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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 102 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 102/ मन्त्र 4
    ऋषिः - प्रयोगो भार्गव अग्निर्वा पावको बार्हस्पत्यः ; अथवाग्नी गृहपतियविष्ठौ सहसः सुतौ तयोर्वान्यतरः देवता - अग्निः छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    औ॒र्व॒भृ॒गु॒वच्छुचि॑मप्नवान॒वदा हु॑वे । अ॒ग्निं स॑मु॒द्रवा॑ससम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    औ॒र्व॒भृ॒गु॒ऽवत् । शुचि॑म् । अ॒प्न॒वा॒न॒ऽवत् । आ । हु॒वे॒ । अ॒ग्निम् । स॒मु॒द्रऽवा॑ससम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    और्वभृगुवच्छुचिमप्नवानवदा हुवे । अग्निं समुद्रवाससम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    और्वभृगुऽवत् । शुचिम् । अप्नवानऽवत् । आ । हुवे । अग्निम् । समुद्रऽवाससम् ॥ ८.१०२.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 102; मन्त्र » 4
    अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 9; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Like a mature and self-disciplined sage and scholar of nature and spirit, I invoke and study Agni, the fire energy, concealed in the sea and the sky and the psychic energy abiding in the mind.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    साधकाने आपल्या अंत:करणात अग्नीला वसवावे. दृढ संकल्पाची आग धारण करावी. तसेच प्रभूचे ज्ञान व कर्मप्रधान स्वरूप आदर्शरूपात आपल्या अंत:करणात धारण करावे. ॥४॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    मैं (और्वभृगुवत्) व्यापक एवं परिपक्व विज्ञानयुक्त तपस्वी के समान एवं (अप्नवानवत्) बाहु अर्थात् कर्मशक्तिसम्पन्न साधक के तुल्य (समुद्रवाससम्) हृदयान्तरिक्ष में बसने वाले (अग्निम् ) ज्ञानस्वरूप प्रभु का (आहुवे) आह्वान करता हूँ॥४॥

    भावार्थ

    साधक को अपेक्षित है कि वह अपने अन्तःकरण में 'अग्नि' बसाये। दृढ़ संकल्प की अग्नि को तो धारण करे ही, साथ ही प्रभु के ज्ञान एवं कर्म प्रधान स्वरूप को भी आदर्श रूप में अपने अन्तःकरण में धारे॥४॥

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    विषय

    अग्नि आचार्य का अग्नि परमेश्वर का वर्णन।

    भावार्थ

    ( समुद्र-वाससम् ) समुद्र को वस्त्र के समान धारण करने वाले (और्व-भृगुवत् ) भूमि के भीतर सब पदार्थों को भर्जन करने वा परिपाक करने वाले तेज से युक्त और ( शुचिम् ) शुद्ध, पवित्र ( अनवानवत् ) जल के जाल से युक्त ( अग्निम् ) अग्नि के तुल्य बलवान् मैं भी ( समुद्र-वाससम् ) महान् अन्तरिक्ष में व्यापक प्रभुरूप ( अग्निं ) अग्नि, ज्ञानमय तेजस्वी को ( और्व-भृगुवत् ) भूमि के समस्त पदार्थों को संतप्त करने और परिपाक करने के सामर्थ्य से युक्त सूर्यवत् ( शुचिम् ) शुद्ध पवित्र और ( अप्नवानवत् ) सुख प्राप्त करने के समस्त साधनों वाले सामर्थ्य से युक्त उस प्रभु को (आ हुवे) आदरपूर्वक बुलाता हूं। उसी की प्रार्थना करता हूं। अथवा—( १ ) अग्नि कैसा है ( और्व-भृगुवत् ) भूमि के समान अर्थात् जो उसमें पड़ता निमग्न हो जाता है इसी प्रकार प्रभु और विद्वान् भी है जो उसके पास हो वह उसमें ही निमग्न होता है। ( २ ) ( अप्नवानवत् ) अग्नि कैसा ? रूप जाल से युक्त, तेजोरूप, विद्वान्। गृहपति कैसा ? अपत्य पुत्र, शिष्यादि गण से युक्त, सुखद वा सुकर्मों से युक्त। पुण्यवान् प्रभु कैसा ? सुखप्रद ऐश्वर्यों से युक्त, वा जीवादि पुत्रों से युक्त। ४

    टिप्पणी

    ‘अप्नवानवत्’ – अप्न इति रूप नाम, अपत्यनाम, पदनाम च। आपः कर्माख्यायां ह्रस्वो नुट् च वा। अप्नः । अपः। आपः। उणादि०॥ आप्यते सुखं येन तत् अप्नः , अपत्यं सुकर्म वा।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रयोगो भार्गवोऽग्निर्वा पावको बार्हस्पत्यः। अथवाग्नी गृहपतियविष्ठौ सहसः सुतौ। तयोर्वान्यतर ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः—१, ३—५, ८, ९, १४, १५, २०—२२ निचृद् गायत्री। २, ६, १२, १३, १६ गायत्री। ७, ११, १७, १९ विराड् गायत्री। १०, १८ पादनिचृद् गायत्री॥

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    विषय

    और्व भृगु अप्नवान

    पदार्थ

    [१] (और्व) [वत्] = और्व की तरह [उरोरपत्यम्] विशाल की सन्तान की तरह, अत्यन्त विशाल हृदय बनकर (शुचिम्) = पवित्र प्रभु को (आहुवे) = पुकारता हूँ। वस्तुतः विशालता ही हमारे जीवन को पवित्र बनाती है। जितने जितने विशाल बनेंगे, उतना उतना ही पवित्र बन पायेंगे तभी हमें 'शुचि' प्रभु को पुकारने का अधिकार होगा। [२] (भृगुवत्) = [भ्रस्ज पाके] तपस्या की अग्नि में अपने को परिपक्व करनेवाले की तरह मैं (अग्निम्) = उस अग्रेणी प्रभु को [आहुवे] पुकारता हूँ। तपस्वी बनकर मैं भी अग्नि बनता हूँ, निरन्तर आगे बढ़नेवाला बनता हूँ। तप ही उन्नति का साधन है। [३] (अप्नवानवत्) = [ अप: कर्मनाम - Weaving ताना-बाना] कर्मों के ताने-बानेवाले, निरन्तर कर्मशील पुरुष की तरह (समुद्रवाससम्) = उस आनन्दमय सब के आच्छादक प्रभु को पुकारता हूँ। कर्मों में लगे रहने से मेरा जीवन भी आनन्दमय बनता है और मैं प्रभु को अपना वस्त्र बनाकर बड़े सुरक्षित जीवनवाला होता हूँ। मेरे कर्म पवित्र बने रहते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम विशाल हृदय बनें यही पवित्रता का मार्ग है। हम तपस्वी बनें, यही उन्नति का साधन है। हम निरन्तर क्रियाशील हों, तभी आनन्दमय प्रभु की गोद को पाने के अधिकारी होंगे।

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