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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 31 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 31/ मन्त्र 7
    ऋषिः - मनुर्वैवस्वतः देवता - दम्पती छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    न दे॒वाना॒मपि॑ ह्नुतः सुम॒तिं न जु॑गुक्षतः । श्रवो॑ बृ॒हद्वि॑वासतः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न । दे॒वाना॑म् । अपि॑ । ह्नु॒तः । सु॒ऽम॒तिम् । न । जु॒गु॒क्ष॒तः॒ । श्रवः॑ । बृ॒हत् । वि॒वा॒स॒तः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    न देवानामपि ह्नुतः सुमतिं न जुगुक्षतः । श्रवो बृहद्विवासतः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    न । देवानाम् । अपि । ह्नुतः । सुऽमतिम् । न । जुगुक्षतः । श्रवः । बृहत् । विवासतः ॥ ८.३१.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 31; मन्त्र » 7
    अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 39; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Never do they neglect the divinities nor do they minimize the gifts of their favour and good will, and thus indeed do they shine bright in glory and exalt the gifts of divinity.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ईश्वरानुरागी व बुद्धीचा सदुपयोग करणारे स्त्री-पुरुष सुखी असतात. ॥७॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    पुनरपि दम्पती विशिष्येते−यौ दम्पती ईश्वरानुरागिणौ भवतः । तौ । देवानां विदुषाम् । न अपिह्नुतो नापलापं कुरुतः । अपिह्नवोऽपह्नवोऽपलापः । देवेभ्यो दास्यामीति प्रतिज्ञाय पुनरदानमपलापः । तथा सुमतिं परमेश्वरात्प्राप्तां सुबुद्धिं न जुगुक्षतः न जुघुक्षतः । न संवरीतुमिच्छतः । संवरणमाच्छादनम् । न आच्छादयः । अपि च । शुभाचरणैः । जगति । बृहत् श्रवो यशोऽन्नं वा । विवासतः परिचरतः परितो विस्तारयतः प्रयच्छतो वा ॥७ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    पुनरपि दम्पती के विशेषण में यह ऋचा कही गई है । यथा−जो स्त्री पुरुष ईश्वरानुरागी होते हैं, वे (देवानाम्) देवों से (न+अपि+ह्नुतः) अपलाप नहीं करते हैं । प्रतिज्ञा करके न देने का नाम अपलाप है और (सुमतिम्) ईश्वर-प्रदत्त सुबुद्धि को (न+जुगुक्षतः) नहीं छिपाते हैं । अर्थात् निज बुद्धि द्वारा अन्यान्य जनों का उपकार करते हैं और इस प्रकार शुभाचरणों से जगत् में (विवासतः) विस्तार करते हैं या देते हैं ॥७ ॥

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    विषय

    पति-पत्नी के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    वे दोनों विवाहित पति पत्नी ( देवानाम् ) विद्वान् पुरुषों के बीच रहते हुए ( अपि ) भी, कभी भी ( न हुतः ) कुटिलता का व्यवहार नहीं करें। और वे दोनों ( सुमतिम्) अपनी उत्तम सम्मति, शुभ ज्ञान को ( न जुगुक्षतः ) कभी न छिपावें, प्रत्युत परस्पर हित के उत्तम ज्ञान देते रहा करें। वे दोनों नित्य ( बृहत् श्रवः ) बड़े भारी वेदज्ञान का ( विवासतः ) प्रकाश करें, उसका अभ्यास करें, और श्रवण करने योग्य महान् प्रभु की सेवा किया करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मनुर्वैवस्वत ऋषिः॥ १—४ इज्यास्तवो यजमानप्रशंसा च। ५—९ दम्पती। १०—१८ दम्पत्योराशिषो देवताः॥ छन्दः—१, ३, ५, ७, १२ गायत्री। २, ४, ६, ८ निचृद् गायत्री। ११, १३ विराड् गायत्री। १० पादनिचृद् गायत्री। ९ अनुष्टुप्। १४ विराडनुष्टुप्। १५—१७ विराट् पंक्तिः। १८ आर्ची भुरिक् पंक्तिः॥

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    विषय

    यज्ञ-सुमति-ज्ञान

    पदार्थ

    [१] ये पति-पत्नी (देवानाम्) = देवों का (न अपिह्नुतः) = कभी प्रवंचन नहीं करते देवों से दिये हुये भोजनों को देवों के लिये न देकर सबका सब स्वयं नहीं खा जाते। उनके लिये बिना दिये सब खा जानेवाले चोर ही तो होते हैं। [२] ये पति-पत्नी (सुमतिम्) = कल्याणी मति को कभी (न जुगुक्षतः) = संवृत नहीं करते। इनकी बुद्धि पर वासना का परदा नहीं पड़ता। [३] ये पति-पत्नी इस दीप्त बुद्धि से (बृहत् श्रवः) = विशाल ज्ञान को (विवासतः) = धारण करते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ - यज्ञशील बनें। यज्ञशीलता से बुद्धि पर लोभ का परदा नहीं पड़ जाता। अनावृत बुद्धि से ज्ञान का विस्तार होता है।

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