ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 56/ मन्त्र 13
अंसे॒ष्वा म॑रुतः खा॒दयो॑ वो॒ वक्षः॑सु रु॒क्मा उ॑पशिश्रिया॒णाः। वि वि॒द्युतो॒ न वृ॒ष्टिभी॑ रुचा॒ना अनु॑ स्व॒धामायु॑धै॒र्यच्छ॑मानाः ॥१३॥
स्वर सहित पद पाठअंसे॑षु । आ । म॒रु॒तः॒ । खा॒दयः॑ । वः॒ । वक्षः॑ऽसु । रु॒क्माः । उ॒प॒ऽशि॒श्रि॒या॒णाः । वि । वि॒द्युतः॑ । न । वृ॒ष्टिऽभिः॑ । रु॒चा॒नाः । अनु॑ । स्व॒धाम् आयु॑धै॒र् यच्छ॑मानाः ॥
स्वर रहित मन्त्र
अंसेष्वा मरुतः खादयो वो वक्षःसु रुक्मा उपशिश्रियाणाः। वि विद्युतो न वृष्टिभी रुचाना अनु स्वधामायुधैर्यच्छमानाः ॥१३॥
स्वर रहित पद पाठअंसेषु। आ। मरुतः। खादयः। वः। वक्षःऽसु। रुक्माः। उपऽशिश्रियाणाः। वि। विद्युतः। न। वृष्टिऽभिः। रुचानाः। अनु। स्वधाम् आयुधैः। यच्छमानाः ॥१३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 56; मन्त्र » 13
अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 24; मन्त्र » 3
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अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 24; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्योद्धारः कीदृशा भवेयुरित्याह ॥
अन्वयः
हे मरुतो ! ये उपशिश्रियाणा वक्षःसु रुक्माः खादयो वृष्टिभिर्विद्युतो नानु स्वधां वि रुचाना आयुधैश्शत्रून् यच्छमानाः तेषां वोंऽसेषु बलमा वर्तते ते भवन्तो विजयिनो भवन्ति ॥१३॥
पदार्थः
(अंसेषु) भुजमूलेषु (आ) (मरुतः) वायव इव बलिष्ठा मनुष्याः (खादयः) ये खादन्ति ते (वः) युष्माकम् (वक्षःसु) हृदयदेशेषु (रुक्माः) देदीप्यमानाः (उपशिश्रियाणाः) ये उपश्रयन्ति ते (वि) (विद्युतः) स्तनयित्नवः (न) इव (वृष्टिभिः) (रुचानाः) रोचमानाः (अनु) (स्वधाम्) अन्नम् (आयुधैः) शस्त्रास्त्रैः युद्धसाधनैः (यच्छमानाः) निग्रहीतारः ॥१३॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः । हे शूरवीरा ! मनुष्या यथा विद्युतो वृष्टिभिस्सहैव प्रकाशन्ते तथैव यूयं शस्त्रास्त्रैः प्रकाशध्वं स्वशरीरबलं वर्धयित्वोत्तमसेनामुपश्रित्य शत्रुन् निगृह्णीत ॥१३॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर योद्धा कैसे हों, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (मरुतः) पवनों के समान बलिष्ठ मनुष्यो ! जो (उपशिश्रियाणाः) समीप सेवनेवाले (वक्षःसु) हृदयों में (रुक्माः) देदीप्यमान (खादयः) भक्षण करते हैं (वृष्टिभिः) वर्षाओं से जैसे (विद्युतः) बिजुली (न) वैसे (अनु, स्वधाम्) अनुकूल अन्न को (वि, रुचानाः) प्रदीप्त करते हुए (आयुधैः) शस्त्र और अस्त्र युद्ध के साधनों से शत्रुओं को (यच्छमानाः) पराजय देनेवाले उन (वः) आप की (अंसेषु) भुजाओं की मूलों में बल (आ) सब ओर से वर्तमान है, वे आप लोग विजय प्राप्त होनेवाले होते हैं ॥१३॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । हे शूरवीर पुरुषो ! जैसे बिजुली वर्षाओं के साथ ही प्रकाशित होती है, वैसे ही आप लोग शस्त्र और अस्त्रों से प्रकाशित होओ और अपने शरीर बल को बढ़ाके और उत्तम सेना का आश्रय लेकर शत्रुओं को पराजय देओ ॥१३॥
विषय
वीरों विद्वानों के वायुओं के तुल्य कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे ( मरुतः ) वीर पुरुषो ! हे विद्वान् पुरुषो ! ( वः ) आप लोगों के ( अंसेषु ) कन्धों पर (खादयः) उत्तम शस्त्र और ( वक्षःसु) छातियों पर ( रुक्माः ) कान्तियुक्त आभूषण ( उप शिश्रियाणाः ) शोभा दे रहे हों । आप लोग ( वृष्टिभिः विद्युतः न ) वर्षाओं से विजुलियों के समान (आयुधैः ) उत्तम हथियारों से ( रुचानाः) चमकते हुए (स्वधाम् ) जलवत् अन्न और अपने राष्ट्र भूमि के ( अनु यच्छमानाः ) अनुसार उसको वश करते हुए सुख से विजय करो ।
टिप्पणी
वक्षः। सुरुक्माः इति सायणाभिमतः पदपाठः॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः ।। मरुतो देवताः ॥ छन्दः -१ आर्ची गायत्री । २, ६, ७,९ भुरिगार्ची गायत्रीं । ३, ४, ५ प्राजापत्या बृहती । ८, १० आर्च्युष्णिक् । ११ निचृदार्च्युष्णिक् १२, १३, १५, १८, १९, २१ निचृत्त्रिष्टुप् । १७, २० त्रिष्टुप् । २२, २३, २५ विराट् त्रिष्टुप् । २४ पंक्तिः । १४, १६ स्वराट् पंक्तिः ॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम् ॥
विषय
राष्ट्र रक्षक
पदार्थ
पदार्थ- हे (मरुतः) = वीर पुरुषो! विद्वान् पुरुषो! (वः) = आपके (अंसेषु) = कन्धों पर (खादय:) = शस्त्र और (वक्षः सु) = छातियों पर (रुक्माः) = कान्तियुक्त आभूषण (उप शिश्रियाणाः) = शोभा दें। आप लोग (वृष्टिभिः विद्युतः न) = वर्षाओं से बिजुलियों के समान (आयुधैः) = हथियारों से (रुचाना:) = चमकते हुए (स्वधाम्) = जलवत् अन्न और राष्ट्र-भूमि के (अनु यच्छमाना:) = अनुसार उसको वश करते हुए विजय करो।
भावार्थ
भावार्थ- राष्ट्र के रक्षक वीर पुरुष अपने कन्धों पर शस्त्र तथा छाती पर कान्तियुक्त कवच धारण कर अपने शत्रुओं पर वर्षा के समान हथियार से तीव्र प्रहार कर राष्ट्र को विजय प्राप्त करावें।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे शूरवीरांनो! जशी विद्युत पर्जन्यासह प्रकाशित होते तसेच तुम्ही शस्त्र-अस्त्रांनी सुसज्जित व्हा व आपले शरीरबल वाढवून उत्तम सेनेच्या साह्याने शत्रूंचा पराजय करा. ॥ १३ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O Maruts, warriors vibrant as winds, on your shoulders you wear deadly weapons which, bright and blazing, decorate your chest. Thus wielding and whirling your weapons in keeping with your innate strength and chivalry, in your yajnic endeavours of development and progress, you shine like flashes of lightning with showers of rain.
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