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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 67 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 67/ मन्त्र 12
    ऋषिः - मत्स्यः साम्मदो मान्यो वा मैत्रावरुणिर्बहवो वा मत्स्या जालनध्दाः देवता - आदित्याः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    अ॒ने॒हो न॑ उरुव्रज॒ उरू॑चि॒ वि प्रस॑र्तवे । कृ॒धि तो॒काय॑ जी॒वसे॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ने॒हः । नः॒ । उ॒रु॒ऽव्र॒जे॒ । उरू॑चि । वि । प्रऽस॑र्तवे । कृ॒धि । तो॒काय॑ । जी॒वसे॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अनेहो न उरुव्रज उरूचि वि प्रसर्तवे । कृधि तोकाय जीवसे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अनेहः । नः । उरुऽव्रजे । उरूचि । वि । प्रऽसर्तवे । कृधि । तोकाय । जीवसे ॥ ८.६७.१२

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 67; मन्त्र » 12
    अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 53; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Sacred and sovereign mother of vast extensive powers, save us from sin and violence to range over the earth and strengthen us that not only we but also our coming generations may live happy and free.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    अनेहा: = अहिंसित, अपाप इत्यादी । उरूव्रजा = राष्ट्रीय सभेचा प्रभाव संपूर्ण देशावर पडतो त्यासाठी ती उरूव्रजा (मोठी) व पुष्कळांवर शासन करते. त्यामुळे ती उरूची (सभा) म्हणविली जाते. त्या सभेचा सर्वजण आदर करतात. त्यामुळेही ती उरूची म्हणविली जाते. ॥१२॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    हे उरुव्रजे=विस्तीर्णगमने ! उरुव्रजा सर्वप्रकीर्णा वितता । हे उरुचि=उरुशासिके बहुशासित्रि ! नः=अस्मानपि । अनेहः=अहिंसितान् विस्तीर्णगतीन् । वि+प्र+सर्तवे= अभिसरणाय । कृधि=कुरु । तोकाय+जीवसे=जीवनं कुरु ॥१२ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    (उरुव्रजे) हे अति विस्तीर्णगते (उरुचि) हे बहुशासिके सभे ! (नः) हम लोगों को भी (अनेहः) शत्रुओं से बचा अहिंसित रख विस्तीर्ण (कृधि) बनाओ (वि+प्र+सर्तवे) जिससे हम लोग भी आनन्द से इधर-उधर गमन कर सकें तथा (तोकाय+जीवसे) और यह भी आशीर्वाद करो कि हमारे सन्तानरूप बीज सदा जीवित रहें ॥१२ ॥

    भावार्थ

    अनेहाः=अहिंसित अपाप इत्यादि । उरुव्रजा=जिस कारण राष्ट्रिय सभा का प्रभाव सम्पूर्ण देश में पड़ता है, अतः वह उरुव्रजा और बहुतों का शासन करती है, अतः वह उरुचि कहाती है । उस सभा का सब ही आदर करते हैं, इस कारण भी वह उरुचि कहाती है ॥१२ ॥

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    विषय

    उग्रपुत्रा माता भूमि।

    भावार्थ

    हे ( उरु-व्रजे ) दूर २ तक जाने वाली ! हे (उरूचि) बहुत वेग से जाने वाली ! तू ( नः ) हम ( अनेहः ) निरपराधों को ( वि प्रसर्तवे ) विविध दिशाओं में जाने के लिये हो और (तोकाय) पुत्रादि के ( जीवसे ) जीवन के लिये ( कृधि ) उपाय कर। दूर देशों तक जाने वाली वैश्य-सभा वा उनकी संस्था और गमनागमन साधनों की व्यवस्था कारिणी संस्था ‘उरुव्रजा’ और ‘उरूची’ नाम से कही गई प्रतीत होती हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मत्स्यः सांमदो मान्यो वा मैत्रावरुणिर्बहवो वा मत्स्या जालनद्धा ऋषयः॥ आदित्या देवताः। छन्दः—१—३, ५, ७, ९, १३—१५, २१ निचृद् गायत्री। ४, १० विराड् गायत्री। ६, ८, ११, १२, १६—२० गायत्री॥

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    विषय

    उरुव्रजा = उरूची

    पदार्थ

    [१] हे (उरुव्रजे) = [व्रज गतौ] विशाल गति की देवते, अर्थात् क्रियाशीलते! तू (नः) = हमें (अनेहः) = निष्पाप (कृधि) = कर । हे (उरूचि) = [उरू अञ्च् पूजने] उस विशाल प्रभु की पूजन की वृत्ति ! तू हमें (विप्रसर्तवे) = विशिष्ट व प्रकृष्ट गति के लिए करनेवाली हो । प्रभुपूजन करते हुए हम उत्तम गतिवाले हों। [२] हे (उरुव्रजे) = व उरूचि ! तू हमें (तोकाय) = उत्तम सन्तानों की प्राप्ति के लिए तथा (जीवसे) = दीर्घजीवन के लिए (कृधि) = कर |

    भावार्थ

    भावार्थ- हम क्रियाशील बनकर निष्पाप हों। उस विशाल प्रभु का पूजन करते हुए प्रकृष्ट गतिवाले हों। हम उत्तम सन्तानों व दीर्घजीवन को प्राप्त करें।

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