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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 104 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 104/ मन्त्र 6
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - इन्द्रासोमौ रक्षोहणी छन्दः - विराड्जगती स्वरः - निषादः

    इन्द्रा॑सोमा॒ परि॑ वां भूतु वि॒श्वत॑ इ॒यं म॒तिः क॒क्ष्याश्वे॑व वा॒जिना॑ । यां वां॒ होत्रां॑ परिहि॒नोमि॑ मे॒धये॒मा ब्रह्मा॑णि नृ॒पती॑व जिन्वतम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्रा॑सोमा । परि॑ । वा॒म् । भू॒तु॒ । वि॒श्वतः॑ । इ॒यम् । म॒तिः । क॒क्ष्या॑ । अश्वा॑ऽइव । वा॒जिना॑ । याम् । वा॒म् । होत्रा॑म् । प॒रि॒ऽहि॒नोमि॑ । मे॒धया॑ । इ॒मा । ब्रह्मा॑णि । नृ॒पती॑इ॒वेति॑ नृ॒पती॑ऽइव । जि॒न्व॒त॒म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रासोमा परि वां भूतु विश्वत इयं मतिः कक्ष्याश्वेव वाजिना । यां वां होत्रां परिहिनोमि मेधयेमा ब्रह्माणि नृपतीव जिन्वतम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रासोमा । परि । वाम् । भूतु । विश्वतः । इयम् । मतिः । कक्ष्या । अश्वाऽइव । वाजिना । याम् । वाम् । होत्राम् । परिऽहिनोमि । मेधया । इमा । ब्रह्माणि । नृपतीइवेति नृपतीऽइव । जिन्वतम् ॥ ७.१०४.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 104; मन्त्र » 6
    अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 6; मन्त्र » 1
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (इन्द्रासोमा) हे भगवन् ! (इयम्, मतिः) अनया मत्प्रार्थनया (वाम्) भवान् (विश्वतः) सर्वान् शत्रून् (परिभूतु) वशमानीय सुमार्गाय प्रेरयतु यथा (कक्ष्या) उभयकक्षबन्धनी रज्जुः (वाजिना, अश्वा, इव) अतिबलानश्वान्वशी करोति तद्वत् (याम्, वाचम्) यया वाचा (वाम्) भवन्तं (मेधया) स्वबुद्ध्या (परिहिनोमि) प्रेरयामि (इमा, ब्रह्माणि) सेयं स्तुतिरूपा वाणी (नृपती, इव) प्रजावाक् राजानमिव (जिन्वतम्) भवते रोचताम् ॥६॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (इन्द्रासोमा) हे परमात्मा ! (इयं, मतिः) इस मेरी प्रार्थना से (वाम्) आप (विश्वतः) सब शत्रुओं को (परिभूतु) वश में लाकर सुमार्ग की ओर प्रेरणा करें, जिस प्रकार (कक्ष्या) कक्षबन्धनी रज्जु (वाजिना, अश्वा, इव) बलयुक्त अश्वों को वश में लाकर इष्ट मार्ग में ले आने के योग्य बनाती है, (यां वाचम्) जिस वाणी से (वां) आप को (मेधया) अपनी बुद्धि के अनुसार मैं (परिहिनोमि) प्रेरित करता हूँ, (इमा, ब्रह्माणि) यह स्तुतिरूप वाणी (नृपती, इव) जिस प्रकार राजभक्त प्रजा की वाणी राजा को प्रसन्न करती है, उसी प्रकार (जिन्वतम्) आपको प्रसन्न करे ॥६॥

    भावार्थ

    मन्त्र में ‘इमा ब्रह्माणि’ के अर्थ वैदिक वाणियों के हैं। जिस प्रकार वेद की वाणियें नृपति राजा को कर्म में और अपने स्वधर्म में प्रेरणा करती हैं वा यों कहो कि जिस प्रकार प्रजा की प्रार्थनायें राजा को दुष्टदमन के लिये उद्यत करती हैं, इसी प्रकार आप हमारी प्रार्थनाओं से दुष्ट दस्युओं का दमन करके प्रजा में शान्ति का राज्य फैलावें ॥६॥

