ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 70/ मन्त्र 9
उदू॒ षु णो॑ वसो म॒हे मृ॒शस्व॑ शूर॒ राध॑से । उदू॒ षु म॒ह्यै म॑घवन्म॒घत्त॑य॒ उदि॑न्द्र॒ श्रव॑से म॒हे ॥
स्वर सहित पद पाठउत् । ऊँ॒ इति॑ । सु । नः॒ । व॒सो॒ इति॑ । म॒हे । मृ॒शस्व॑ । शू॒र॒ । राध॑से । उत् । ऊँ॒ इति॑ । सु । म॒ह्यै । म॒घ॒ऽव॒न् । म॒घत्त॑ये । उत् । इ॒न्द्र॒ । श्रव॑से । म॒हे ॥
स्वर रहित मन्त्र
उदू षु णो वसो महे मृशस्व शूर राधसे । उदू षु मह्यै मघवन्मघत्तय उदिन्द्र श्रवसे महे ॥
स्वर रहित पद पाठउत् । ऊँ इति । सु । नः । वसो इति । महे । मृशस्व । शूर । राधसे । उत् । ऊँ इति । सु । मह्यै । मघऽवन् । मघत्तये । उत् । इन्द्र । श्रवसे । महे ॥ ८.७०.९
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 70; मन्त्र » 9
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 9; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 9; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Brave Indra, lord of the wealth, honour and excellence of the world, haven and home of all living beings, inspire our will and intelligence for the achievement of great wealth and competence for success in life and raise us to great power, honour and excellence to win high fame across the world.
मराठी (1)
भावार्थ
या ऋचेत महा संपत्ती, महाधन व महाकीर्ती यासाठी ईश्वराला प्रार्थना केलेली आहे. जे तन-मनाने ईश्वराच्या जवळ असतात त्यांचा मनोरथ अवश्य सिद्ध होतो, त्याच्यावर विश्वास ठेवून त्याच्या आज्ञेप्रमाणे वागा. ॥९॥
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमर्थमाह ।
पदार्थः
हे वसो=हे सर्वजीवेभ्यो वासप्रद तथा सर्वत्र निवासिन् ! हे शूर=महाशक्ते ! नोऽस्मान् । सु=सुष्ठु । उ=निश्चयेन । महे=महते उत्तमाय । राधसे=सम्पत्त्यै । उन्मृशस्व=उत्थापय । हे मघवन् ! मह्यै=महते । मघत्तये=धनदानाय । उन्मृशस्व । हे इन्द्र ! महे=महते । श्रवसे=कीर्त्तये । उन्मृशस्व ॥९ ॥
हिन्दी (3)
विषय
पुनः उस अर्थ को कहते हैं ।
पदार्थ
(वसो) हे सर्वजीवों को वासप्रद तथा सर्वत्र निवासिन् देव ! (नः+सु+उ) हम लोगों को अच्छे प्रकार (महे+राधसे) महती सम्पत्ति के लिये (उन्मृशस्व) ऊपर उठा । (मघवन्) हे सर्वधनसम्पन्न (मह्यै+मघत्तये) महा धन के लिये हमको (सु+उ) अच्छे प्रकार (उन्मृशस्व) ऊपर उठा । (इन्द्र) हे इन्द्र ! (महे+श्रवसे) प्रशंसनीय प्रसिद्धि के लिये हमको (उत्) ऊपर उठा ