ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 65/ मन्त्र 4
आ नो॑ मित्रावरुणा ह॒व्यजु॑ष्टिं घृ॒तैर्गव्यू॑तिमुक्षत॒मिळा॑भिः । प्रति॑ वा॒मत्र॒ वर॒मा जना॑य पृणी॒तमु॒द्नो दि॒व्यस्य॒ चारो॑: ॥
स्वर सहित पद पाठआ । नः॒ । मि॒त्रा॒व॒रु॒णा॒ । ह॒व्यऽजु॑ष्टिम् । घृ॒तैः । गव्यू॑तिम् । उ॒क्ष॒त॒म् । इळा॑भिः । प्रति॑ । वा॒म् । अत्र॑ । वर॑म् । आ । जना॑य । पृ॒णी॒तम् । उ॒द्नः । दि॒व्यस्य॑ । चारोः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ नो मित्रावरुणा हव्यजुष्टिं घृतैर्गव्यूतिमुक्षतमिळाभिः । प्रति वामत्र वरमा जनाय पृणीतमुद्नो दिव्यस्य चारो: ॥
स्वर रहित पद पाठआ । नः । मित्रावरुणा । हव्यऽजुष्टिम् । घृतैः । गव्यूतिम् । उक्षतम् । इळाभिः । प्रति । वाम् । अत्र । वरम् । आ । जनाय । पृणीतम् । उद्नः । दिव्यस्य । चारोः ॥ ७.६५.४
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 65; मन्त्र » 4
अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 7; मन्त्र » 4
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अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 7; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(मित्रावरुणा) हे सर्वप्रिय तथा सर्ववरणीय शक्तिमन्परमात्मन् ! (नः) अस्माकं (हव्यजुष्टिं गव्यूतिम्) यज्ञभूमिं (आ) सम्यक्प्रकारेण (घृतैः, इळाभिः) घृतैस्तथा अन्नैश्च (उक्षतं) सिञ्चतं (वां प्रति) युवां प्रति अत्र अस्मिँल्लोके (वरं) उत्कृष्टम्, कार्य्यकारिणः (नः) अस्मान्प्रति (उद्नः) स्नेहस्य भावं (पृणीतं) प्रयच्छतु प्रत्यहं भवत इयमेव प्रार्थना यत् (दिव्यस्य चारोः) चरणशीलस्य द्युलोकस्य वयमव्याहतगतयो भवेम ॥४॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(मित्रावरुणा) हे परमात्मन् ! (नः) हमारे (हव्यजुष्टिं गव्यूतिं) यज्ञभूमि को (आ) भलीभाँति (घृतैः, इळाभिः) घृत तथा अन्नों से (उक्षतं) पूर्ण करें (वां) दोनों राजा प्रजा को (अन्न) यहाँ (वरं) श्रेष्ठ (आ) और (चारोः, दिव्यस्य) चरणशील द्युलोकस्थ प्रदेशों के विचरनेवाले बनायें और (नः, जनाय) हम लोगों को (उद्नः) प्रेमभाव (पृणीतं) प्रदान करें, हमारी आप से (प्रति) प्रतिदिन यही प्रार्थना है ॥४॥
भावार्थ
हे दिव्यशक्तिसम्पन्न परमात्मन् ! आप हमारी यज्ञभूमि को अन्न तथा स्निग्ध द्रव्यों से सदैव सिञ्चन करते रहें और हमको द्युलोकादि दिव्य स्थानों में विचरने के लिए उत्तम साधन प्रदान करें, जिससे हम अव्याहतगति होकर आपके लोक-लोकान्तरों में परिभ्रमण कर सकें, यह हमारी आपसे प्रार्थना है ॥४॥
विषय
उनके गृहपति-गृहपत्नीवत् कर्त्तव्य ।
भावार्थ
( मित्रावरुणा ) सूर्य मेघ वा वायु मेघ के समान सर्वप्रिय सर्वश्रेष्ठ जनो ! आप दोनों (नः ) हमारे ( हव्य-जुष्टिं ) प्रेम से स्वीकार करने योग्य अन्न आदि को प्रेम से स्वीकार करो । (घृतैः गव्यूतिम् ) जलों से भूमि भाग के समान ( इडाभिः ) उत्तम वाणियों से वाणी के उत्तम पात्रों को ( उक्षतम् ) सेचन करो, उनमें ज्ञान की वृद्धि करो। आप दोनों (वाम् ) अपने ( दिव्यस्य ) ज्ञान से पूर्ण, प्रकाश युक्त ( चारोः ) उत्तम ( उद् नः ) जलवत् शान्तिदायक वचन का ( वरम् ) श्रेष्ठ प्रयोग ( जनाय ) समस्त प्रजाजन के हितार्थ ( प्रति ) प्रतिदिन ( आ पृणीतम् ) किया करो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः ॥ मित्रावरुणौ देवते ॥ छन्दः–१, ५ विराट् त्रिष्टुप् । २ त्रिष्टुप् । ३, ४ निचृत्त्रिष्टुप् ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥
विषय
उत्तम जनों का सम्मान
पदार्थ
पदार्थ- (मित्रावरुणा) = सूर्य-मेघ वा वायु-मेघ के समान सर्वप्रिय जनो! आप दोनों (नः) = हमारे (हव्य-जुष्टिं) = प्रेम से स्वीकार योग्य अन्न आदि को स्वीकार करो। (घृतैः गव्यूतिम्) = जलों से भूमि भाग के समान (इडाभिः) = उत्तम वाणियों से वाणी के उत्तम पात्रों को (उक्षतम्) = सेचन करो। आप दोनों (वाम्) = अपने (दिव्यस्य) = ज्ञान से पूर्ण (चारो:) = उत्तम (उद्न:) = जलवत् शान्तिदायक वचन का (वरम्) = श्रेष्ठ प्रयोग (जनाय) = समस्त जन के हितार्थ प्रति प्रतिदिन (आ पृणीतम्) = करो।
भावार्थ
भावार्थ- लोगों को चाहिए कि वे उत्तम विद्वान् स्त्री-पुरुषों का अन्नादि तथा उत्तम वाणियों के द्वारा सम्मान करें। फिर वे विद्वान् स्त्री-पुरुष भी अपने प्रिय मधुर ज्ञानोपदेश के द्वारा लोगों का मार्गदर्शन करेंगे।
इंग्लिश (1)
Meaning
O Mitra and Varuna, Supreme Lord’s mani festations of cosmic love and justice in the integrative and analytical forces of nature’s bounties working in the centripetal and centrifugal operations of world, enforce and energise our yajnic inputs of creative production and let our programmes of land, language and knowledge development soar high by the vitalities of liquid energies and inspirations of new visions of divinity and faith in action, ethics and policies, and may you, in response to our yajnic performance, grant us the best of your gifts of blissful light and dynamic energy for our people.
मराठी (1)
भावार्थ
हे दिव्यशक्तिसंपन्न परमेश्वरा! तू आमच्या यज्ञभूमीला अन्न व स्निग्ध द्रव्यानी सदैव सिंचित कर. आम्हाला द्युलोकात दिव्य स्थानी विहार करण्यासाठी उत्तम साधन दे. त्यामुळे आम्ही सतत लोकलोकांतरामध्ये परिभ्रमण करू शकू. हीच आमची तुला प्रार्थना आहे. ॥४॥
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