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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 102 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 102/ मन्त्र 18
    ऋषिः - प्रयोगो भार्गव अग्निर्वा पावको बार्हस्पत्यः ; अथवाग्नी गृहपतियविष्ठौ सहसः सुतौ तयोर्वान्यतरः देवता - अग्निः छन्दः - पादनिचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    प्रचे॑तसं त्वा क॒वेऽग्ने॑ दू॒तं वरे॑ण्यम् । ह॒व्य॒वाहं॒ नि षे॑दिरे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्रऽचे॑तसम् । त्वा॒ । क॒वे॒ । अग्ने॑ । दू॒तम् । वरे॑ण्यम् । ह॒व्य॒ऽवाह॑म् । नि । से॒दि॒रे॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रचेतसं त्वा कवेऽग्ने दूतं वरेण्यम् । हव्यवाहं नि षेदिरे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्रऽचेतसम् । त्वा । कवे । अग्ने । दूतम् । वरेण्यम् । हव्यऽवाहम् । नि । सेदिरे ॥ ८.१०२.१८

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 102; मन्त्र » 18
    अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 12; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O wise and visionary, poetic maker, Agni, divinities of nature and humanity, wise sages, have honoured and established you as wide awake, all present carrier and harbinger of yajnic materials of existence, catalyser of evolutionary development and the power worthy of choice for living the good life.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो विद्वान सुदूरदर्शी असून ज्याचे ज्ञान प्रकृष्ट असते व जो आपले गुण दुसऱ्यांना प्रदान करतो, त्याची समाजात प्रतिष्ठा वाढते. ॥१८॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    हे कवे क्रान्तदर्शी! अग्ने विद्वन्! (प्रचेतसम्) प्रकृष्ट ज्ञान युक्त, (दूतम्) उत्तम ज्ञान व गुण देने वाले (वरेण्यम्) श्रेष्ठ, (हव्यवाहम्) दानाऽऽदानशील (त्वा) हम तेरी (निषेदिरे) प्रतिष्ठा करते हैं॥१८॥

    भावार्थ

    जो विद्वान् दूरदर्शी है तथा जिसका ज्ञान प्रचुर है तथा जो अपने गुण दूसरों को देता है, समाज में उसका सम्मान होता है॥१८॥

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    विषय

    सर्व प्रकाशक, परम सुखदायक प्रभु की स्तुति भक्ति और उपासना।

    भावार्थ

    हे ( कवे ) दीर्घदर्शन, उपदेष्टा ! हे ( अग्ने ) ज्ञानवन् ! ( प्रचेतसं ) उत्तम ज्ञान वाले, ( दूतं ) उत्तम ज्ञान देने वाले (वरेण्यम्) श्रेष्ठ ( हव्यवाहं ) उत्तम वचन श्रवण करने वाले ( त्वा ) तुझ को आदरपूर्वक निषेदिरे आसन पर बैठाते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रयोगो भार्गवोऽग्निर्वा पावको बार्हस्पत्यः। अथवाग्नी गृहपतियविष्ठौ सहसः सुतौ। तयोर्वान्यतर ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः—१, ३—५, ८, ९, १४, १५, २०—२२ निचृद् गायत्री। २, ६, १२, १३, १६ गायत्री। ७, ११, १७, १९ विराड् गायत्री। १०, १८ पादनिचृद् गायत्री॥

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    विषय

    उपासना का फल

    पदार्थ

    [१] हे (कवे) = क्रान्तदर्शिन् सर्वज्ञ (अग्ने) = अग्रेणी प्रभो ! (प्रचेतसम्) = प्रकृष्ट ज्ञानवाले, प्रकृष्ट चेतना को प्राप्त करानेवाले, (त्वा) = आपको (निषेदिरे) = देव लोग उपासित करते हैं, आपके चरणों में बैठते हैं। [२] उन आपको देव उपासित करते हैं, जो (दूतम्) = ज्ञान के सन्देश को प्राप्त करानेवाले हैं। अतएव (वरेण्यम्) = वरणीय हैं। प्रभु के वरण में ही कल्याण है। प्रकृति का वरण हमें पीस डालता है। प्रभु का वरण होने पर प्रकृति हमारी सेवा करती है। (हव्यवाहम्) = वस्तुतः प्रभु ही सब हव्य पदार्थों को प्राप्त करानेवाले हैं।

    भावार्थ

    ज्ञान भावार्थ- प्रभु के चरणों में बैठनेवाला व्यक्ति [क] प्रकृष्ट चेतना को प्राप्त करता है, सन्देश को सुनता है, [ग] प्रकृति से सेवित होता है, [घ] सब हव्य पदार्थों को प्राप्त करता है।

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