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ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 49/ मन्त्र 2
या आपो॑ दि॒व्या उ॒त वा॒ स्रव॑न्ति ख॒नित्रि॑मा उ॒त वा॒ याः स्व॑यं॒जाः। स॒मु॒द्रार्था॒ याः शुच॑यः पाव॒कास्ता आपो॑ दे॒वीरि॒ह माम॑वन्तु ॥२॥
स्वर सहित पद पाठयाः । आपः॑ । दि॒व्याः । उ॒त । वा॒ । स्रव॑न्ति । ख॒नित्रि॑माः । उ॒त । वा॒ । याः । स्व॒य॒म्ऽजाः । स॒मु॒द्रऽअ॑र्थाः । याः । शुच॑यः । पा॒व॒काः । ताः । आपः॑ । दे॒वीः । इ॒ह । माम् । अ॒व॒न्तु॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
या आपो दिव्या उत वा स्रवन्ति खनित्रिमा उत वा याः स्वयंजाः। समुद्रार्था याः शुचयः पावकास्ता आपो देवीरिह मामवन्तु ॥२॥
स्वर रहित पद पाठयाः। आपः। दिव्याः। उत। वा। स्रवन्ति। खनित्रिमाः। उत। वा। याः। स्वयम्ऽजाः। समुद्रऽअर्थाः। याः। शुचयः। पावकाः। ताः। आपः। देवीः। इह। माम्। अवन्तु ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 49; मन्त्र » 2
अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 16; मन्त्र » 2
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अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 16; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! या दिव्या आपस्स्रवन्ति उत वा खनित्रिमा जायन्ते याः स्वयंजा उत वा समुद्रार्थाः याः शुचयः पावकाः सन्ति ता देवीराप इह मामवन्तु ॥२॥
पदार्थः
(याः) (आपः) जलानि (दिव्याः) शुद्धाः (उत) अपि (वा) (स्रवन्ति) चलन्ति उत वा (खनित्रिमाः) याः खनित्रेण संजाताः (उत) (वा) (याः) (स्वयंजाः) स्वयंजाताः (समुद्रार्थाः) समुद्रायेमाः (याः) (शुचयः) पवित्राः (पावकाः) पवित्रकर्त्र्यः (ताः) (आपः) (देवीः) देदीप्यमानाः (इह) (माम्) (अवन्तु) ॥२॥
भावार्थः
हे विद्वांसो ! यथा जलानि प्राणाश्चाऽस्मान् संरक्ष्य वर्धयेयुस्तथा यूयमस्मान् बोधयत ॥२॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! (याः) जो (दिव्याः) शुद्ध (आपः) जल (स्रवन्ति) चूते हैं (उत, वा) अथवा (खनित्रिमाः) खोदने से उत्पन्न होते हैं वा (याः) जो (स्वयंजाः) आप उत्पन्न हुए हैं (उत, वा) अथवा (समुद्रार्थाः) समुद्र के लिये हैं वा (याः) जो (शुचयः) पवित्र (पावकाः) पवित्र करनेवाले हैं (ताः) वह (देवीः) देदीप्यमान (आपः) जल (इह) इस संसार में (माम्) मेरी (अवन्तु) रक्षा करें ॥२॥
भावार्थ
हे विद्वानो ! जैसे जल और प्राण हमारी अच्छे प्रकार रक्षा कर बढ़ावें, वैसे तुम लोग हम को बोध कराओ ॥२॥
विषय
द्विव्य खनित्रिम और पावक तीन प्रकार की प्रजाएं।
भावार्थ
( यः ) जो (आपः ) जल ( दिव्याः ) आकाश में उत्पन्न, या सूर्य विद्युतादि से उत्पन्न (उत वा) और जो (स्रवन्ति ) बहती हैं जो ( खनित्रिमाः ) खोदकर प्राप्त की जायें (उत वा) और (या: स्वयं-जाः ) जो स्वयं आप से आप भूमि से उत्पन्न हुई हों, ( याः ) जो (समुद्रार्था:) समुद्र आकाश से आने वाली या नदी रूप से समुद्र को जाने वाले, ( शुचयः ) शुद्ध ( पावकाः ) पवित्र करने वाली ( आपः ) जलधाराएं हैं वे (देवी:) उत्तम गुणों से युक्त होकर (इह माम् अवन्तु) इस राष्ट्र में मेरी रक्षा करें। इसी प्रकार आप्त प्रजाएं भी लोक व्यवहारों, विद्याविज्ञान में कुशल 'दिव्य' हैं । 'खनि' खान आदि की रक्षक 'खनित्रिम' या कृषि, कूप, खननादि से जीने वाली 'खनित्रिम' हैं । स्वयं अपने व्यवसाय या धन से बढ़ने वाले 'स्वयंजा' समुद्रवत् गम्भीर पुरुष के लिये अपने को सौंपने वाले भृत्यजन, ईमानदार और ( पावकाः ) अग्निवत् अन्यों को उपदेश ज्ञानादि से पवित्र करने वाले गुरु आदि सभी मुझ प्रजा वा राजा की यहां इस राष्ट्र वा राष्ट्रपति पद पर मेरी रक्षा करें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः। आपो देवताः॥ छन्दः–१ निचृत्त्रिष्टुप्। २, ३ त्रिष्टुप्। ४ विराट् त्रिष्टुप्॥
विषय
जल संरक्षण
पदार्थ
पदार्थ- (या:) = जो (आप:) = जल-धाराएँ (दिव्याः) = आकाश में उत्पन्न या सूर्य, विद्युतादि से उत्पन्न (उत वा) = और जो (स्त्रवन्ति) = बहती हैं जो (खनित्रिमाः) = खोदकर प्राप्त की जायें (उत वा) = और (याः स्वयं-जाः) = जो स्वयं आप से आप भूमि से उत्पन्न हुई हों, (याः) = जो (समुद्रार्थाः) = समुद्र, आकाश से आनेवाली या समुद्र को जानेवाली (शुचय:) = शुद्ध (पावका:) = पवित्र करनेवाली (आपः) = जलधाराएँ हैं वे (देवी:) = उत्तम गुणों से युक्त होकर (इह माम् अवन्तु) = इस राष्ट्र में मेरी रक्षा करें।
भावार्थ
भावार्थ- राजा को चाहिए कि वह आकाश से बादलों द्वारा बरसनेवाले जल का संरक्षण करे। भूमि खोदकर कुएँ से प्राप्त जल, पर्वतों या भूमि से अपने आप स्रोतों से बहनेवाले जल तथा नदियों द्वारा समुद्र की ओर जानेवाली धाराओं के जलों को संरक्षित करे। और उन जलों को शोधित कर पवित्र बनाकर पीने सिचाई के योग्य बनाकर राष्ट्र की रक्षा करे।
मराठी (1)
भावार्थ
हे विद्वानांनो! जसे जल व प्राण आमचे रक्षण करून वृद्धी करतात तसा तुम्ही आम्हाला बोध करवा. ॥ २ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
May those divine streams of water and cosmic energy which flow in channels made by man and those which flow their own way and rush to join the sea, all of which are pure and sacred, purifying and sanctifying, may all those streams protect and promote me onward here in the world of dynamic activity.
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