ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 41/ मन्त्र 6
सम॑ध्व॒रायो॒षसो॑ नमन्त दधि॒क्रावे॑व॒ शुच॑ये प॒दाय॑। अ॒र्वा॒ची॒नं व॑सु॒विदं॒ भगं॑ नो॒ रथ॑मि॒वाश्वा॑ वा॒जिन॒ आ व॑हन्तु ॥६॥
स्वर सहित पद पाठसम् । अ॒ध्व॒राय॑ । उ॒षसः॑ । न॒म॒न्त॒ । द॒धि॒क्रावा॑ऽइव । शुच॑ये । प॒दाय॑ । अ॒र्वा॒ची॒नम् । व॒सु॒ऽविद॑म् । भग॑म् । नः॒ । रथ॑म्ऽइव । अश्वाः॑ । वा॒जिनः॑ । आ । व॒ह॒न्तु॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
समध्वरायोषसो नमन्त दधिक्रावेव शुचये पदाय। अर्वाचीनं वसुविदं भगं नो रथमिवाश्वा वाजिन आ वहन्तु ॥६॥
स्वर रहित पद पाठसम्। अध्वराय। उषसः। नमन्त। दधिक्रावाऽइव। शुचये। पदाय। अर्वाचीनम्। वसुऽविदम्। भगम्। नः। रथम्ऽइव। अश्वाः। वाजिनः। आ। वहन्तु ॥६॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 41; मन्त्र » 6
अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 8; मन्त्र » 6
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अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 8; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्याः कीदृशा भूत्वा किं प्राप्य किं कुर्युरित्याह ॥
अन्वयः
रथमिवाश्वा ये वाजिनो जनाः शुचयेऽध्वराय पदायोषसो दधिक्रावेव सन्नमन्त तेऽर्वाचीनं वसुविदं भगं न आ वहन्तु ॥६॥
पदार्थः
(सम्) (अध्वराय) हिंसारहिताय धर्म्याय व्यवहाराय (उषसः) प्रभातवेलायाः (नमन्त) नमन्ति (दधिक्रावेव) धारकान् क्रमतइव (शुचये) पवित्राय (पदाय) प्राप्तव्याय (अर्वाचीनम्) इदानीन्तनं नूतनम् (वसुविदम्) यो वसूनि विन्दति प्राप्नोति तम् (भगम्) सर्वैश्वर्ययुक्तम् (नः) अस्मान् (रथमिव) रमणीयं यानमिव (अश्वाः) महान्तो वेगवन्तस्तुरङ्गा आशुगामिनो विद्युदादयो वा (वाजिनः) (आ) (वहन्तु) ॥६॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः । ये मनुष्याः प्रातरुत्थाय वेगयुक्ताश्ववत्सद्यो गत्वाऽऽगत्वाऽऽलस्यं विहायैश्वर्यं प्राप्य नम्रा जायन्ते त एव पवित्रं परमात्मानं प्राप्तुं शक्नुवन्ति ॥६॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्यों को कैसे होकर क्या पाकर क्या करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
(रथमिव, अश्वाः) रमणीय यान को महान् वेगवाले घोड़े वा शीघ्र जानेवाले बिजुली आदि पदार्थ जैसे वैसे जो (वाजिनः) विशेष ज्ञानी जन (शुचये) पवित्र (अध्वराय) हिंसारहित धर्मयुक्त व्यवहार (पदाय) और पाने योग्य पदार्थ के लिये (उषसः) प्रभात वेला की (दधिक्रावेव) धारणा करनेवालों को प्राप्त होते के समान (सम्, नमन्त) अच्छे प्रकार नमते हैं वे (अर्वाचीनम्) तत्काल प्रसिद्ध हुए नवीन (वसुविदम्) धनों को प्राप्त होते हुए (भगम्) सर्व ऐश्वर्य्य युक्त जन को और (नः) हम लोगों को (आ, वहन्तु) सब ओर से उन्नति को पहुँचावें ॥६॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । जो मनुष्य प्रातःकाल उठ के वेगयुक्त घोड़ों के समान शीघ्र जाकर आकर आलस्य छोड़ ऐश्वर्य को पाय नम्र होते हैं, वे ही पवित्र परमात्मा को पा सकते हैं ॥६॥
