ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 104/ मन्त्र 21
इन्द्रो॑ यातू॒नाम॑भवत्पराश॒रो ह॑वि॒र्मथी॑नाम॒भ्या॒३॒॑विवा॑सताम् । अ॒भीदु॑ श॒क्रः प॑र॒शुर्यथा॒ वनं॒ पात्रे॑व भि॒न्दन्त्स॒त ए॑ति र॒क्षस॑: ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्रः॑ । या॒तू॒नाम् । अ॒भ॒व॒त् । प॒रा॒ऽश॒रः । ह॒विः॒ऽमथी॑नाम् । अ॒भि । आ॒ऽविवा॑सताम् । अ॒भि । इत् । ऊँ॒ इति॑ । श॒क्रः । प॒र॒शुः । यथा॑ । वन॑म् । पात्रा॑ऽइव । भि॒न्दन् । स॒तः । ए॒ति॒ । र॒क्षसः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रो यातूनामभवत्पराशरो हविर्मथीनामभ्या३विवासताम् । अभीदु शक्रः परशुर्यथा वनं पात्रेव भिन्दन्त्सत एति रक्षस: ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्रः । यातूनाम् । अभवत् । पराऽशरः । हविःऽमथीनाम् । अभि । आऽविवासताम् । अभि । इत् । ऊँ इति । शक्रः । परशुः । यथा । वनम् । पात्राऽइव । भिन्दन् । सतः । एति । रक्षसः ॥ ७.१०४.२१
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 104; मन्त्र » 21
अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 9; मन्त्र » 1
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अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 9; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(इन्द्रः) ऐश्वर्यवानीश्वरः (हविर्मथीनाम्) ये सत्कर्मात्मकयज्ञेषु विघ्नकर्तारः (अभि, आविवासताम्) जिघांसयाऽभिमुखमायातारः (यातूनाम्) राक्षसाः सन्ति तेषां (पराशरः) नाशकोऽस्ति। (शक्रः) शक्तिमान् परमात्मा (परशुः, यथा, वनम्) यथा व्रश्चनो वनं छिनत्ति (पात्रा, इव, भिन्दन्) यथा मुग्दरो मृण्मयपात्राणि चूर्णयति, तथैव (अभि, इत्, उ) अभितो निश्चयेन (रक्षसः) राक्षसान्हन्तुम् (सतः, एति) उद्यतः संस्तिष्ठति ॥२१॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(इन्द्रः) ऐश्वर्यशाली परमात्मा (हविर्मथीनाम्) जो सत्कर्मरूपी यज्ञों में विघ्न करनेवाले हैं तथा (अभि, आविवासताम्) हानि करने की इच्छा से जो सम्मुख आनेवाले (यातूनाम्) राक्षस हैं, उनका (पराशरः) नाशक है। (शक्रः) परमात्मा (परशुः, यथा, वनम्) परशु जैसे वन को (पात्रा, इव, भिन्दन्) और मुग्दर जैसे मृण्मय पात्र को तोड़ता है, उसी प्रकार (अभि, इत्, उ) निश्चय करके चारों ओर से (रक्षसः) राक्षसों को मारने में (सतः, ऐति) उद्यत रहता है ॥२१॥
भावार्थ
परमात्मा असत्कर्मी राक्षसों के मारने के लिये सदैव वज्र उठाये उद्यत रहता है, इसी अभिप्राय से उपनिषद् में कहा है कि ‘महद्भयं वज्रमुद्यतमिव’ परमात्मा वज्र उठाये पुरुष के समान अत्यन्त भयरूप है। यद्यपि परमात्मा शान्तिमय, सर्वप्रिय और सर्वव्यापक है, जिसमें निराकार और क्रोधरहित होने से वज्र का उठाना असम्भव है, तथापि उसके न्याय-नियम ऐसे बने हुए हैं कि उसको अनन्तशक्तियें दण्डनीय दुष्टाचारी राक्षसों के लिये सदैव वज्र उठाये रहती हैं, इसी अभिप्राय से मुग्दरादि सदैव काम करते हैं, कुछ परमात्मा के हाथों से नहीं ॥२१॥
विषय
कुटिलाचारी जनों पर दण्डपात ।
भावार्थ
