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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 1/ मन्त्र 27
    ऋषिः - मेधातिथिमेध्यातिथी काण्वौ देवता - इन्द्र: छन्दः - आर्षीबृहती स्वरः - मध्यमः

    य एको॒ अस्ति॑ दं॒सना॑ म॒हाँ उ॒ग्रो अ॒भि व्र॒तैः । गम॒त्स शि॒प्री न स यो॑ष॒दा ग॑म॒द्धवं॒ न परि॑ वर्जति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः । एकः॑ । अस्ति॑ । दं॒सना॑ । म॒हाम् । उ॒ग्रः । अ॒भि । व्र॒तैः । गम॑त् । सः । शि॒प्री । न । सः । यो॒ष॒त् । आ । ग॒म॒त् । हव॑म् । न । परि॑ । व॒र्ज॒ति॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    य एको अस्ति दंसना महाँ उग्रो अभि व्रतैः । गमत्स शिप्री न स योषदा गमद्धवं न परि वर्जति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यः । एकः । अस्ति । दंसना । महाम् । उग्रः । अभि । व्रतैः । गमत् । सः । शिप्री । न । सः । योषत् । आ । गमत् । हवम् । न । परि । वर्जति ॥ ८.१.२७

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 1; मन्त्र » 27
    अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 15; मन्त्र » 2
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    संस्कृत (2)

    विषयः

    अथ परमात्मप्राप्तये प्रार्थना वर्ण्यते।

    पदार्थः

    (यः) यः परमात्मा (एकः) अद्वितीयः (दंसना) कर्मणा (महान्) अधिकः (उग्रः) उग्रबलः (व्रतैः) स्वकर्मभिः (अभि, अस्ति) सर्वानभि भवति (सः, शिप्री) सुखप्रदः स परमात्मा (गमत्) मा गच्छेत् (सः) स च (न, योषत्) न वियुज्येत (हवं) मम स्तोत्रं (आ, गमत्) अभ्यागच्छतु (न, परि, वर्जति) न जहातु ॥२७॥

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    विषयः

    अनया इन्द्रं विशिनष्टि ।

    पदार्थः

    य इन्द्रः । एकः=एक एव केवलोऽसहाय एवास्ति । पुनः । दंसना=दंसनैः कर्मभिर्महान् अस्ति । पुनः । अभि=अभितः, परितः=सर्वत्र । व्रतैः=स्वनियमैः । उग्रः=भयङ्करोऽस्ति । ईदृक् स परमात्मा । गमत्=गच्छतु मां प्राप्नोतु सर्वत्र । स न योषत्=स नास्मत् पृथक् भवतु । स आगमत्=आगच्छतु=अवश्यमेव सोऽत्रागच्छतु । द्विरुक्तिरतिशयार्थद्योतिका । हवमस्माकमाह्वानं स्तुतिम् । न परिवर्जति=न परिवर्जतु । सर्वदाऽस्मान् अस्मदीयं स्तोत्रञ्च प्राप्नोत्विति यावत् । यतः स शिप्री=शिष्टान् प्रीणयति=अनुगृह्णातीति शिप्री ॥२७ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब परमात्मप्राप्ति के लिये प्रार्थना कथन करते हैं।

    पदार्थ

    (यः) जो परमात्मा (एकः) अद्वितीय (दंसना) कर्म से (महान्) अधिक है (उग्रः) उग्र बलवाला (व्रतैः) अपने विलक्षण कर्मों से (अभि, अस्ति) सब कर्मकर्ताओं को तिरस्कृत करता है (सः, शिप्री) वह सुखद परमात्मा (गमत्) मुझे प्राप्त हो और (सः) वह (न, योषत्) वियुक्त न हो (हवं) मेरे स्तोत्र को (आगमत्) अभिमुख होकर प्राप्त करे (न, परिवर्जति) परिवर्जन न करे ॥२७॥

    भावार्थ

    अद्वितीय, बलवान् तथा सबको सुखप्रद परमात्मा, जो कठिन से कठिन विपत्तियों में भी अपने उपासक का सहाय करता है, वह हमको प्राप्त होकर कभी भी वियुक्त न हो और सब मनुष्यों को उचित है कि प्रत्येक कार्य्य के प्रारम्भ में परमात्मा की स्तुति, प्रार्थना तथा उपासना करें, ताकि सब कामों में सफलता प्राप्त हो ॥२७॥

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    विषय

    इससे इन्द्र के विशेषण कहे जाते हैं ।

    पदार्थ

    (यः+एकः+अस्ति) जो इन्द्र एक है । जो (दंसना) सृष्टि, स्थिति, पालनरूप कर्मों से (महान्) महान् है और (अभि) चारों दिशाओं में (व्रतैः) स्वकीय अविचलित नियमों से (उग्रः) भयङ्कर है (सः) वह परमात्मा (गमत्) मुझको प्राप्त होवे (सः) वह (न) नहीं (योषत्) मुझसे पृथक् होवे । वह सदा (आगमत्) मेरे निकट आवे । (हवम्) मेरे निमन्त्रण का (न+परि+वर्जति) त्याग न करे । क्योंकि वह (शिप्री) शिष्ट जनों को प्यार करनेवाला है ॥२७ ॥

