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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 69 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 69/ मन्त्र 8
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - अश्विनौ छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    नू मे॒ हव॒मा शृ॑णुतं युवाना यासि॒ष्टं व॒र्तिर॑श्विना॒विरा॑वत् । ध॒त्तं रत्ना॑नि॒ जर॑तं च सू॒रीन्यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभि॒: सदा॑ नः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नु । मे॒ । हव॑म् । आ । शृ॒णु॒त॒म् । यु॒वा॒ना॒ । या॒सि॒ष्टम् । व॒र्तिः । अ॒श्वि॒नौ॑ । इरा॑ऽवत् । ध॒त्तम् । रत्ना॑नि । जर॑तम् । च॒ । सू॒रीन् । यू॒यम् । पा॒त॒ । स्व॒स्तिऽभिः॑ । सदा॑ । नः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नू मे हवमा शृणुतं युवाना यासिष्टं वर्तिरश्विनाविरावत् । धत्तं रत्नानि जरतं च सूरीन्यूयं पात स्वस्तिभि: सदा नः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नु । मे । हवम् । आ । शृणुतम् । युवाना । यासिष्टम् । वर्तिः । अश्विनौ । इराऽवत् । धत्तम् । रत्नानि । जरतम् । च । सूरीन् । यूयम् । पात । स्वस्तिऽभिः । सदा । नः ॥ ७.६९.८

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 69; मन्त्र » 8
    अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 16; मन्त्र » 8
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (युवाना, अश्विनौ) हे यौवनावस्थां प्राप्ता राजपुरुषाः, यूयं (नु) निश्चयेन (मे) मम (हवम्) इममुपदेशं (आ) सम्यक् (शृणुतम्) शृणुत, अन्यच्च यूयं (इरावत्) ऐश्वर्य्यशालिनः (वर्तिः) देशान् (यासिष्टम्) प्रयात, तथा च (सूरीन्) बलिनो रिपून् (जरतम्) उपालभत (रत्नानि) रत्नानि माणिक्यादीनि (च)(धत्तम्) धत्त, परमात्मानं प्रार्थयत च यत् (यूयम्) भवन्तः (स्वस्तिभिः) कल्याणदातृभि-रुपदेशैः (नः) अस्मान् (सदा) सर्वदा (पात) रक्षन्तु ॥८॥ इत्येकोनसप्ततितमं सूक्तं षोडशो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (युवाना, अश्विनौ) हे युवावस्था को प्राप्त राजपुरुषो ! (नु) निश्चय करके (मे) मेरे (हवं) इस उपदेश को (आ) भली-भाँति (शृणुतं) सुनो (इरावत् वर्तिः, यासिष्टं) तुम लोग ऐश्वर्य्यशाली देशों के मार्गों को जाओ और वहाँ (सूरीन् जरतं) शूरवीरों को उपलब्ध करके (रत्नानि, धत्तं) रत्नों को धारण करो (च) और परमात्मा से प्रार्थना करो कि (यूयं) आप (नः) हमको (स्वस्तिभिः) कल्याणदायक उपदेशों से (सदा) सदैव (पात) पवित्र करें ॥८॥

    भावार्थ

    परमात्मा उपदेश करते हैं कि हे युवा शूरवीर योद्धाओ ! तुम धन-धान्य से पूरित ऐश्वर्य्यशाली देशों की ओर जाओ और वहाँ के शूरवीरों को विजय करके विविध प्रकार के धनों को लाभ करो और विजय के साथ ही परमात्मा से प्रार्थना करो कि हे भगवन् ! आप अपने सदुपदेशों से हमें सदा पवित्र करें, ताकि हम से कोई अनिष्ट कर्म न हो और आप हमारी इस विजय में सदा सहायक हों ॥८॥ यह ६९ वाँ सूक्त और १६ वाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    अश्वियों का भुज्यु को समुद्र से पार करने का गृहस्थ वर-वधूपरक स्पष्टीकरण ।

    भावार्थ

    व्याख्या देखो सू० ६७ । मन्त्र १० ॥ इति षोडशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः – १, ४, ६, ८ निचृत् त्रिष्टुप् । २, ७ त्रिष्टुप् । ३ आर्षी स्वराट् त्रिष्टुप् । ५ विराट् त्रिष्टुप् ॥ अष्टर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    विद्वानों की संगति

    पदार्थ

    पदार्थ- हे (अश्विना) = जिज्ञासु स्त्री-पुरुषो! आप (युवाना) = युवा-युवति होकर (मे) = मुझ विद्वान् के (हवम् आ शृणुतम्) = उपदेश को आदर से सुनो। आप लोग (इरावत् वर्त्तिः) = जल अन्नयुक्त मार्ग के समान, उत्तम प्रेरणा-युक्त व्यवहार को (आ यासिष्टं नु) = अवश्य प्राप्त हो । (रत्नानि धत्तम्) = रत्नतुल्य श्रेष्ठ गुणों को धारण करो। (सुरीन्) = विद्वान् पुरुषों को (जरतं च) = प्राप्त विद्या-लाभ करो। हे विद्वान् पुरुषो! (यूयं) = आप लोग (स्वतिभिः नः सदा पात) = उत्तम साधनों से हमारी रक्षा करें।

    भावार्थ

    भावार्थ- जिज्ञासु स्त्री-पुरुष युवावस्था में ही उत्तम विद्वानों का सान्निध्य प्राप्त कर उनके उपदेशों से श्रेष्ठ गुणों को धारण करते हुए विद्या का संग्रह करें। अगले सूक्त का ऋषि भी वसिष्ठ और अश्विनौ देवता ही है।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Listen to my call, O youthful Ashvins, twin powers of nature and humanity, leading lights of the nation, go to the basic sources of wealth and knowledge over land and sea and across the skies, bear and bring the jewels of life, appreciate, honour and admire the brilliant and the brave, and protect and promote us with all time peace and prosperity of well being.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा उपदेश करतो, की हे युवा शूरवीर योद्ध्यांनो! तुम्ही धनधान्याने पूर्ण ऐश्वर्यशाली देशांकडे जा. तेथील शूरवीरांवर विजय प्राप्त करून विविध प्रकारच्या धनाचा लाभ करून घ्या व विजयाबरोबरच परमेश्वराची प्रार्थना करा, की हे भगवान! तू आपल्या सदुपदेशाने आम्हाला सदैव पवित्र कर अन्यथा आमच्याकडून एखादे अनिष्ट कर्म घडू शकेल. तू आमच्या या विजयात सदैव साह्य करावेस. ॥८॥

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