ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 33/ मन्त्र 9
य उ॒ग्रः सन्ननि॑ष्टृतः स्थि॒रो रणा॑य॒ संस्कृ॑तः । यदि॑ स्तो॒तुर्म॒घवा॑ शृ॒णव॒द्धवं॒ नेन्द्रो॑ योष॒त्या ग॑मत् ॥
स्वर सहित पद पाठयः । उ॒ग्रः । सन् । अनिः॑ऽस्तृतः । स्थि॒रः । रणा॑य । संस्कृ॑तः । यदि॑ । स्तो॒तुः । म॒घऽवा॑ । शृ॒णव॑त् । हव॑म् । न । इन्द्रः॑ । यो॒ष॒ति॒ । आ । ग॒म॒त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
य उग्रः सन्ननिष्टृतः स्थिरो रणाय संस्कृतः । यदि स्तोतुर्मघवा शृणवद्धवं नेन्द्रो योषत्या गमत् ॥
स्वर रहित पद पाठयः । उग्रः । सन् । अनिःऽस्तृतः । स्थिरः । रणाय । संस्कृतः । यदि । स्तोतुः । मघऽवा । शृणवत् । हवम् । न । इन्द्रः । योषति । आ । गमत् ॥ ८.३३.९
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 33; मन्त्र » 9
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 8; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 8; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra who is blazing strong, uncountered and irresistible, constant and unshakable, is ever in perfect harness for the human’s battle of existence, and if he hears the call of the celebrant, the lord of might and majesty never forsakes him, he comes, he saves, he blesses.
मराठी (1)
भावार्थ
यम, नियम, धारणा, ध्यान इत्यादी योगसाधनांनी प्रथम मनाला वशमध्ये करावे तेव्हाच जीवात्म्याला परमानंदाचा भोग प्राप्त होतो. ॥९॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(यः) जो मन (उग्रः सन्) नितान्त उत्तेजित स्थिति में (अनिष्टुतः) अजेय व शक्तिशाली है; (स्थिरः) चंचलता छोड़ने पर (रणाय) जीवन में संघर्ष हेतु अथवा अनिष्ट प्रवृत्तियों से संघर्ष के उद्देश्य से (संस्कृतः) परिष्कृत होता है, सर्वशक्तियुक्त हो जाता है। (यदि) यदि (मघवा) सुन्दर स्तुत्य शमदमादि ऐश्वर्यवान् मन (स्तोतुः) अपने स्तोता साधक की (हवम्) पुकार को (शृणवत्) सुनता है तो फिर यह (इन्द्रः) परमैश्वर्यसम्पन्न मन (न योषति) कहीं भी नहीं भटकता; (आ गमत्) वह अपने अधिष्ठाता जीवात्मा की ओर--उसके वश में--हो जाता है ॥९॥
भावार्थ
यम, नियम, ध्यान इत्यादि योग के साधनों से पहले मन को वश में करना अपेक्षित है। उसके बाद ही जीवात्मा परमानन्द को प्राप्त कर सकता है ॥९॥
विषय
प्रभु के गुण-स्तवन।
भावार्थ
( यः ) जो ( उग्रः सन् ) दुष्टों के प्रति उग्र होकर ( अनिस्तृतः ) अहिंसित, अमर, ( स्थिर: ) स्थिर, कूटस्थ ( रणाय ) रण के लिये सुसाज्जत वा 'रण' परम आनन्द देने के लिये ( संस्कृतः ) सदा उपासित है। ( यदि ) यदि ( मघवा ) वह ऐश्वर्यवान्, (स्तोतुः हवं शृणवत् ) स्तुतिकर्त्ता की प्रार्थना सुनले तो वह ( इन्द्रः ) ऐश्वर्य-वान् वीर ( न योषति ) कभी स्त्रीवत् भय नहीं करता, ( आगमत् ) आही जाता है, इसी प्रकार जल की प्रार्थना सुन कर प्रभु भी (न योषति) पृथक् न रहकर ( आ गमत् ) उसे प्राप्त ही होजाता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मेधातिथि: काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१—३, ५ बृहती। ४, ७, ८, १०, १२ विराड् बृहती। ६, ९, ११, १४, १५ निचृद् बृहती। १३ आर्ची भुरिग बृहती। १६, १८ गायत्री। १७ निचृद् गायत्री। १९ अनुष्टुप्॥ एकोनविंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
स्थिरः, रणाय संस्कृतः
पदार्थ
[१] (यः) = जो (उग्रः) = तेजस्वी (सन्) = होता हुआ (अनिष्टृतः) = शत्रुओं से निस्तीर्ण नहीं किया जा सकता, शत्रु जिसका पराभव नहीं कर सकते, (स्थिरः) = जो स्थिर है, अविचल है, (रणाय संस्कृतः) = युद्ध के लिये पूर्णरूप से सज्जित है, शस्त्र आदि से अलंकृत है। इस प्रकार ये (इन्द्रः) = शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले प्रभु हैं। वस्तुतः जो प्रभु-भक्त होते हैं वे 'तेजस्वी- शत्रुओं से अपराभूत-स्थिर व युद्ध के लिये सुसज्जित' होते हैं। ये शत्रुओं से कभी पराजित नहीं होते। [२] ये (मघवा) = ऐश्वर्यशाली 'इन्द्र' (यदि) = यदि (स्तोतुः हवं शृणवत्) = स्तोता की पुकार को सुनते हैं तो (न योषति) = उसे हिंसित नहीं होने देते। (आगमत्) = उसकी रक्षा के लिये आते ही हैं। प्रभु- भक्त प्रभु की आराधना से अपने में शक्ति का अनुभव करता है और अपना रक्षण करने में समर्थ होता है।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु-भक्त 'तेजस्वी, शत्रुओं से अपराभूत, स्थिर व युद्ध के लिये सुसज्जित' बनता है। प्रभु को पुकारता हुआ अपने में शक्ति का संचार करता है।
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