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    विषय

    सत्यासत्य का विवेक करने का उपदेश ।

    भावार्थ

    (कक्ष्या वाजिना अश्वा-इव) जिस प्रकार वेग वाले, बलवान् अश्वों को बगलबन्द की रस्सी चारों ओर से बांधती है हे ( इन्द्रासोमा ) ऐश्वर्यवन् वा ज्ञानदर्शिन् आचार्य ! हे सोम ! सौम्य भावयुक्त शिष्य ! ( वां ) आप दोनों को ( इयं मतिः ) यह ज्ञान वा वाणी ( कक्ष्या ) अवगाहन करने योग्य, गंभीर, ( विश्वतः परिभूतु ) सब प्रकार से और सब ओर से प्राप्त हो। ( वां) आप दोनों की ( यां ) जिस ( होत्रां ) ग्रहण करने योग्य उत्तम वाणी को ( मेधया ) उत्तम धारणावती बुद्धि द्वारा ( परि हिनोमि ) मैं बढ़ाऊं या प्राप्त करूं (इमा ब्रह्माणि) और इन वेद वचनों को वा धनों को ( नृपती इव ) राजाओं के समान ( जिन्वतम् ) प्राप्त करो और उपभोग करो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः ॥ देवताः – १ –७, १५, २५ इन्द्रासोमो रक्षोहणौ ८, । ८, १६, १९-२२, २४ इन्द्रः । ९, १२, १३ सोमः । १०, १४ अग्निः । ११ देवाः । १७ ग्रावाणः । १८ मरुतः । २३ वसिष्ठः । २३ पृथिव्यन्तरिक्षे ॥ छन्द:१, ६, ७ विराड् जगती । २ आर्षी जगती । ३, ५, १८, २१ निचृज्जगती । ८, १०, ११, १३, १४, १५, १७ निचृत् त्रिष्टुप् । ६ आर्षी त्रिष्टुप् । १२, १६ विराट् त्रिष्टुप् । १६, २०, २२ त्रिष्टुप् । २३ आर्ची भुरिग्जगती । २४ याजुषी विराट् त्रिष्टुप् । २५ पादनिचृदनुष्टुप् ॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    विषय

    वेदवाणी का अवगाहन

    पदार्थ

    पदार्थ- (कक्ष्या वाजिना अश्वा-इव) = जैसे वेगवाले, अश्वों को बगलबन्द की रस्सी चारों ओर से बाँधती है हे (इन्द्रासोमा) = ऐश्वर्यवन् वा ज्ञानदर्शिन् आचार्य! हे सोम! सौम्य भावयुक्त शिष्य ! (वां) = आप दोनों को (इयं मतिः) = यह ज्ञान वा वाणी (कक्ष्या) = अवगाहन योग्य गम्भीर, (विश्वतः परि भूतु) = सब ओर से प्राप्त हो । (वां) = आप दोनों की (यां) = जिस (होत्रां) = ग्रहण योग्य उत्तम वाणी को (मेधया) = धारणावती बुद्धि द्वारा (परि हिनोमि) = मैं प्राप्त करूँ, (इमा ब्रह्माणि) = इन वेदवचनों को नृपती इव राजाओं के समान तुम दोनों (जिन्वतम्) = प्राप्त करो ।

    भावार्थ

    भावार्थ- ज्ञानी आचार्य और ब्रह्मचारी शिष्य दोनों मिलकर वेदवाणी का गम्भीर मन्थन करें। जो तथ्य व रहस्य निष्कर्ष रूप में प्राप्त हों उन्हें अपनी मेधा बुद्धि के द्वारा धारण करें तथा उनका उपदेशों द्वारा प्रचार करें।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra-Soma, leading powers of governance and peace, like mighty forces in harness ruling the nation, may this prayer of mine, which, with the best of my intention and understanding I address to you as an exhortation, reach you and inspire you and guide you all round, and may you, like the protector and ruler of the nation as you are, make these words of prayer, exhortation and adoration fruitful.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात ‘इमा ब्रह्माणि’ चा अर्थ वैदिक वाणीसंबंधी आहे. ज्या प्रकारे वेदवाणी राजाला कर्म व स्वधर्म यात प्रेरित करते किंवा ज्या प्रकारे प्रजेच्या प्रार्थना राजाला दुष्ट दमनासाठी उद्यत करतात त्याच प्रकारे तू आमच्या प्रार्थनांनी दुष्ट दस्यूंचे दमन करून प्रजेत शांतीचे राज्य प्रसृत कर ॥६॥

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