विषय
दधिक्रावा प्रभु और विद्वान् का वर्णन ।
भावार्थ
( उषसः ) सब प्रातःकाल के अवसरों में आप लोग (अध्वराय ) हिंसा रहित और कभी नाश या निष्फल न होने वाले यज्ञ, उपासनादि कर्म के लिये और ( शुचये ) शुद्ध, पवित्र, (पदाय ) प्राप्तव्य परम प्रभु को प्राप्त करने के लिये ( दधिक्रावा इव ) अपने ऊपर बोझ लेकर चलने वाले अश्व के समान ही दृढ़ कमर कसकर, उद्देश्य को धारण करके आगे पैर बढ़ाते हुए ( सं नमन्त ) अच्छी प्रकार झुको । ( अश्वाः रथं न ) अश्व जिस प्रकार रथ को लेजाते हैं उसी प्रकार ( वाजिनः ) ज्ञानवान्, बलवान् लोग ( अर्वाचीनं ) साक्षात् करणीय ( वसु-विदं ) नाना ऐश्वर्यो, लोकों, जीवों को प्राप्त और उनसे प्राप्त करने योग्य (भगं) ऐश्वर्यमय, प्रभु तक ( नः आवहन्तु ) हमें पहुंचावें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः ॥ १ लिङ्गोक्ताः । २—६ भगः । ७ उषा देवता ॥ छन्दः—१ निचृज्जगती। २, ३, ५, ७ निचृत्त्रिष्टुप् । ६ त्रिष्टुप् । ४ पंक्तिः॥ सप्तर्चं सूकम्॥
विषय
प्रातः काल ईश्वर प्राप्ति का व्रत लें
पदार्थ
पदार्थ- (उषसः) = प्रातः काल के समय आप लोग (अध्वराय) = हिंसारहित उपासनादि के लिये और (शुचये) = पवित्र, (पदाय) = प्रभु को प्राप्त करने के लिये (दधिक्रावा इव) = बोझ लेकर चलनेवाले (अश्व) = के समान व्रत को धारण करके आगे पैर बढ़ाते हुए (सं नमन्त) = अच्छी प्रकार झुको । (अश्वाः रथं न) = अश्व जैसे रथ को ले जाते हैं वैसे ही (वाजिनः) = ज्ञानवान् लोग (अर्वाचीनं) = साक्षात् करणीय (वसुविदं) = ऐश्वर्यों, जीवों को प्राप्त और उनसे पालने योग्य (भगं) = ऐश्वर्यमय प्रभु तक (नः आवहन्तु) = हमें पहुँचावें।
भावार्थ
भावार्थ- प्रातः काल की वेला में ज्ञानवान् साधकों के सान्निध्य में बैठकर यज्ञ तथा द्वारा परम पवित्र प्राप्त करने योग्य परमेश्वर की प्राप्ति के लिए दृढ़व्रती होकर साधना पथ उपासना पर बढ़ते जावें।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जी माणसे आळस सोडून प्रातःकाळी उठून वेगयुक्त घोड्याप्रमाणे शीघ्र जाणे-येणे करून ऐश्वर्य प्राप्त करतात व नम्र असतात तीच पवित्र परमात्म्याला प्राप्त करू शकतात. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
As the dawns arise and bless our morning yajna with holiness, as the sun inspires us to rise to the highest and purest divine attainment, as the motive forces of energy drive the chariot and lead the master to the desired destination, so may the Vajins, scholars, sages and warlike leaders lead us and thus bring us the latest and highest honour and excellence overflowing with the wealth and values of life.
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