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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 89 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 89/ मन्त्र 2
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - वरुणः छन्दः - आर्षीगायत्री स्वरः - षड्जः

    यदेमि॑ प्रस्फु॒रन्नि॑व॒ दृति॒र्न ध्मा॒तो अ॑द्रिवः । मृ॒ळा सु॑क्षत्र मृ॒ळय॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । एमि॑ । प्र॒स्फु॒रन्ऽइ॑व । दृतिः॑ । न । ध्मा॒तः । अ॒द्रि॒ऽवः॒ । मृ॒ळ । सु॒ऽक्ष॒त्र॒ । मृ॒ळय॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदेमि प्रस्फुरन्निव दृतिर्न ध्मातो अद्रिवः । मृळा सुक्षत्र मृळय ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । एमि । प्रस्फुरन्ऽइव । दृतिः । न । ध्मातः । अद्रिऽवः । मृळ । सुऽक्षत्र । मृळय ॥ ७.८९.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 89; मन्त्र » 2
    अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 11; मन्त्र » 2
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (यत्) यस्मात् (दृतिः) भस्त्रा (न) इव (ध्मातः) वायुनेवान्यबुद्ध्या प्रेरितः (एमि) स्वजीवनरक्षां करोमि सा (स्फुरन्निव) केवलं श्वासोच्छ्वासमात्रमस्ति यतो न जीवनप्रयोजनं तत्र (अद्रिवः) हे सर्वशक्तिमन् ! (मृळ) मां रक्ष (सुक्षत्र) हे परमरक्षक ! (मृळय) मां सुखय ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (यत्) जो मैं (दृतिः) धौंकनी के (न) समान (ध्मातः) दूसरों की वायुरूप बुद्धि से प्रेरित किया गया (एमि) अपनी जीवनयात्रा करता हूँ, वह यात्रा (स्फुरन्निव) केवल श्वासोच्छ्वासरूप है, उसमें जीने का कुछ प्रयोजन नहीं, (अद्रिवः) हे सर्वशक्तिमन् परमात्मन् ! (मृळ) आप हमारी रक्षा करें (सुक्षत्र) हे सर्वरक्षक परमात्मन् ! (मृळय) आप हमको सुख दें ॥२॥

    भावार्थ

    परमात्मा उपदेश करते हैं कि जो पुरुष मनुष्यजन्म के धर्म, अर्थ काम, मोक्ष इन चारों फलों से विहीन हैं, वे पुरुष लोहनिर्म्माता की धौंकनी के समान केवल श्वासमात्र से जीवित प्रतीत होते हैं, वास्तव में वे पुरुष चर्म्मनिर्मित (दृतिः) चमड़े की खाल के समान निर्जीव हैं, इसलिए पुरुष को चाहिये कि वह सदैव उद्योगी और कर्म्मयोगी बनकर सदैव अपने लक्ष्य के लिए कटिबद्ध रहे। अपुरुषार्थी होकर जीना केवल चर्म्मपात्र के समान प्राणयात्रा करना है। इस अभिप्राय से इस मन्त्र में उद्योग=अर्थात् कर्म्मयोग का उपदेश किया है ॥२॥

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    विषय

    दुःखी जीव की विनीत प्रार्थना ।

    भावार्थ

    हे ( अद्रिवः ) मेघवत् शान्तिदायक पुरुषों तथा पर्वतवत् दृढ़ शस्त्रधर पुरुषों के स्वामिन् ! प्रभो ! राजन् ! ( यत् ) जब भी मैं ( प्रस्फुरन् इव ) तड़पता हुआ सा, ( दृतिः न ध्मातः ) मशक या कुप्पे के समान फूला हुआ, विताड़ित फूंक से भरे चर्मवाद्य के समान रोता गाता हुआ ( एभि ) तेरी शरण आऊं, हे ( सुक्षत्र ) सुबल ! सुधन ! तू ( मृड, मृडय) सुखी कर, तू दया कर !

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः । वरुणो देवता ॥ छन्दः—१—४ आर्षी गायत्री । ५ पादनिचृज्जगती ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    शरणागत को सुखी कर

    पदार्थ

    पदार्थ- हे (अद्रिवः) = पर्वतवत् दृढ़ पुरुषों के स्वामिन् ! प्रभो! (यत्) = जब मैं (प्रस्फुरन् इव) = तड़पता हुआ-सा, (दृतिः न ध्मात: कुप्पे) = के समान फूला हुआ, फूँक से भरे चर्मवाद्य के समान रोता गाता (एभि) = शरण आऊँ, हे (सुक्षत्र) = सुबल ! सुधन! तू मुझे (मृड मृडय) = सुखी कर।

    भावार्थ

    भावार्थ- जब मनुष्य अहंकार-अभिमान में फूलकर कुप्पा हो जाता है तो अन्दर से जलने लगता है, तड़पता है। ऐसी स्थिति में केवल प्रभु की शरण में ही सुखी करने का सामर्थ्य है अतः उसी की पुकार कर।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    If at all I go blown about as a leaf or floating around as a cloud of dust in mere existence, even then, O gracious ruler of the order of existence, be kind, save me and give me joy.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा उपदेश करतो, की जे पुरुष मानवी जीवनाच्या धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष या फलांनी विहीन आहेत. ते पुरुष लोहाराच्या फुंकणीप्रमाणे केवळ श्वासानेच जीवित असतात. वास्तविक ते पुरुष कातड्याप्रमाणे निर्जीव आहेत. त्यासाठी पुरुषाने सदैव उद्योगी व कर्मयोगी बनून सदैव आपल्या लक्ष्यासाठी कटिबद्ध असावे. पुरुषार्थहीन बनून जगणे केवळ चर्मपात्राप्रमाणे प्राणयात्रा करणे होय. या मंत्रात उद्योग अर्थात कर्मयोगाचा उपदेश केलेला आहे. ॥२॥

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