( इन्द्रः ) राजा, ऐश्वर्यवान् शत्रुहन्ता पुरुष ( हविर्मथीनां ) प्रजाओं के अन्न, यज्ञों के चरु और राज्य के कर आदि को बलात् हरने वाले ( यातूनां ) प्रजाओं के पीड़ादायी मनुष्यों और ( अभि आ विवासताम् ) अभिमुख आकर आक्रमण करने वाले पुरुषों को ( परा-शरः ) दूर तक मार मारने वाला (आ भवत् ) हो । ( परशुः यथा वनं ) जिस प्रकार फरसा, बन को काट गिराता है, (पात्रा इव) जिस प्रकार पत्थर वर्त्तनों को तोड़ डालता है उसी प्रकार ( शक्रः ) शक्तिशाली राजा ( रक्षसः ) दुष्ट पुरुषों को ( परशु:) कुल्हाड़ा सा होकर (अभि एति) प्राप्त हो और ( रक्षसः सतः भिन्दन् एति ) उन दुष्टों को भेद नीति से तोड़ता फोड़ता हुआ प्राप्त हो ।
टिप्पणी
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः ॥ देवताः – १ –७, १५, २५ इन्द्रासोमो रक्षोहणौ ८, । ८, १६, १९-२२, २४ इन्द्रः । ९, १२, १३ सोमः । १०, १४ अग्निः । ११ देवाः । १७ ग्रावाणः । १८ मरुतः । २३ वसिष्ठः । २३ पृथिव्यन्तरिक्षे ॥ छन्द:१, ६, ७ विराड् जगती । २ आर्षी जगती । ३, ५, १८, २१ निचृज्जगती । ८, १०, ११, १३, १४, १५, १७ निचृत् त्रिष्टुप् । ६ आर्षी त्रिष्टुप् । १२, १६ विराट् त्रिष्टुप् । १६, २०, २२ त्रिष्टुप् । २३ आर्ची भुरिग्जगती । २४ याजुषी विराट् त्रिष्टुप् । २५ पादनिचृदनुष्टुप् ॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम् ॥
विषय
आक्रमणकारी को दण्ड
पदार्थ
पदार्थ- (इन्द्रः) = ऐश्वर्यवान् शत्रुहन्ता (पुरुष हविर्मथीनां) = प्रजाओं के अन्न, यज्ञों के चरु आदि को हरनेवाले यातूनां प्रजापीड़ादायी मनुष्यों और (अभि आ विवासताम्) = सामने से आक्रमण करनेवाले पुरुषों को (परा-शरः) = दूर तक मार मारनेवाला आ भवत् हो । (परशुः यथा वनं) = जैसे फरसा, वन को काट गिराता है, (पात्रा इव) = जैसे पत्थर वर्त्तनों को तोड़ डालता है वैसे ही (शक्रः) = शक्तिशाली राजा (रक्षसः) = दुष्ट पुरुषों को (परशुः) = कुल्हाड़ा-सा होकर (अभि एति) = प्राप्त हो और (रक्षसः सतः भिन्दन् एति) = उन दुष्टों को भेद-नीति से तोड़ता-फोड़ता हुआ प्राप्त हो ।
भावार्थ
भावार्थ- जो दुष्ट प्रजा के अन्नादि खाद्य पदार्थों व यज्ञ की सामग्री का हरण करे और जो शत्रु सामने से आक्रमण करे राजा उनको कठोरतम दण्ड देकर पीड़ा पहुँचावे ।
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra is the lordly power that throws off the upcoming saboteurs who damage the inputs and infrastructure of yajnic development, he does so for the peace and progress of the human community. He is mighty powerful just like what the axe is for the wood, breaking down the evil and wicked destroyers like pots of clay whenever they raise their head.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा सत्कर्महीन राक्षसांना मारण्यास वज्र घेऊन नेहमी उद्यत असतो. याच अभिप्रायाने उपनिषदात म्हटले आहे ‘महभ्दयं वज्रमुद्यतमिव’ परमात्मा वज्र घेतलेल्या पुरुषाप्रमाणे अत्यंत भयरूप आहे.
टिप्पणी
जरी परमात्मा शांत, सर्वप्रिय व सर्वव्यापक आहे. निराकार व क्रोधरहित आहे. वज्र उचलून प्रहार करणे असंभव आहे. तरीही त्याने न्यायनियम असे बनविलेले आहेत, की त्याच्या अनंत शक्ती दंडनीय, दुराचारी राक्षसांसाठी सदैव वज्र उचलण्यासारख्या असतात. यादृष्टीनेच मुन्दगर (अस्त्रे) वगैरे कार्य करतात. प्रत्यक्ष परमात्म्याच्या हाताने नव्हे. ॥२१॥
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