    भावार्थ

    जगत्कर्ता पाता और संहर्ता कोई एक ही देव है, यद्यपि यह सर्वसिद्धान्त है, तथापि इतरसम्प्रदायाचार्य्य उस देव के दूत, सेवक, पुत्र और स्त्री प्रभृति भी हैं, ऐसा मानते हैं । तब वह एक है, यह कैसे बन सकता है । इस प्रकार हम सब ही एक एक ही हैं, किन्तु वैदिक देव ऐसा नहीं । वह महान् अद्वितीय है । उसने जिन नियमों को इस जगत् में स्थापित किया है, उनको दूर कोई नहीं कर सकते । अतः हे मनुष्यो ! उसीका गान करो, वह कृपाधाम तुम्हारे शुभकर्मों को देखेगा और सफल करेगा । उस एक को छोड़ अन्य देवों को न पूजो ॥२७ ॥

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    विषय

    सत्पुरुषों के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    ( यः ) जो ( एकः ) एक, अकेला ही, अन्य सहायकों की अपेक्षा किये विना ही ( दंसना ) कर्म सामर्थ्य से ( महान् अस्ति ) महान् है और जो ( व्रतैः महान् ) व्रतों, कर्त्तव्य पालनों द्वारा ( उग्रः ) उग्र है ( सः ) वह ( शिप्री ) उत्तम शिरोमुकुट वाला, उत्तम मुख नासिका वाला, सुमुख पुरुष ( अभिगमत् ) हमें प्राप्त हो। ( न सः योषत् ) वह हम से पृथक् न हो । वह ( हवं गमत् ) स्तुति को प्राप्त हो । वह ( न परि वर्जति ) हमारा त्याग न करे। ( २ ) परमेश्वर सर्वप्रभु कर्मों से महान् ज्ञानवान्, साक्षात् स्तुति के योग्य हो । वह हमारे सदा साथ रहे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रगाथो घौरः काण्वो वा। ३–२९ मेधातिथिमेध्यातिथी काण्वौ। ३० – ३३ आसङ्गः प्लायोगिः। ३४ शश्वत्याङ्गिरम्यासगस्य पत्नी ऋषिः॥ देवताः१—२९ इन्द्रः। ३०—३३ आसंगस्य दानस्तुतिः। ३४ आसंगः॥ छन्दः—१ उपरिष्टाद् बृहती। २ आर्षी भुरिग् बृहती। ३, ७, १०, १४, १८, २१ विराड् बृहती। ४ आर्षी स्वराड् बृहती। ५, ८, १५, १७, १९, २२, २५, ३१ निचृद् बृहती। ६, ९, ११, १२, २०, २४, २६, २७ आर्षी बृहती। १३ शङ्कुमती बृहती। १६, २३, ३०, ३२ आर्ची भुरिग्बृहती। २८ आसुरी। स्वराड् निचृद् बृहती। २९ बृहती। ३३ त्रिष्टुप्। ३४ विराट् त्रिष्टुप्॥ चतुत्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    सतत प्रभु स्मरण

    पदार्थ

    [१] (यः) = जो प्रभु (एकः अस्ति) = अद्वितीय हैं (दंसना) = अपने सृष्टि उत्पत्ति आदि कर्मों से (महान्) = महनीय व पूजनीय हैं। (व्रतैः) = सूर्य, विद्युत्, अग्नि आदि देवों के निर्माण रूप कर्मों से (उग्रः) = अत्यन्त तेजस्वी हैं, वे प्रभु (अभिगमत्) = हमें आभिमुख्येन प्राप्त हों, हम प्रभु को प्राप्त करनेवाले बनें। [२] (सः) = वे प्रभु (शिप्री) = शोभन हनु व नासिकावाले हैं। प्रभु ने हमारे लिये उत्तम दष्ट्राओं व नासिका को प्राप्त कराया है। इन जबड़ों से खूब चबाकर भोजन करते हुए हम नीरोग बने रहते हैं और नासिका से प्राणसाधना करते हुए मन को निर्मल बना पाते हैं। (सः) = वे प्रभु (न योषत्) = कभी हमारे से पृथक् न हों। (हवं आगमत्) = हमारे पुकार के होते ही हमें प्राप्त हों। (न परिवर्जति) = प्रभु कभी हमारा परित्याग न कर दें। हम अपने उत्तम कर्मों से सदा प्रभु के प्रिय बने रहें ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु अद्वितीय हैं। हम उत्तम कर्मों को करते हुए, नीरोग व निर्मल बनते हुए, सदा प्रभु के प्रिय रहें। कभी प्रभु से पृथक् न हों।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    He is one, unique and incomparable, great by his omnipotence and action, refulgent and supreme by his laws and observance. May the lord, like the light of grace, descend on us, may he never be away, may be ever respond to our call and come to our yajna and never forsake us.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    अद्वितीय, बलवान व सर्वांना सुखप्रद परमेश्वर जो कठीण संकटातही आपल्या उपासकाला साह्य करतो, तो आम्हाला प्राप्त होऊन कधीही वियुक्त होता कामा नये. सर्व माणसांनी प्रत्येक कार्याच्या आरंभी परमेश्वराची स्तुती, प्रार्थना व उपासना करावी. त्यामुळे सर्व कामात सफलता प्राप्त व्हावी. ॥२७॥

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