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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 19 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 19/ मन्त्र 5
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    तव॑ च्यौ॒त्नानि॑ वज्रहस्त॒ तानि॒ नव॒ यत्पुरो॑ नव॒तिं च॑ स॒द्यः। नि॒वेश॑ने शतत॒मावि॑वेषी॒रह॑ञ्च वृ॒त्रं नमु॑चिमु॒ताह॑न् ॥५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तव॑ । च्यौ॒त्नानि॑ । व॒ज्र॒ऽह॒स्त॒ । तानि॑ । नव॑ । यत् । पुरः॑ । न॒व॒तिम् । च॒ । स॒द्यः । नि॒ऽवेश॑ने । श॒त॒ऽत॒मा । अ॒वि॒वे॒षीः॒ । अह॑न् । च॒ । वृ॒त्रम् । नमु॑चिम् । उ॒त । अ॒ह॒न् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तव च्यौत्नानि वज्रहस्त तानि नव यत्पुरो नवतिं च सद्यः। निवेशने शततमाविवेषीरहञ्च वृत्रं नमुचिमुताहन् ॥५॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तव। च्यौत्नानि। वज्रऽहस्त। तानि। नव। यत्। पुरः। नवतिम्। च। सद्यः। निऽवेशने। शतऽतमा। अविवेषीः। अहन्। च। वृत्रम्। नमुचिम्। उत। अहन् ॥५॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 19; मन्त्र » 5
    अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 29; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुना राज्ञः सैन्यानि कीदृशानि भवेयुरित्याह ॥

    अन्वयः

    हे वज्रहस्त ! यथा तव तानि च्यौत्नानि सूर्यो यन्नवनवतिं पुरः सद्योऽहँश्च निवेशने शततमा असंख्यान्युतापि नमुचिं वृत्रं चाऽहंस्तथा त्वमविवेषीः सैन्यानि प्राप्य शत्रुबलान्यविवेषीः ॥५॥

    पदार्थः

    (तव) (च्यौत्नानि) च्यवन्ति शत्रवो येभ्यस्तानि बलानि। च्यौत्नमिति बलनाम। (निघं०२.९)(वज्रहस्त) (तानि) (नव) (यत्) याः (पुरः) शत्रूणां नगर्यः (नवतिम्) एतत्संख्याताः (च) (सद्यः) (निवेशने) निविशन्ति यस्मिंस्तस्मिन् (शततमा) अतिशयेन शतानि (अविवेषीः) व्याप्नुयाः (अहन्) हन्ति (च) (वृत्रम्) आवरकं मेघम् (नमुचिम्) यः स्वस्वरूपं न मुञ्चति तम् (उत) अपि (अहन्) हन्ति ॥५॥

    भावार्थः

    हे राजन् ! यथा सूर्योऽसंख्यानि मेघस्य नगराणीवाब्दलानि घनाकाराणि हन्ति तथा तवोत्तमानि सैन्यानि भूत्वा सर्वान् दुष्टाञ्छत्रून् घ्नन्तु ॥५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर राजा के सेनाजन कैसे हों, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (वज्रहस्त) हाथ में वज्र रखनेवाले ! जैसे (तव) आपके (तानि) वे (च्यौत्नानि) बल हैं अर्थात् सूर्य (यत्) जो (नवनवतिम्) निन्यानवे (पुरः) मेघरूपी शत्रुओं की नगरी उनको (सद्यः) शीघ्र (अहन्) हनता (च) और (निवेशने) जिसमें निवास करते हैं उस स्थान में (शततमा) अतीव सैकड़ों को (उत) और (नमुचिम्) जो अपने रूप को नहीं छोड़ता उस (वृत्रम्) आच्छादन करनेवाले मेघ को (च) भी (अहन्) मारता, वैसे आप (अविवेषीः) व्याप्त हूजिये अर्थात् सेना जनों को प्राप्त होकर शत्रुबलों को प्राप्त हूजिये ॥५॥

