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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 78 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 78/ मन्त्र 3
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - उषाः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    ए॒ता उ॒ त्याः प्रत्य॑दृश्रन्पु॒रस्ता॒ज्ज्योति॒र्यच्छ॑न्तीरु॒षसो॑ विभा॒तीः । अजी॑जन॒न्त्सूर्यं॑ य॒ज्ञम॒ग्निम॑पा॒चीनं॒ तमो॑ अगा॒दजु॑ष्टम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒ताः । ऊँ॒ इति॑ । त्याः । प्रति॑ । अ॒दृ॒श्र॒न् । पु॒रस्ता॑त् । ज्योतिः॑ । यच्छ॑न्तीः । उ॒षसः॑ । वि॒ऽभा॒तीः । अजी॑जनन् । सूर्य॑म् । य॒ज्ञम् । अ॒ग्निम् । अ॒पा॒चीन॑म् । तमः॑ । अ॒गा॒त् । अजु॑ष्टम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एता उ त्याः प्रत्यदृश्रन्पुरस्ताज्ज्योतिर्यच्छन्तीरुषसो विभातीः । अजीजनन्त्सूर्यं यज्ञमग्निमपाचीनं तमो अगादजुष्टम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एताः । ऊँ इति । त्याः । प्रति । अदृश्रन् । पुरस्तात् । ज्योतिः । यच्छन्तीः । उषसः । विऽभातीः । अजीजनन् । सूर्यम् । यज्ञम् । अग्निम् । अपाचीनम् । तमः । अगात् । अजुष्टम् ॥ ७.७८.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 78; मन्त्र » 3
    अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 25; मन्त्र » 3
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (उषसः) ज्ञानस्वरूपः परमात्मा (ज्योतिः यच्छन्तीः) ज्ञानं प्रकटयन् (विभातीः) रोचमानोऽस्ति तथा तज्ज्ञानम् (प्रति) मनुष्यान्प्रति (पुरस्तात् अदृश्रन्) सर्वस्मात्पूर्वं दृश्यते (एताः त्याः) इमाः परमात्मशक्तयः (सूर्यम् यज्ञम् अग्निम्) सूर्यं यज्ञं वह्निं च (अजीजनन्) उत्पादयन्ति (उ) तथा (अजुष्टम् तमः) अप्रियं तमः (अपाचीनम्) अपहृत्य (अगात्) ज्ञानात्मकप्रकाशं विस्तृण्वन्ति ॥३॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (उषसः) ज्ञानस्वरूप परमात्मा (ज्योतिः यच्छन्तीः) ज्ञान का प्रकाश करता हुआ (विभातीः) प्रकाशित होता और उसका ज्ञान (प्रति) मनुष्यों के प्रति (पुरस्तात् अदृश्रन्) सबसे पूर्व देखा जाता है। (एताः त्याः) ये परमात्मशक्तियें (सूर्यं यज्ञं अग्निं) सूर्य यज्ञ तथा अग्नि को (अजीजनन्) उत्पन्न करती (उ) और (अजुष्टं तमः) अप्रिय तम को (अपाचीनं) दूर करके (अगात्) ज्ञानरूप प्रकाश का विस्तार करती हैं ॥३॥

    भावार्थ

    ज्ञानस्वरूप परमात्मा का ज्ञान सबसे पूर्व देखा जाता है। वह अपने ज्ञान का विस्तार करके पीछे प्रकाशित होता है, क्योंकि उसके जानने के लिए पहले ज्ञान की आवश्कता है और उसी परमात्मा से सूर्य्य-चन्द्रादि दिव्य ज्योतियाँ उत्पन्न होतीं, उसी से यज्ञ का प्रादुर्भाव होता और उसी से अग्नि आदि तत्त्व उत्पन्न होते हैं। वही परमात्मा अज्ञानरूप तम का नाश करके सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में अपने ज्ञानरूप प्रकाश का विस्तार करता है, इसलिए सबका कर्तव्य है कि उसी ज्ञानस्वरूप परमात्मा को प्राप्त होकर ज्ञान की वृद्धि द्वारा अपने जीवन को उच्च बनावें ॥३॥

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    विषय

    स्त्रियों का सत् आचार ।

    भावार्थ

    ( एताः त्याः ) ये वे ( विभातीः उषसः ) चमकती उषाओं, प्रभातिक सूर्य की कान्तियों के सदृश उज्ज्वल, ( ज्योतिः यच्छन्तीः ) कान्ति प्रदान करती हुई नव-वधुएं ( प्रति अदश्रन् ) दीखें । वे ( सूर्यम् ) सूर्य के समान तेजस्वी ( यज्ञम् ) पूजनीय (अग्निम् ) अग्रणी नायक को ( अजीनन् ) अपने पीछे आता प्रकट करती हैं। ( अजुष्टम् ) न सेवन करने योग्य ( तमः ) शोक आदि दुःख ( अपाचीनं अगात् ) दूर चला जाता, अर्थात् उनके आने पर घर २ खुशियां विराजती हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषि: ॥ उषा देवता ॥ छन्दः – १, २ त्रिष्टुप् । ३, ४ निचृत् त्रिष्टुप् । ५ विराट् त्रिष्टुप् ॥ पञ्चर्चं सूकम् ॥

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    विषय

    नव वधू का व्यवहार

    पदार्थ

    पदार्थ - (एताः त्याः) = ये वे (विभातीः उषसः) = चमकती उषाओं के तुल्य उज्ज्वल, (ज्योतिः यच्छन्तीः) = कान्ति प्रदान करती हुई नववधुएँ (प्रति अदृश्रन्) = दीखें। वे (सूर्यम्) = सूर्य-समान तेजस्वी (यज्ञम्) = पूजनीय (अग्निम्) = नायक को (अजीजनन्) = अपने पीछे आता हुआ प्रकट करती हैं। (अजुष्टम्) = न करने योग्य (तमः) = शोक आदि (अपाचीनं अगात्) = दूर चला जाता है अर्थात् उनके आने पर हर्ष होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- नव वधू अपने सद्गुणों के द्वारा अपनी कान्ति प्रभाव को प्रकट करे जिससे उसका तेजस्वी पति प्रसन्न एवं तृप्त हो और दोनों हर्षित रहें।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    And there in front yonder are seen those higher radiations of the dawn, lights of flame shining and illuminating the world. Up rises the sun, the fire of yajna grows and the flames of the holy fire expand, and thus all disagreeable darkness goes out, dispelled by the light divine.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ज्ञानस्वरूप परमेश्वराचे ज्ञान सर्वांत प्रथम दिसून येते. परमात्मा आपल्या ज्ञानाचा विस्तार करून नंतर प्रकाशित होतो. कारण त्याला जाणण्यासाठी प्रथम ज्ञानाची आवश्यकता असते व त्याच परमात्म्यापासून सूर्य, चंद्र इत्यादी दिव्य ज्योती उत्पन्न होतात. त्याच्यापासूनच यज्ञाचा प्रादुर्भाव होतो व त्यापासूनच अग्नी इत्यादी तत्त्व निर्माण होतात. तोच परमेश्वर अज्ञानरूपी तमाचा नाश करून संपूर्ण ब्रह्मांडात आपल्या ज्ञानरूपी प्रकाशाचा विस्तार करतो. त्यासाठी सर्वांचे हे कर्तव्य आहे, की त्याच ज्ञानरूपी परमात्म्याला प्राप्त करून ज्ञानवृद्धीद्वारे आपल्या जीवनाला उच्च बनवावे ॥३॥

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