodiment of abiding happiness or bliss. (देवा:) स्वस्व विषयप्रकाश कानि श्रोत्रादीनीन्द्रियाणि । (देवाः) दिवु-क्रीडा विजिगीपाव्यवहारदयुति स्तुतिमोदमदस्वप्नकान्तिगतिषु (दिवा० ) अत्र धुत्यर्थमादाय व्याख्या वृतिः प्रकाशः । = Senses which manifest their objects. (ऋतुम्) जीवस्य प्रज्ञानम् |= The knowledge of the soul.
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