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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 66 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 66/ मन्त्र 13
    ऋषिः - कलिः प्रगाथः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराड्बृहती स्वरः - मध्यमः

    व॒यं घा॑ ते॒ त्वे इद्विन्द्र॒ विप्रा॒ अपि॑ ष्मसि । न॒हि त्वद॒न्यः पु॑रुहूत॒ कश्च॒न मघ॑व॒न्नस्ति॑ मर्डि॒ता ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    व॒यम् । घ॒ । ते॒ । त्वे इति॑ । इत् । ऊँ॒ इति॑ । इन्द्र॑ । विप्राः॑ । अपि॑ । स्म॒सि॒ । न॒हि । त्वत् । अ॒न्यः । पु॒रु॒ऽहू॒त॒ । कः । च॒न । मघ॑ऽवन् । अस्ति॑ । म॒र्डि॒ता ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वयं घा ते त्वे इद्विन्द्र विप्रा अपि ष्मसि । नहि त्वदन्यः पुरुहूत कश्चन मघवन्नस्ति मर्डिता ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वयम् । घ । ते । त्वे इति । इत् । ऊँ इति । इन्द्र । विप्राः । अपि । स्मसि । नहि । त्वत् । अन्यः । पुरुऽहूत । कः । चन । मघऽवन् । अस्ति । मर्डिता ॥ ८.६६.१३

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 66; मन्त्र » 13
    अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 50; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, we are yours. Sages and celebrants, we all abide in you. There is none whatever other than you, lord of power, honour and world’s wealth, universally invoked and adored, who is kind and gracious as you.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ईश्वरापेक्षा मोठा पालक, पोषक व कृपाळू कोणी नाही. त्यासाठी त्याची उपासना, प्रेम, भक्ती व श्रद्धा याद्वारे केली पाहिजे. ॥१३॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    हे इन्द्र ! ते=तवैव । वयं घ=वयं खलु वर्तामहे । अतः । त्वे इद्+ऊं=तवाधीना एव वयं विप्राः । स्मसि=स्मः । अपि=संभावनायाम् । हे पुरुहूत हे मघवन् ! त्वदन्यः न हि कश्चिद् देवः मर्डिता सुखयितास्ति ॥१३ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे परमैश्वर्य्यसंयुक्त महेश्वर ! (वयम्+घ) हम उपासकगण (ते) तेरे ही हैं, तेरे ही पुत्र और अनुग्रहपात्र हैं, इसी कारण (विप्राः) हम मेधावी स्तुतिपाठक (त्वे+इद्+ऊम्) तेरे ही अधीन होकर (स्मसि) विद्यमान और जीवननिर्वाह करते हैं, (अपि) इसमें सन्देह नहीं । (हि) क्योंकि (पुरुहूत) हे बहुहूत हे बहुपूजित (मघवन्) हे सर्वधन महेश ! (त्वदन्यः) तुझसे बढ़कर अन्य (कश्चन) कोई देव या राजा या महाराज (मर्डिता+न+अस्ति) सुख पहुँचानेवाला नहीं है ॥१३ ॥

    भावार्थ

    ईश्वर से बढ़कर पालक पोषक व कृपालु कोई नहीं, अतः उसी की उपासना प्रेमभक्ति और श्रद्धा से करनी चाहिये ॥१३ ॥

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    विषय

    सर्वोपरि दयालु प्रभु

    भावार्थ

    ( वयं घ ते ) हम तो तेरे ही हैं, ( त्वे इत् ) तेरे ही अधीन हम ( विप्राः ) विद्वान् जन हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! (अपि स्मसि ) सदा रहें, तुझ में निमन हों, अप्यय अर्थात् मोक्ष प्राप्त करें। हे ( पुरु-हूत ) बहुतों के स्तुतिपात्र ! ( मघवन् ) उत्तम स्वामिन् ! ( त्वद् अन्यः कः चन ) तेरे से दूसरा कोई और ( मर्डिता नहि अस्ति) सुख देने वाला नहीं है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कलिः प्रागाथ ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१ बृहती। ३, ५, ११, १३ विराड् बृहती। ७ पादनिचृद् बृहती। २, ८, १२ निचृत् पंक्तिः। ४, ६ विराट् पंक्ति:। १४ पादनिचृत् पंक्ति:। १० पंक्तिः। ९, १५ अनुष्टुप्॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    'मर्डिता' प्रभु

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (वयं) = हम (घा) = निश्चय से (ते) = आपके हैं। सो (विप्राः) = अपना विशेषरूप से पूरण करनेवाले हम (इत् उ) = निश्चय से (त्वे) = आप में (अपिष्मसि) = हैं। हम सदा अपने को आपकी गोद में अनुभव करते हैं। [२] हे (पुरुहूत) = बहुतों से पुकारे जानेवाले (मघवन्) = ऐश्वर्यशालिन् प्रभो ! (त्वद् अन्यः) = आपसे भिन्न (कश्चन) = कोई भी (मर्डिता) = हमें सुखी करनेवाला (नहि अस्ति) = नहीं है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्रभु के हों। प्रभु की गोद में निवास करें। प्रभु से भिन्ना कोई हमें सुखी करनेवाला नहीं हैं।

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