ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 1/ मन्त्र 22
मा नो॑ अग्ने दुर्भृ॒तये॒ सचै॒षु दे॒वेद्धे॑ष्व॒ग्निषु॒ प्र वो॑चः। मा ते॑ अ॒स्मान्दु॑र्म॒तयो॑ भृ॒माच्चि॑द्दे॒वस्य॑ सूनो सहसो नशन्त ॥२२॥
स्वर सहित पद पाठमा । नः॒ । अ॒ग्ने॒ । दुः॒ऽभृ॒तये॑ । सचा॑ । ए॒षु । दे॒वऽइ॑द्धेषु । अ॒ग्निषु॑ । प्र । वो॒चः॒ । मा । ते॒ । अ॒स्मान् । दुः॒ऽम॒तयः॑ । भृ॒मात् । चि॒त् । दे॒वस्य॑ । सू॒नो॒ इति॑ । स॒ह॒सः॒ । न॒श॒न्त॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
मा नो अग्ने दुर्भृतये सचैषु देवेद्धेष्वग्निषु प्र वोचः। मा ते अस्मान्दुर्मतयो भृमाच्चिद्देवस्य सूनो सहसो नशन्त ॥२२॥
स्वर रहित पद पाठमा। नः। अग्ने। दुःऽभृतये। सचा। एषु। देवऽइद्धेषु। अग्निषु। प्र। वोचः। मा। ते। अस्मान्। दुःऽमतयः। भृमात्। चित्। देवस्य। सूनो इति। सहसः। नशन्त ॥२२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 1; मन्त्र » 22
अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 27; मन्त्र » 2
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अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 27; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्याः सर्वेभ्यः किं गृह्णीयुरित्याह ॥
अन्वयः
हे अग्ने ! त्वं सचैषु देवेद्धेष्वग्निषु दुर्भृतये नो मा प्र वोचः। हे सहसो देवस्य सूनो ! भृमाच्चित्ते दुर्मतयोऽस्मान् मा नशन्त ॥२२॥
पदार्थः
(मा) (निषेधे) (नः) अस्मान् (अग्ने) विद्वन् (दुर्भृतये) दुष्टाभृतिर्धारणं पोषणं वा यस्य तस्मै (सचा) सम्बन्धेन (एषु) (देवेद्धेषु) देवैरिद्धेषु प्रज्वालितेषु (अग्निषु) (प्र) (वोचः) (मा) (ते) तव (अस्मान्) (दुर्मतयः) (भृमात्) भ्रान्तेः। अत्र वर्णव्यत्ययेन रस्य स्थान ऋकारो वा च्छन्दसीति सम्प्रसारणं वा। (चित्) अपि (देवस्य) विदुषः (सूनो) तनय (सहसः) बलिष्ठस्य (नशन्त) व्याप्नुवन्तु। नशदिति व्याप्तिकर्मा। (निघं०२.१८) ॥२२॥
भावार्थः
सर्वैर्मनुष्यैः सर्वेभ्यः शुभगुणाः सुमतिः सुविद्या च गृहीतव्या नैव दोषाः ॥२२॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्य सब से किसको ग्रहण करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (अग्ने) विद्वन् ! आप (सचा) सम्बन्ध से (एषु) इन (देवेद्धेषु) वायु आदि में प्रज्वलित किये हुए (अग्निषु) अग्नियों में (दुर्भृतये) दुष्ट दुःखयुक्त कठिन धारण वा पोषण जिसका उसके लिये (नः) हमको (मा, प्र, वोच) मत कठोर कहो। हे (सहसः) बलवान् (देवस्य) विद्वान् के (सूनो) पुत्र ! (भृमात्) भ्रान्ति से (चित्) भी (ते) आपके (दुर्मतयः) दुष्टबुद्धि लोग (अस्मान्) हमको (मा) मत (नशन्त) प्राप्त होवें ॥२२॥
भावार्थ
सब मनुष्यों को योग्य है कि सब से शुभ गुण सुन्दर बुद्धि और उत्तम विद्या का ग्रहण करें, दोषों को कदापि ग्रहण न करें ॥२२॥
विषय
राजा के कर्त्तव्य और अकर्त्तव्य।
भावार्थ
हे (अग्ने ) तेजस्विन् विद्वन् ! तू ( सचा ) हमारा सहयोगी होकर ( देवेद्धेषु अग्निषु ) उत्तम विद्वान् पुरुषों वा उत्तम गुणों से प्रदीप्त हुए अग्निवत् तेजस्वी पुरुषों के होते हुए भी ( नः ) हमें ( दुर्भृतये ) दुःख वा कष्ट से अपना भरण पोषण करने के लिये, वा दुःख भरण पोषण करने वाले कुस्वामी की सेवा के लिये ( मा प्र वोचः ) कभी मत कह । हे (सहसः सूनो) बलवान् के पुत्र ! बल के सञ्चालक ! ( देवस्य ) तेजस्वी वा आखेट, द्यूत, रति आदि क्रीड़ाशील ( ते दुर्मतयः ) दुष्ट बुद्धि या दुर्विचार ( भृमात् चित् ) भ्रम से, भूल कर भी ( अस्मान् मा नशन्त ) हमें प्राप्त न हों अर्थात् राजा के दुर्व्यसन प्रजा में न आवें और न उनको कष्टदायक हों। भूल कर भी राजा अपने व्यसनों से प्रजा को पीड़ित न करे । प्रजा के कन्धे चढ़क अपने दुर्व्यसनों की पूर्ति न करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः ॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः–१–१८ एकादशाक्षरपादैस्त्रिपदा विराड् गायत्री । १९—२५ त्रिष्टुप् ।। पंचविशत्यृचं सूक्तम् ॥
विषय
दुर्भृति व दुर्मति से दूर होते हुए सदा यज्ञशील बनें
पदार्थ
[१] (अग्ने) = हे परमात्मन्! (न:) = हमें (दुर्भृतये मा) = दुर्भृति के लिये मत दे डालिये, हम अपने भरण के लिये कभी कष्ट में न पड़ जायें। (सचा) = सहायभूत आप (एषु) = इन (देवेद्वेषु) = देवों से दीप्त की जानेवाली (अग्निषु) = अग्नियों के विषय में (प्रवोचः) = प्रकर्षेण उपदेश करिये। हम भी देवों की तरह यज्ञाग्नियों को दीप्त करनेवाले बनें। [२] हे (सहसः सूनो) = बल के पुञ्ज प्रभो ! (देवस्य ते) = प्रकाशमय आपके जो हम हैं, उन (अस्मान्) = हम को (भृमात् चित्) = भ्रम से भी (दुर्मतयः) = दुर्मतियाँ कभी भी (मा नशन्त) = मत व्याप्त करें। हम सदा सुमतिवाले होते हुए यज्ञ आदि उत्तम कर्मों में प्रवृत्त रहें।
भावार्थ
भावार्थ- हम कभी भरण-पोषण के लिये कष्ट में न पड़ें। देवों की तरह यज्ञाग्नियों को दीप्त करनेवाले हों। कभी भी दुर्मति से न घिर जायें।
मराठी (1)
भावार्थ
सर्व माणसांनी सर्वांपासून शुभ गुण, चांगली बुद्धी व उत्तम विद्या ग्रहण करावी. दोष कधी स्वीकारू नयेत. ॥ २२ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Agni, child of omnipotence, lord generous and brilliant, devoted as we are to you in all these yajnic fires kindled by holy ones, pray do not condemn us to indigent living and poor maintenance. Let not your displeasure, O bright and generous lord, even by mistake ever touch us.
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