ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 32/ मन्त्र 29
ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराड्गायत्री
स्वरः - षड्जः
इ॒ह त्या स॑ध॒माद्या॒ हरी॒ हिर॑ण्यकेश्या । वो॒ळ्हाम॒भि प्रयो॑ हि॒तम् ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒ह । त्या । स॒ध॒ऽमाद्या॑ । हरी॒ इति॑ । हिर॑ण्यऽकेश्या । वो॒ळ्हाम् । अ॒भि । प्रयः॑ । हि॒तम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
इह त्या सधमाद्या हरी हिरण्यकेश्या । वोळ्हामभि प्रयो हितम् ॥
स्वर रहित पद पाठइह । त्या । सधऽमाद्या । हरी इति । हिरण्यऽकेश्या । वोळ्हाम् । अभि । प्रयः । हितम् ॥ ८.३२.२९
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 32; मन्त्र » 29
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 6; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 6; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Here in life on earth, those two golden and refulgent motive powers of nature’s circuitous energy, jubilant and festive co-workers for the chariot of Indra, lord ruler of nature and humanity, may, we pray, bring in holy food for health and energy for the good of all living beings.
मराठी (1)
भावार्थ
वृष्टीसुखाचे वाहक वायू, विद्युत आहेत व राष्ट्राच्या सुखाचे वाहक राजा व प्रजाजन आहेत. तसेच मानव जीवनात आध्यात्मिक सुखाचे वाहक ज्ञान व कर्मेंद्रिये आहेत. हितकारक भोग्य पदार्थांचा भागच हितकारक सार उत्पन्न करू शकतो. परमेश्वराला ही प्रार्थना आहे की, राष्ट्रात राजा व प्रजा, वैयक्तिक जीवनात ज्ञान व कर्मेन्द्रियांनी हित किंवा पथ्याचे ग्रहण करावे. त्यांच्यापासून मिळणारा आनंदही हितकारक असावा. ॥२९॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(त्या) वे (सधमाद्या) साथ-साथ तृप्ति देने वाले व हर्षित करने वाले (हिरण्यकेश्या) [ज्योतिर्वै हिरण्यम्-शत० ४-३-१-२१] ज्योतिर्मय सूर्य आदि की किरणों के जैसा तेजःकिरणों से युक्त (हरी) [हरणशील] जीवन का भलीभाँति निर्वाह करने में समर्थ दोनों ज्ञान एवं कर्मेन्द्रियाँ (हितम्) हितकारी, पथ्य (प्रयः) भोग्य या उससे प्राप्त होने वाले काम्य सुख (अभि) की ओर जाकर उसे (इह) जीवन में (वोळह) ढो लाएं ॥२९॥
भावार्थ
वृष्टिसुख का वहन करने वाले वायु विद्युत् हैं और राष्ट्र में सुख का वहन करने वाले राजा व प्रजाजन हैं। ऐसे ही मानव-जीवन में आध्यात्मिक सुख के वाहक ज्ञान एवं कर्म-इन्द्रियाँ हैं। हितकारी भोग्य पदार्थों का भोग ही हितकारी सारा उपजा सकता है। प्रभु से प्रार्थना है कि राष्ट्र में राजा व प्रजाजन और व्यक्तिगत जीवन में ज्ञान एवं कर्मेन्द्रियाँ हित अथवा पथ्य का ही सेवन करें, जिससे इनके मिलने वाला आनन्द भी हितकारी हो ॥२९॥
विषय
विद्वानों को उपदेश।
भावार्थ
( इह ) यहां (त्या) वे दोनों ( सध-माद्या ) एक साथ आनन्द, वा अन्नादि की तृप्ति लाभ करने वाले, ( हिरण्य-केश्या ) सुवर्ण के समान केशों के तुल्य दीप्तियों को धारण करने वाले तेजस्वी, ( हरी ) राजा प्रजा, वा स्त्री पुरुष ( हितम् प्रयः ) हितकारी अन्न, ज्ञान ( अभि बोढाम् ) प्राप्त करावें। और सुवर्णवत् सुन्दर केशों से युक्त दो अश्व सेनापति को हित-मार्ग में ले चलें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
काण्वो मेधातिथि: ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ७, १३, १५, २७, २८ निचृद् गायत्री। २, ४, ६, ८—१२, १४, १६, १७, २१, २२, २४—२६ गायत्री। ३, ५, १९, २०, २३, २९ विराड् गायत्री। १८, ३० भुरिग् गायत्री॥
विषय
सोमरूप अन्न की ओर
पदार्थ
[१] (इह) = इस जीवन में (त्या) = वे (सधमाद्या) = मिलकर कार्य करने के द्वारा आनन्दित करनेवाले [ज्ञानेन्द्रियों के जान के अनुसार कर्मेन्द्रियाँ कर्म करें, तो जीवन में आनन्द तो बना ही रहता है] (हिरण्यकेश्या) = हितरमणीय ज्ञानरश्मियोंवाले (हरी) = इन्द्रियाश्व हमें (हितम्) = हितकर (प्रयः) = सोमरूप अन्न की (अभि) = ओर (वोढाम्) = ले चलें। [२] जिस समय ज्ञानेन्द्रियाँ ज्ञान प्राप्ति में प्रवृत्त रहती हैं और कर्मेन्द्रियाँ यज्ञादि कर्मों में लगी रहती हैं उस समय हमारा हितकर रमणीय ज्ञान बढ़ता है और वासनाओं से आक्रान्त न होने के कारण हम सोम का रक्षण कर पाते हैं। यह सोमरक्षण ही जीवन के सब हितों का साधक होता है।
भावार्थ
भावार्थ- हमारे जीवन में ज्ञानेन्द्रियाँ व कर्मेन्द्रियाँ परस्पर मिलकर कार्य करती हुईं-हमें ज्ञानप्रधान जीवनवाला बनायें और सोमरक्षण के योग्य बनायें।
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