ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 69/ मन्त्र 16
आ तू सु॑शिप्र दम्पते॒ रथं॑ तिष्ठा हिर॒ण्यय॑म् । अध॑ द्यु॒क्षं स॑चेवहि स॒हस्र॑पादमरु॒षं स्व॑स्ति॒गाम॑ने॒हस॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठआ । तु । सु॒ऽशि॒प्र॒ । द॒म्ऽप॒ते॒ । रथ॑म् । ति॒ष्ठ॒ । हि॒र॒ण्यय॑म् । अध॑ । द्यु॒क्षम् । स॒चे॒व॒हि॒ । स॒हस्र॑ऽपादम् । अ॒रु॒षम् । स्व॒स्ति॒ऽगाम् । अ॒ने॒हस॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ तू सुशिप्र दम्पते रथं तिष्ठा हिरण्ययम् । अध द्युक्षं सचेवहि सहस्रपादमरुषं स्वस्तिगामनेहसम् ॥
स्वर रहित पद पाठआ । तु । सुऽशिप्र । दम्ऽपते । रथम् । तिष्ठ । हिरण्ययम् । अध । द्युक्षम् । सचेवहि । सहस्रऽपादम् । अरुषम् । स्वस्तिऽगाम् । अनेहसम् ॥ ८.६९.१६
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 69; मन्त्र » 16
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 7; मन्त्र » 6
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अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 7; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
O lord of golden grace, father and sustainer of the house-hold of the universe, come and seat yourself in the golden chariot of this human body and, together as friends and companions, we shall ride this chariot of heavenly light, thousand wheeled, invincible and immaculate, moving on the road to peace and ultimate good.
मराठी (1)
भावार्थ
प्रभूने जीवाला जीवनयात्रा पूर्ण करण्यासाठी सुंदर शरीररूपी रथ दिलेला आहे. जेव्हा या ब्रह्मांडाचा स्वामी परमेश्वर आपल्या सोबत आहे हे जीव जाणतो तेव्हा तो द्युतिमान, असंख्य चक्रयुक्त सुखप्रापक इत्यादी बनू शकतो. त्यासाठी जीवाने आपल्या अंत:करणात प्रभूचा साक्षात्कार करून घ्यावा. ॥१६॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे (सुशिप्र) चिरन्तन सुखदायी! अथवा सेवा करने से शुभ फलदाता! (दम्पते) ब्रह्माण्ड रूपी विशाल गृह के स्वामी! (तू) तू आप मेरे इस (हिरण्ययम्) तेजोमय एवं यशस्वी (रथम्) रमणीय यान सरीखे शरीर पर (आ तिष्ठ) उपस्थित हो (अध) तदुपरान्त हम दोनों ही इस (द्युक्षम्) द्युतिमान् (सहस्रपादम्) असंख्यात गमनसाधन रूप पहियों से संयुक्त, (अरुषम्) क्षयकारक दोष आदि से बचाने योग्य, (स्वस्तिगाम्) सुख प्रापक, (अनेहसम्) सतत रक्षणीय इस रथ का (सचेवहि) साथ-साथ उपयोग करें॥१६॥
भावार्थ
प्रभु ने जीवनयात्रा को पूर्ण करने के लिये सुन्दर शरीररूपी रथ दिया है; यह तभी द्युतिमान्, असंख्य पहियों वाला, सुखप्रापक आदि हो सकता है जब इस पर ब्रह्माण्ड के स्वामी प्रभु को भी अपने साथ बैठाए; जीव अन्तःकरण में प्रभु का साक्षात्कार करे॥१६॥
विषय
गृहपति का गृहस्थ रथ पर आरोहण। राजा-राष्ट्र का 'दम्पति भाव'।
भावार्थ
हे (सु-शिप्र) उत्तम मुखनासिका वा हनू वाले ! हे उत्तम मुकट धारिन् ! सुशोभन रूप ! हे ( दम्पते ) जाया के पालक गृहपते ! तू ( हिरण्ययम् ) हितकारी रमण योग्य (रथं) रथवत् गृहस्थ रथ पर (आतिष्ठ तु) मुख्य होकर विराज। पत्नी कहती है—( अध) और हम दोनों ( द्युक्षं ) अति दीप्तियुक्त ( सहस्र-पादं ) दृढ़ चरण या आधार वाले ( अरुषं ) रोष से रहित ( स्वस्ति-गाम् ) कुशल, सुख-शान्तिदायक वाणी से युक्त, ( अनेहसम् ) पाप चेष्टा से रहित, रथवत् गृह, या उत्तम व्यवहार को ( सचेवहि ) धारण करें। यहां गृहपति, जाया का पति और 'दम' अर्थात् गृह का पति होने से 'दम्पति' है । और पक्षान्तर में—राजा भी राष्ट्र के दमन शासन को पालक होने से 'दम्पति' है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रियमेध ऋषिः॥ देवताः—१—१०, १३—१८ इन्द्रः। ११ विश्वेदेवाः। ११, १२ वरुणः। छन्दः—१, ३, १८ विराडनुष्टुप्। ७, ९, १२, १३, १५ निचूदनुष्टुप्। ८ पादनिचृदनुष्टुप्। १४ अनुष्टुप्। २ निचृदुष्णिक्। ४, ५ निचृद् गायत्री। ६ गायत्री। ११ पंक्तिः। १६ निचृत् पंक्तिः। १७ बृहती। १८ विराड् बृहती॥ अष्टादशर्चं सूक्तम्॥
विषय
प्रभु की ओर
पदार्थ
[१] पत्नी पति से कहती है कि हे (सुशिप्र) = शोभन हनुओं व नासिकावाले उत्तम भोजन व प्राणायाम को करनेवाले ! (दम्पते) = शरीररूप गृह का रक्षण करनेवाले जीव ! (हिरण्ययं रथं) = ज्योतिर्मय शरीररथ पर तू-प्रातिक स्थित हो ही । इस शरीररथ को तू ज्ञानज्योति से परिपूर्ण कर । [२] (अध) = अब, जीवन को इस प्रकार सात्त्विक भोजनवाला, प्राणसाधनासम्पन्न व ज्योतिर्मय बनाने पर, हम उस प्रभु को सचेवहि प्राप्त हों, जो (द्युक्षं) = सदा प्रकाश में निवास करनेवाले हैं। (सहस्रपादम्) = सहस्रों पांवोंवाले हैं- सर्वत्र गतिवाले हैं। (रुषं) = आरोचमान व [अ-रुषं] क्रोधरहित हैं। (स्वस्तिगाम्) = कल्याण की ओर गतिवाले हैं-हमें कल्याणपथ पर ले चलनेवाले हैं और (अनेहसम्) = निष्पाप हैं।
भावार्थ
भावार्थ- हम सात्त्विक भोजन को करते हुए शरीररथ का रक्षण करें वे इसे ज्योतिर्मय बनाएँ। पति-पत्नी मिलकर प्रकाशमय प्रभु का उपासन करें कि हमें कल्याण के मार्ग ले चलते हुए निष्पाप जीवनवाला बनाएँगे।
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