ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 40/ मन्त्र 5
अ॒स्य दे॒वस्य॑ मी॒ळ्हुषो॑ व॒या विष्णो॑रे॒षस्य॑ प्रभृ॒थे ह॒विर्भिः॑। वि॒दे हि रु॒द्रो रु॒द्रियं॑ महि॒त्वं या॑सि॒ष्टं व॒र्तिर॑श्विना॒विरा॑वत् ॥५॥
स्वर सहित पद पाठअ॒स्य । दे॒वस्य॑ । मी॒ळ्हुषः॑ । व॒याः । विष्णोः॑ । ए॒षस्य॑ । प्र॒ऽभृ॒थे । ह॒विःऽभिः॑ । वि॒दे । हि । रु॒द्रः । रु॒द्रिय॑म् । म॒हि॒ऽत्वम् । या॒सि॒ष्टम् । व॒र्तिः । अ॒श्वि॒नौ॒ । इरा॑ऽवत् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अस्य देवस्य मीळ्हुषो वया विष्णोरेषस्य प्रभृथे हविर्भिः। विदे हि रुद्रो रुद्रियं महित्वं यासिष्टं वर्तिरश्विनाविरावत् ॥५॥
स्वर रहित पद पाठअस्य। देवस्य। मीळ्हुषः। वयाः। विष्णोः। एषस्य। प्रऽभृथे। हविःऽभिः। विदे। हि। रुद्रः। रुद्रियम्। महिऽत्वम्। यासिष्टम्। वर्तिः। अश्विनौ। इराऽवत् ॥५॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 40; मन्त्र » 5
अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 7; मन्त्र » 5
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अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 7; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥
अन्वयः
यथाश्विना अस्य मीळ्हुषो विष्णोरेषस्य देवस्य हविर्भिः प्रभृथे जगतीरावद्वर्तिर्महित्वं यासिष्टं तस्य रुद्रियं वया रुद्रोऽहं हि विदे ॥५॥
पदार्थः
(अस्य) (देवस्य) देदीप्यमानस्य सकलसुखदातुः (मीळ्हुषः) जलेनेव सुखसेचकस्य (वयाः) प्रापकः (विष्णोः) विद्युदिव व्यापकस्येश्वरस्य (एषस्य) सर्वत्र प्राप्तव्यस्य (प्रभृथे) प्रकर्षेण धारिते जगति (हविर्भिः) होतव्यैः पदार्थैरिवादत्तैः शान्तैश्चित्तादिभिः (विदे) प्राप्नोमि (हि) (रुद्रः) दुष्टानां रोदयिता (रुद्रियम्) प्राणसम्बन्धि (महित्वम्) महत्त्वम् (यासिष्टम्) प्राप्नुतः (वर्तिः) मार्गम् (अश्विनौ) सूर्याचन्द्रमसौ (इरावत्) अन्नाद्यैश्वर्ययुक्तम् ॥५॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्याः ! यस्येश्वरस्य महिमानं प्राप्य सूर्यादयो लोकाः प्रकाशयन्ति तस्यैवोपासनं सर्वस्वेन कर्तव्यम् ॥५॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
जैसे (अश्विना) सूर्य और चन्द्रमा (अस्य) इस (मीळ्हुषः) जल के समान सुख सींचनेवाला (विष्णोः) बिजुली के समान व्यापक ईश्वर (एषस्य) जो कि सर्वत्र प्राप्त होने (देवस्य) और निरन्तर प्रकाशमान सकल सुख देनेवाला उसके (हविर्भिः) होमने योग्य पदार्थों के समान ग्रहण किये शान्त चितादिकों से (प्रभृथे) उत्तमता से धारण किये हुए जगत् में (इरावत्) अन्नादि ऐश्वर्य्य युक्त (वर्तिः) मार्ग को और (महित्वम्) महत्व को (यासिष्टम्) प्राप्त होते हैं, उस ईश्वर की (रुद्रियम्) प्राणसम्बन्धी महिमा को (वयाः) प्राप्त करने (रुद्रः) दुष्टों को रुलानेवाला मैं (हि) ही (विदे) प्राप्त होता हूँ ॥५॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जिस ईश्वर की महिमा को पाकर सूर्य आदि प्रकाश करते हैं, उसी को उपासना सर्वस्व से करनी चाहिये ॥५॥
विषय
तेजस्वी राजा के कर्त्तव्य।
भावार्थ
( अस्य ) इस ( देवस्य ) तेजोमय, सुखप्रदाता ( मीढुषः ) वीर्यसेक्ता, बलवान् पित्ता के तुल्य, (विष्णोः) व्यापक बल शाली, (एषस्य) सबके चाहने योग्य, सर्वप्रिय ( हविर्भिः प्रभृथे ) ग्राह्य अन्नों या आज्ञावचनों द्वारा उत्तम रीति से परिपोषित इस जगत् वा राष्ट्र में अन्य सब ( वयाः ) शाखा के समान हैं। ( रुद्रः ) दुष्टों का रुलाने वाला वह ही ( रुद्रियं महित्वं विदे) रुद्र होने योग्य महान् सामर्थ्य को प्राप्त करता है । हे ( अश्विनौ ) स्त्रीपुरुषो ! सूर्य चन्द्रवत् तेजस्वी जनो ! ( इरावत् वर्त्तिः ) अन्नादि से समृद्ध गृह को तुम लोग ( यासिष्टं ) प्राप्त करो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः॥ विश्वेदेवा देवताः । छन्दः—१ पंक्ति: । ३ भुरिक् पंक्तिः विराट् पंक्तिः। २, ४ विराट् त्रिष्टुप् । ५, ७ निचृत्त्रिष्टुप्॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥
विषय
अन्नादि से समृद्ध बनो
पदार्थ
पदार्थ- (अस्य) = इस (देवस्य) = सुखप्रदाता (मीढुषः) = वीर्यसेक्ता पिता के तुल्य, (विष्णोः) = बलशाली, (एषस्य) = सबके चाहने योग्य, (हविर्भिः प्रभृथे) = अन्नों या आज्ञा-वचनों द्वारा उत्तम रीति से पोषित इस राष्ट्र में सब (वयाः) = शाखा के समान हैं। (रुद्रः) = दुष्टों का रुलानेवाला वह ही (रुद्रियं महित्वं विदे) = रुद्र होने योग्य सामर्थ्य को प्राप्त करता है। हे (अश्विनौ) = स्त्री-पुरुषो! तुम लोग (इरावत् वर्त्तिः) = अन्नादि-समृद्ध गृह को (यासिष्टं) = प्राप्त करो।
भावार्थ
भावार्थ-दुष्टों को दण्डित करनेवाला राजा तेजस्वी, बलवान्, पराक्रमी होवे। राजा पिता के समान, सर्वप्रिय होकर राष्ट्र के स्त्री-पुरुषों को अन्नादि से खूब समृद्ध कर उनका पोषण करे।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो! ज्या ईश्वराची महिमा प्राप्त करून सूर्य इत्यादी गोल प्रकाशित होतात त्याचीच सर्वस्वाने उपासना केली पाहिजे. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Of this generous, self-refulgent, creative and omnipresent lord Vishnu, all divinities and varieties of existence are extensive manifestations like branches of a tree, in this well sustained system of the universe by virtue of the homage they offer and the sustenance they receive. Rudra, lord sustainer of the good and scourage of evil, alone knows the mighty majesty I adore, and I pray may the Ashvins, sun and moon and twin divine complementarities of nature’s energy, come by the paths of divine bounties and bless us.
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