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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 70 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 70/ मन्त्र 2
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - अश्विनौ छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    सिष॑क्ति॒ सा वां॑ सुम॒तिश्चनि॒ष्ठाता॑पि घ॒र्मो मनु॑षो दुरो॒णे । यो वां॑ समु॒द्रान्त्स॒रित॒: पिप॒र्त्येत॑ग्वा चि॒न्न सु॒युजा॑ युजा॒नः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सिस॑क्ति । सा । वा॒म् । सु॒ऽम॒तिः । चनि॑ष्ठा । अता॑पि । घ॒र्मः । मनु॑षः । दु॒रो॒णे । यः । वा॒म् । स॒मु॒द्रान् । स॒रितः॑ । पिप॑र्ति । एत॑ऽग्वा । चि॒त् । न । सु॒ऽयुजा॑ । यु॒जा॒नः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सिषक्ति सा वां सुमतिश्चनिष्ठातापि घर्मो मनुषो दुरोणे । यो वां समुद्रान्त्सरित: पिपर्त्येतग्वा चिन्न सुयुजा युजानः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सिसक्ति । सा । वाम् । सुऽमतिः । चनिष्ठा । अतापि । घर्मः । मनुषः । दुरोणे । यः । वाम् । समुद्रान् । सरितः । पिपर्ति । एतऽग्वा । चित् । न । सुऽयुजा । युजानः ॥ ७.७०.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 70; मन्त्र » 2
    अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 17; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (सुयुजा, युजानः) हे शोभनयज्ञयुक्ता यजमानाः ! (वाम्) यूयं (सा, सुमतिः) प्रसिद्धया सुबुध्या (चनिष्ठा) अनुष्ठानिनः सन्तः एनं यज्ञं (सिषक्ति) सिञ्चत, (यः) यः (मनुषः) मनुष्याणां (घर्मः) यज्ञजः स्वेदोऽस्ति, सः (दुरोणे) यज्ञगृहे (अतापि) तप्तः (वाम्) युष्माकं मनोरथान् (समुद्रान् सरितः) समुद्रान् नद्य इव (पिपर्ति) पूरयति (एतग्वा) एतस्मादन्यथा (चित्) कदाचित् (न) न सम्भवेत् ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (सुयुजा, युजानः) ज्ञानादि यज्ञों के साथ भली-भाँति जुड़े हुए याज्ञिक लोगो ! (वां) तुम (सा, सुमतिः) उस उत्तम बुद्धिद्वारा (चनिष्ठा) अनुष्ठानी बनकर (सिषक्ति) इस यज्ञ को सिञ्चन करो, (यः) जो (मनुषः) मनुष्य का (घर्मः) यज्ञसम्बन्धी स्वेद है, वह (दुरोणे) यज्ञगृह में (अतापि) तपा हुआ (वां) तुम्हारे (समुद्रान्, सरितः) समुद्र को नदियों के समान तुम्हारी आशाओं को (पिपर्ति) पूर्ण करता है (न, चित्, एतग्वा) अन्यथा कभी नहीं ॥२॥

    भावार्थ

    परमात्मा उपदेश करते हैं कि हे याज्ञिक लोगो ! तुम उत्तम बुद्धि द्वारा अनुष्ठानी बनकर यज्ञ का सेवन करो, क्योंकि तुम्हारे तप से उत्पन्न हुआ स्वेद मानो सरिताओं का रूप धारण करके तुम्हारे मनोरथरूपी समुद्र को परिपूर्ण करता है अर्थात् जब तक पुरुष पूर्ण तपस्वी बनकर अपने लक्ष्य की पूर्ति के लिए उद्यत नहीं होता, तब तक उस लक्ष्य की सिद्धि नहीं होती, इसलिए आप लोग अपने वैदिक लक्ष्यों की पूर्ति तपस्वी बनकर ही कर सकते हो, अन्यथा नहीं ॥२॥