    भावार्थ

    हे राजन् ! जैसे सूर्य असंख्य मेघ की नगरियों के समान सघन घन घटाघूम बादलों को हनता है, वैसे तुम्हारे सेना जन उत्तम होकर समस्त शत्रुओं को मारें ॥५॥

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    विषय

    इन्द्र का ९९ पुरी भेदन और नमुचिवध का रहस्य।

    भावार्थ

    हे ( वज्रहस्त ) शस्त्रास्त्र-बल को हाथों में धारण करने वाले, वीर्यवन् ! बलवन् ! ( तव ) तेरे ( तानि ) वे नाना प्रकार के ( च्यौत्नानि ) प्रजावर्गों, वा सैन्यों के संचालित करने और शत्रु को पदच्युत करने वाले सामर्थ्य हों ( यत् ) कि तू ( सद्यः ) शीघ्र ही ( नव नवतिं पुरः) ९९ ( निन्यानवे ) शत्रु-नगरों को भी ( अहन् ) नाश करने में समर्थ हो और स्वयं ( निवेशने ) अपने आप बसने के लिये ( शततमाम् ) सौवीं नगरी को (आविवेषी: ) व्यापकर, अधिकार करके रह। ( वृत्रं ) बढ़ते हुए विघ्नकारी ( नमुचिम्) अपनी दुष्टता को न छोड़ने वाले वा अपराध करने पर विना दण्ड के न छोड़ने योग्य, कैद करने योग्य शत्रु को भी अवश्य (अहन् ) दण्ड देने में समर्थ हो। इत्येकोनत्रिंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः।। इन्द्रो देवता ॥ छन्दः - १, ५ त्रिष्टुप् । ३, ६ निचृत्त्रिष्टुप् । ७, ९, १० विराट् त्रिष्टुप् । २ निचृत्पंक्ति: । ४ पंक्ति: । ८, ११ भुरिक् पंक्तिः ॥॥ एकादशर्चं सूक्तम् ।।

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    विषय

    वासना व अहंकार से शून्य दीर्घ जीवन

    पदार्थ

    [१] हे (वज्रहस्त) = हाथ में वज्र को धारण किये हुए प्रभो ! (तानि) = वे सब (च्यौत्नानि) = शत्रुओं को च्युत करनेवाले बल (तव) = आपके ही हैं (यत्) = जो (सद्यः) = शीघ्र ही (नवतिं नव च) = नव्वे और नौ अथात् निन्यानवे (पुरः) = शत्रुओं की नगरियों को (अहन्) = नष्ट करते हैं। [२] आसुरभावों की निन्यानवे नगरियों का विध्वंस करके (निवेशने) = निवेश के निमित्त - उत्तमता से निवास के निमित्त (शततमा) = सौवीं नगरी में (अविवेषी:) = व्याप्त होते हैं। शरीर को वर्ष तक ले चलते हैं (च) = और (वृत्रम्) = ज्ञान की आवरणभूत वासना को (उत) = और (नमुचिम्) = अहंकार को (अहन्) = नष्ट करते हैं। प्रभु कृपा से दीर्घजीवन प्राप्त होता है, यह जीवन वासना व अहंकार से शून्य होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- यह सब प्रभु की ही शक्ति है कि वे असुरों की निन्यानवे नगरियों को ध्वस्त करके हमें सौवीं नगरी में प्राप्त कराते हैं तथा वासना व अहंकार से हमें रहित करते हैं।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे राजा ! जसा सूर्य असंख्य मेघाच्या नगरी असलेल्या सघन मेघांचा नाश करतो तशी तुझी सेना उत्तम बनावी व तिने शत्रूंना मारावे. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O wielder of the thunderbolt, those frightful forces of yours which instantly destroy nintynine citadels of want and darkness and hundreds more for the entry of light and justice, pray demolish the unbreakable walls of the forts of impenetrable ignorance, superstition, prejudice, hatred and violence.

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