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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 32 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 32/ मन्त्र 18
    ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - भुरिग्गायत्री स्वरः - षड्जः

    पन्य॒ आ द॑र्दिरच्छ॒ता स॒हस्रा॑ वा॒ज्यवृ॑तः । इन्द्रो॒ यो यज्व॑नो वृ॒धः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पन्यः॑ । आ । द॒र्दि॒र॒त् । श॒ता । स॒हस्रा॑ । वा॒जी । अवृ॑तः । इन्द्रः॑ । यः । यज्व॑नः । वृ॒धः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पन्य आ दर्दिरच्छता सहस्रा वाज्यवृतः । इन्द्रो यो यज्वनो वृधः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पन्यः । आ । दर्दिरत् । शता । सहस्रा । वाजी । अवृतः । इन्द्रः । यः । यज्वनः । वृधः ॥ ८.३२.१८

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 32; मन्त्र » 18
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 4; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, potent lord who commands supreme power and, unobstructed, breaks down a hundred and a thousand adversaries, strengthens and exalts the devotees of yajna.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    बलवान इन्द्र (परमात्मा) जेथे राष्ट्राच्या यजनशीलांना वाढवितो तेथे तो स्वार्थी लोकांना नष्टही करतो. ॥१८॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (यः) जो (इन्द्रः) इन्द्र प्रभु शत्रु का हनन करनेवाला सेनाधीश या अपनी दुर्भावनाओं को दूर करने का प्रयत्नशील कर्मयोगी साधक है वह (यज्वनः) यज्ञानुष्ठाता की (वृधः) वृद्धि करता है, उसके उत्साह को बढ़ाता है, वही (पन्यः) स्तुतियोग्य (वाजी) बलशाली (शताः सहस्राः) शत सहस्र अर्थात् अगणित (अवृतः) सम्पत्ति का विभाजन न करने वालों को (आ दर्दिरत्) काटता है ॥१८॥

    भावार्थ

    बलशाली इन्द्र जहाँ यजनशीलों को बढ़ाता है, वहाँ स्वार्थियों का नाश भी करता है ॥१८॥

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    विषय

    स्तुति योग्य के लक्षण। बन्धन-मोचक प्रभु।

    भावार्थ

    ( यः ) जो ( इन्द्रः ) ऐश्वर्यवान् ! प्रभु ( यज्वनः ) दानी, सत्संगी, यज्ञोपासक का ( वृधः ) बढ़ाने हारा है वही ( पन्यः ) स्तुति योग्य है वही ( वाजी ) ऐश्वर्यवान्, ( अवृतः ) मोहादि से अनावृत, नित्य युक्त ( शता सहस्रा ) सैकड़ों हज़ारों बन्धनों को ( आ दर्दिरत ) काट देता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    काण्वो मेधातिथि: ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ७, १३, १५, २७, २८ निचृद् गायत्री। २, ४, ६, ८—१२, १४, १६, १७, २१, २२, २४—२६ गायत्री। ३, ५, १९, २०, २३, २९ विराड् गायत्री। १८, ३० भुरिग् गायत्री॥

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    विषय

    पन्यः-यज्वनो वृधः

    पदार्थ

    [१] (यः) = जो (वाजी) = शक्तिशाली प्रभु (शता सहस्त्रा) = सैंकड़ों व हजारों शत्रुओं को (आदर्दिरत्) = विदीर्ण करते हैं, वे प्रभु ही (पन्यः) = स्तुति के योग्य हैं। यह प्रभु-स्तवन ही हमारे वासनारूप शत्रुओं का विनाश करता है। [२] ये प्रभु (अवृतः) = शत्रुओं से कभी घेरे नहीं जाते। (इन्द्रः) = शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले हैं और (यज्वनः वृधः) = यज्ञशील पुरुषों के बढ़ानेवाले हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्रभु का स्तवन करें व यज्ञशील बनें। प्रभु हमारे शत्रुओं का विनाश करेंगे व हमारा वर्धन करेंगे।

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