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    विषय

    परस्पर वरण करने वाले स्त्रीपुरुषों के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    ( दुरोणे धर्मः ) जहां तक कोई व्यक्ति बढ़ नहीं सकता ऐसे ऊंचे आकाश देश में तेजस्वी सूर्य के समान ( मनुषः ) मनुष्य ( दुरोणे ) घर में और राजा राज्य वा राष्ट्र में उच्च पद पर विराज कर (अतापि) खूब तप करे । इसी प्रकार ब्रह्मचारी ( धर्मः ) ज्ञान जल से सिक्त होकर, स्नातक होकर ( मनुषः दुरोणे ) मननशील आचार्य के गुरु-गृह में अग्नि के समान ( अतापि ) तप करे । राजा राष्ट्र में उच्चपद पर विराज कर सूर्यवत् तपे और दुष्टों को पीड़ित करे और उस समय ( वां ) तुम दोनों को ( चनिष्ठा ) अति श्रेष्ठ व गुरुवचनमय ( सुमतिः ) शुभमति (सिषक्ति) अवश्य प्राप्त हो । ( एतग्वा चित्) अश्व के समान एक गृहस्थ रथ में नियुक्त आप दोनों ( सुयुजा ) उत्तम सहयोगी जनों को ( युजानः ) जोड़ता हुआ, सत्कर्म में नियुक्त करता हुआ ( यः ) जो ( समुद्रान् सरितः ) समुद्रों को नदियों के समान, वा नदी समुद्रों को मेघ के समान (पिपर्त्ति ) पूर्ण करे वह उत्तम ज्ञानी गुरुजन सूर्यवत् तेजस्वी हो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः— १, ३, ४, ६ निचृत् त्रिष्टुप् । २, ५, ७ विराट् त्रिष्टुप् ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    गृहस्थ स्त्री-पुरुषों के कर्त्तव्य

    पदार्थ

    पदार्थ- (दुरोणे घर्म:) = जहाँ कोई चढ़ नहीं सकता ऐसे ऊँचे आकाश में सूर्य के समान (मनुषः) = मनुष्य (दुरोणे) = घर में और राजा राष्ट्र में उच्च पद पर विराज कर (अतापि) = तप करे। ऐसे ही ब्रह्मचारी (घर्मः) = ज्ञान-बल से सिक्त - स्नातक होकर (मनुषः दुरोणे) = मननशील आचार्य के गृह (अतापि) = तप करे, उस समय (वां) = तुम दोनों को (चनिष्ठा) = श्रेष्ठ व गुरुवचनमय (सुमतिः) = शुभमति (सिषक्ति) = प्राप्त हो । (एतग्वा चित्) = अश्व के समान गृहस्थ-रथ में नियुक्त आप दोनों (सुयुजा) = उत्तम सहयोगी जनों को (युजानः) = जोड़ता हुआ, सत्कर्म में नियुक्त करता हुआ (यः) = जो (समुद्रान् सरितः) = समुद्रों को नदियों के समान (पिपर्त्ति) = पूर्ण करे वह उत्तम ज्ञानी गुरु सूर्यवत् तेजस्वी हो ।

    भावार्थ

    भावार्थ - गृहस्थाश्रम ऊँचा है। मनुष्य गृहस्थाश्रम में प्रवेश करके तप करे तथा सत्कर्म करता हुआ समाज के लोगों को एक सांस्कृतिक राष्ट्रीय विचारधारा से जोड़े और यदि इसके घर में कोई ब्रह्मचारी आवे तो उसको ज्ञान प्रदान कर तपस्वी बनने की प्रेरणा करे।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Ashvins, 0 complementary currents of nature, the yajnic process in song and action with holy offerings of fragrant havi reaches you and serves you. The fire of yajna is burning in the house of the yajamana, which, like the radiations of sunlight, activates the catalysis of heat and water in nature and fills up the streams and seas with rain.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा उपदेश करतो, की हे याज्ञिकांनो! तुम्ही उत्तम बुद्धीद्वारे अनुष्ठानी बनून यज्ञाचे सेवन करा. कारण तुमच्या तपाने उत्पन्न झालेला घाम जणू नदीचे रूप धारण करून तुमच्या मनोरथरूपी समुद्राला परिपूर्ण करतो. अर्थात, जोपर्यंत पुरुष पूर्ण तपस्वी बनून आपल्या लक्ष्यपूर्तीसाठी उद्यत होत नाही. तोपर्यंत त्या लक्ष्याची सिद्धी होत नाही, त्यामुळे तुम्ही आपल्या वैदिक लक्ष्याची पूर्ती तपस्वी बनूनच करू शकता. अन्यथा नव्हे. ॥२॥

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