ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 31/ मन्त्र 4
ऋषिः - मनुर्वैवस्वतः
देवता - ईज्यास्तवो यजमानप्रशंसा च
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
अस्य॑ प्र॒जाव॑ती गृ॒हेऽस॑श्चन्ती दि॒वेदि॑वे । इळा॑ धेनु॒मती॑ दुहे ॥
स्वर सहित पद पाठअस्य॑ । प्र॒जाऽव॑ती । गृ॒हे । अस॑श्चन्ती । दि॒वेऽदि॑वे । इळा॑ । धे॒नु॒ऽमती॑ । दु॒हे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अस्य प्रजावती गृहेऽसश्चन्ती दिवेदिवे । इळा धेनुमती दुहे ॥
स्वर रहित पद पाठअस्य । प्रजाऽवती । गृहे । असश्चन्ती । दिवेऽदिवे । इळा । धेनुऽमती । दुहे ॥ ८.३१.४
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 31; मन्त्र » 4
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 38; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 38; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Ila, constant mother stream of total prosperity, flows inexhaustible into his home, blessing him with progeny, cows, culture and enlightenment, honour and excellence, day in and day out.
मराठी (1)
भावार्थ
ईश्वराच्या उपासकाला कोणत्याही वस्तूचा अभाव नसतो. ॥४॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
यः खलु मनसेश्वरमुपास्ते । अस्योपासकस्य । गृहे । दिवेदिवे दिनेदिने प्रतिदिनम् । इला अन्नम् । दुहे दुह्यते । यथा गौः पयसा स्वामिनं पुष्णाति तथैव अन्नमपि सदा वर्धमानम् । कीदृशी इला । प्रजावती पुत्रादिसंयुक्ता । तथा असश्चन्ती सश्चतिर्गतौ अवलेत्यर्थः । धेनुमती धेनुप्रभृतिपशुभिर्युक्ता भवति ॥४ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
जो मन से ईश्वर की उपासना करता है (अस्य) इसके (गृहे) गृह में (दिवेदिवे) दिन-दिन (प्रजावती) पुत्रादिकों से संयुक्त (असश्चन्ती) अचला और (धेनुमती) गौ आदि पशुओं से प्रशस्त (इला) अन्नराशि (दुहे) दुही जाती है । जैसे गौ दुही जाती है अर्थात् स्वेच्छानुसार दूध निकाल अपने काम में लाते हैं, तद्वत् उस उपासक के गृह में उतने अन्न होते हैं, जिनसे बहुत खर्च करने पर भी कभी क्षीण नहीं होता है ॥४ ॥
विषय
प्रजावती स्त्री की अग्नि से तुलना।
भावार्थ
( अस्य इडा ) उसकी भूमि (प्रजावती ) प्रजा से युक्त होकर (दिवे दिवे) दिनों दिन (गृहे असश्चन्ती) गृह में स्थिर रहने वाली पत्नी वा गौ के समान (घेतुमती) गवादि पशु युक्त और वाणी, आज्ञा युक्त होकर ( दुहे ) नाना सुखों को प्रदान करती है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मनुर्वैवस्वत ऋषिः॥ १—४ इज्यास्तवो यजमानप्रशंसा च। ५—९ दम्पती। १०—१८ दम्पत्योराशिषो देवताः॥ छन्दः—१, ३, ५, ७, १२ गायत्री। २, ४, ६, ८ निचृद् गायत्री। ११, १३ विराड् गायत्री। १० पादनिचृद् गायत्री। ९ अनुष्टुप्। १४ विराडनुष्टुप्। १५—१७ विराट् पंक्तिः। १८ आर्ची भुरिक् पंक्तिः॥
विषय
उत्तम गौ
पदार्थ
[१] (अस्य) = इस यज्ञशील पुरुष के (गृहे) = घर में (दिवे दिवे) = प्रतिदिन (इडा) = गौ (दुहे) = दुग्ध का प्रपूरण करती है। यह गौ (प्रजावती) = प्रशस्त प्रजावाली होती है, बांझ नहीं होती। (असश्चन्ती) = यह सूख नहीं जाती, दूध देती ही रहती है। (धेनुमती) = यह प्रशस्त धेनुओंवाली होती है। अर्थात् इससे उत्पन्न बछियाँ भी उत्तम दूध देनेवाली होती हैं। [२] यज्ञों का प्रभाव केवल घर के मानवों पर ही नहीं पड़ता। इन यज्ञों से उस गृह के पशु भी अधिक स्वस्थ बनते हैं। यह यज्ञ हमें प्रजा और पशु दोनों दृष्टिकोणों से बढ़ानेवाला होता है। जिस देश में यज्ञ होंगे, वहाँ मनुष्य उत्तम होंगे, तो पशु भी उत्तम होंगे। उस देश में गौएँ खूब दोग्ध्री होंगी।
भावार्थ
भावार्थ-यज्ञशील पुरुष को 'प्रजावती, असश्चन्ती, धेनुमती' गौ की प्राप्ति होती है।
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