ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 39/ मन्त्र 10
त्वं नो॑ अग्न आ॒युषु॒ त्वं दे॒वेषु॑ पूर्व्य॒ वस्व॒ एक॑ इरज्यसि । त्वामाप॑: परि॒स्रुत॒: परि॑ यन्ति॒ स्वसे॑तवो॒ नभ॑न्तामन्य॒के स॑मे ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । नः॒ । अ॒ग्ने॒ । आ॒युषु॑ । त्वम् । दे॒वेषु॑ । पू॒र्व्य॒ । वस्वः॑ । एकः॑ । इ॒र॒ज्य॒सि॒ । त्वाम् । आपः॑ । प॒रि॒ऽस्रुतः॑ । परि॑ । य॒न्ति॒ । स्वऽसे॑तवः । नभ॑न्ताम् । अ॒न्य॒के । स॒मे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं नो अग्न आयुषु त्वं देवेषु पूर्व्य वस्व एक इरज्यसि । त्वामाप: परिस्रुत: परि यन्ति स्वसेतवो नभन्तामन्यके समे ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम् । नः । अग्ने । आयुषु । त्वम् । देवेषु । पूर्व्य । वस्वः । एकः । इरज्यसि । त्वाम् । आपः । परिऽस्रुतः । परि । यन्ति । स्वऽसेतवः । नभन्ताम् । अन्यके । समे ॥ ८.३९.१०
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 39; मन्त्र » 10
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 23; मन्त्र » 5
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अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 23; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Agni, ancient and eternal power of existence, you alone among humanity and among divinities rule the entire wealth and power of existence. All around you the dynamic energies of life unfold and flow by themselves, provide vitality of life as messengers of Agni to forms of existence, and ultimately merge with you. May all negativities, adversities and contradictions vanish from our life for all time.
मराठी (1)
भावार्थ
धनाच्या इच्छेपेक्षाही तो प्रार्थनीय आहे. कारण सर्व धनाचा स्वामी तोच आहे व ज्यापासून धन उत्पन्न होते ते जलही त्याच्या अधीन आहे. ॥१०॥
संस्कृत (1)
विषयः
स एव सर्वधनस्वामीति दर्शयति ।
पदार्थः
हे अग्ने ! त्वम् । नः=अस्माकम् । आयुषु=मनुष्येषु । आयव इति मनुष्यनाम । वस्वः=धनस्य । इरज्यसि=ईशिषे । हे पूर्व्य=पूर्णः ! त्वमेक एव । देवेष्वपि धनस्येशिषे । स्वसेतवः=स्वयमेव स्यन्दनशीलाः सामर्थ्यादायुक्ताः । अतः परिस्रुतः=परिस्रवन्त्यः । आपः=जलानि । त्वाम् । परियन्ति । प्राप्नुवन्ति । समे=सर्वे । अन्यके=अन्यशत्रवः । नभन्ताम्=विनश्यन्तु । विनाशयन्तां वा । नभतिहिंसाकर्म ॥१० ॥
हिन्दी (3)
विषय
वही सर्वधन का स्वामी भी है, यह दिखलाते हैं ।
पदार्थ
(पूर्व्य) हे पूर्ण (अग्ने) सर्वाधार परमदेव ! (नः+आयुषु) हमारे मनुष्यों में (त्वम्) तू ही (वस्वः+इरज्यसि) धनका स्वामी है (देवेषु) देवों में भी (एकः) एक तू ही धन का स्वामी है । (त्वाम्) तेरे चारों तरफ (आपः+परि+यन्ति) जल की धारा बहती है, जो (परिस्रुतः) तेरी कृपा से सर्वत्र फैल रही है और जो (स्वसेतवः) अपने नियम में बद्ध है या स्यन्दनशील है । हे ईश ! तेरी कृपा से जगत् के (समे) सब ही (अन्यके) अन्य शत्रु (नभन्ताम्) नष्ट हो जाएँ या इनको तू ही दूर कर दे ॥१० ॥
भावार्थ
धनों की कामना से भी वही प्रार्थनीय है, क्योंकि सर्वधन का स्वामी वही है और जिससे धन उत्पन्न होता है, वह जल भी उसी के अधीन हैं ॥१० ॥
विषय
देहाग्निवत् विद्वान् के कर्त्तव्य।
भावार्थ
जिस प्रकार अग्नि ( देवेषु पूर्व्यः ) सब मनुष्यों में भी जाठर रूप से विद्यमान है, उसको ( परिस्रुतः स्वसेतवः आपः परि यन्ति ) सब ओर से बहने वाली, स्वयं बद्ध जल धाराएं विद्युत् रूप अग्नि को प्राप्त होती हैं उसी प्रकार हे ( अग्ने ) तेजस्विन् विद्वन् ! राजन् ! ( त्वं ) तू (नः) हमारे (आयुषु) सामान्य मनुष्यों और (देवेषु) विद्वानों, विजिगीषु, अर्थ की कामना युक्त जनों में ( पूर्व्यः ) सर्वश्रेष्ठ है। तू ( एक: ) एक अद्वितीय होकर (वस्वः इरज्यसि) समस्त बसे प्रजाजन और ऐश्वर्य का स्वामी है। ( स्व-सेतवः परिस्रुतः आपः ) अपने ही बन्धों से बंधी सब ओर बहती जल-धाराओं के समान (आपः) आप्त प्रजाएं भी ( परि-स्रुतः ) सब ओर से प्राप्त होकर ( स्व-सेतवः ) स्वयं अपने आपको नियम मर्यादा में बांधे रखने वाली वा 'स्व' धन वेतनादि में वा स्वजनों के सम्बन्धों से बद्ध होकर ( त्वाम् परि यन्ति ) तुझे प्राप्त होती हैं, तेरी शरण आती हैं। (अन्यके समे नभन्ताम् ) तेरे समस्त शत्रुगण नाश को प्राप्त हों। इति त्रयोविंशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
नाभाकः काण्व ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः—१, ३, ५ भुरिक् त्रिष्टुप्॥ २ विराट् त्रिष्टुप्। ४, ६—८ स्वराट् त्रिष्टुप्। १० त्रिष्टुप्। ९ निचृज्जगती॥ दशर्चं सूक्तम्॥
विषय
परिस्स्रुतः स्वसेतवः आपः
पदार्थ
[१] हे (पूर्व्य) = सर्वप्रथम स्थान में स्थित अथवा पालन व पूरण करनेवालों में उत्तम (अग्ने) = अग्रणी प्रभो ! (त्वं) = आप (आयुषु) = मनुष्यों में (नः) = हमारे (वस्वः) = धनों के (एकः इरज्यसि) = अद्वितीय ईश्वर हैं, सब धनों के स्वामी आप ही हैं। (देवेषु) = सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र आदि देवों में भी विद्यमान वसु के (त्वं) = आप ही (इरज्यसि) = ईश हैं। [२] (त्वाम्) = आपको (आपः) = वे प्रजाएँ (परियन्ति) = सर्वथा प्राप्त होती हैं जो (परिस्स्रुतः) = [परि- स्रु] समन्तात् अपने कर्तव्यकर्मों में गतिवाली हैं तथा (स्वसेतवः) = स्वयं अपने को व्रतों के बन्धन में बाँधनेवाली हैं। हे प्रभो! आपके अनुग्रह से (समे) = सब (अन्यकेः) = काम, क्रोध, लोभ आदि शत्रु (नभन्ताम्) = नष्ट हो जाएँ ।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु ही मनुष्यों व देवों में होनेवाले सब ऐश्वर्यों के स्वामी है। प्रभु को कर्तव्यपालक व्रती पुरुष प्राप्त होते हैं। अगले सूक्त में देवता 'इन्द्राग्नी' हैं-
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