ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 19/ मन्त्र 8
प्रि॒यास॒ इत्ते॑ मघवन्न॒भिष्टौ॒ नरो॑ मदेम शर॒णे सखा॑यः। नि तु॒र्वशं॒ नि याद्वं॑ शिशीह्यतिथि॒ग्वाय॒ शंस्यं॑ करि॒ष्यन् ॥८॥
स्वर सहित पद पाठप्रि॒यासः॑ । इत् । ते॒ । म॒घ॒ऽव॒न् । अ॒भिष्टौ॑ । नरः॑ । म॒दे॒म॒ । श॒र॒णे । सखा॑यः । नि । तु॒र्वश॑म् । नि । याद्व॑म् । शि॒शी॒हि॒ । अ॒ति॒थि॒ऽग्वाय॑ । शंस्य॑म् । क॒रि॒ष्यन् ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रियास इत्ते मघवन्नभिष्टौ नरो मदेम शरणे सखायः। नि तुर्वशं नि याद्वं शिशीह्यतिथिग्वाय शंस्यं करिष्यन् ॥८॥
स्वर रहित पद पाठप्रियासः। इत्। ते। मघऽवन्। अभिष्टौ। नरः। मदेम। शरणे। सखायः। नि। तुर्वशम्। नि। याद्वम्। शिशीहि। अतिथिऽग्वाय। शंस्यम्। करिष्यन् ॥८॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 19; मन्त्र » 8
अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 30; मन्त्र » 3
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अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 30; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्याः परस्परं कथं वर्तेरन्नित्याह ॥
अन्वयः
हे मघवन् ! सखायः प्रियासो नरो वयं तेऽभिष्टौ शरणे मदेम त्वं तुर्वशं नि शिशीहि याद्वं नि शिशीह्यतिथिग्वाय शंस्यमित्करिष्यञ्छिशीहि ॥८॥
पदार्थः
(प्रियासः) प्रीतिमन्तः प्रीता वा (इत्) एव (ते) तव (मघवन्) बहुधनप्रद (अभिष्टौ) अभिप्रियायां सङ्गतौ (नरः) नायकाः (मदेम) आनन्देम (शरणे) शरणागतपालने कर्मणि (सखायः) मित्राः सन्तः (नि) (तुर्वशम्) निकटस्थं जनम्। तुर्वश इति अन्तिकनाम। (निघं०२.१६)। (नि) (याद्वम्) ये यान्ति तान् यो याति तम् (शिशीहि) तीक्ष्णीकुरु (अतिथिग्वाय) अतिथीनां गमनाय (शंस्यम्) प्रशंसनीयम् (करिष्यन्) ॥८॥
भावार्थः
हे राजन् ! ये शुभगुणकर्मस्वभावाचरणेन युक्तास्त्वयि प्रीतिमन्तः स्युस्तान् धार्मिकान् प्रशंसितान् कुरु यथाऽतिथीनामागमनं स्यात्तथा विधेहि ॥८॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्य परस्पर कैसे वर्त्तें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
(मघवन्) बहुत धन देनेवाले ! (सखायः) मित्र होते हुए (प्रियासः) प्रीतिमान् वा प्रसन्न हुए (नरः) नायक मनुष्य हम लोग (ते) आपके (अभिष्टौ) सब ओर से प्रिय सङ्गति अर्थात् मेल मिलाप में (शरणे) शरणागत की पालना करने कर्म में (मदेम) आनन्दित हों। आप (तुर्वशम्) निकटस्थ मनुष्य को (नि, शिशीहि) निरन्तर तीक्ष्ण कीजिये और (याद्वम्) जो जाते हैं उन पर जो जाता है उसको (नि) निरन्तर तीक्ष्ण कीजिये और (अतिथिग्वाय) अतिथियों के गमन के लिये (शंस्यम्) प्रशंसनीय को (इत्) ही (करिष्यन्) करते हुए तीक्ष्ण कीजिये ॥८॥
भावार्थ
हे राजन् ! जो शुभ गुणों के आचरण से युक्त तुम में प्रीतिमान् हों, उन धार्मिक जनों को प्रशंसित कीजिये, जैसे अतिथियों का आगमन हो, वैसा विधान कीजिये ॥८॥
विषय
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भावार्थ
हे (मघवन् ) उत्तम धन के स्वामिन् ! हम ( नरः) नायक ( सखायः ) तेरे ही मित्र होकर ( अभिष्टौ ) अभीष्ट वस्तु प्राप्त करने के लिये ( ते प्रियांसः इत् ) तेरे प्रिय होकर ही ( मदेम ) आनन्दित रहें । ( अतिथिग्वाय ) अतिथियों को प्राप्त होकर उनके आदर सत्कार के लिये ( तुर्वशं ) निकट रहने वाले और (याद्धं ) मनुष्यों को (निशिशीहि ) तीक्ष्ण कर । वे अतिथि के सत्कार के लिये समीप के पड़ोसी भी सहयोगी होवें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः।। इन्द्रो देवता ॥ छन्दः - १, ५ त्रिष्टुप् । ३, ६ निचृत्त्रिष्टुप् । ७, ९, १० विराट् त्रिष्टुप् । २ निचृत्पंक्ति: । ४ पंक्ति: । ८, ११ भुरिक् पंक्तिः ॥॥ एकादशर्चं सूक्तम् ।।
विषय
'तुर्वश, याद्व, अतिथिग्व'
पदार्थ
[१] हे (मघवन्) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (ते अभिष्टौ) = आपकी अभ्येषणा में, प्रार्थना व आराधना में (ते) = आपके (प्रियासः इत्) = प्रिय ही हों। (नरः) = उन्नति-पथ पर चलनेवाले हम [ते] (सखायः) = आपके मित्र बनकर आपकी शरणे शरण में (मदेम) = आनन्द का अनुभव करें। [२] हे प्रभो! आप (तुर्वशम्) = त्वरा से शत्रुओं को वश में करनेवाले इस उपासक को (निशिशीहि) = खूब तीक्ष्ण करिये, यह बड़ा तीक्ष्णबुद्धि बने। (याद्वम्) = इस यत्नशील मनुष्य को (नि) [शिशीहि] = तीक्ष्ण करिये, काम-क्रोध आदि शत्रुओं के लिये भयंकर बनाइये। अतिथिग्वाय अतिथियों के सत्कार के लिये उनके प्रति जानेवाले इस उपासक के लिये आप सदा शंस्यम्=प्रशंसनीय बातों को ही (करिष्यन्) = करनेवाले होते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु की आराधना करते हुए हम प्रभु के प्रिय बनें। प्रभु के मित्र बनकर प्रभु की शरण में आनन्द का अनुभव करें। ओं को वश करनेवाले, यत्नशील व अतिथि सेवी बनें प्रभु अवश्य हमारा कल्याण करेंगे।
मराठी (1)
भावार्थ
हे राजा ! शुभ गुणांच्या आचरणांनी युक्त असलेल्या व तुझ्यावर प्रेम करणाऱ्या धार्मिक लोकांची प्रशंसा कर. जसे अतिथीचे आगमन होईल असा नियम बनव. ॥ ८ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Lord of wealth, honour and excellence, let us all, leaders and friends of yours, abide and rejoice as your dearest in the protective shelter of your love and good will for our desired aims. Inspire and refine the nearest settled neighbour as well as the traveller on the move, raising the generous host in honour and praise for hospitality.
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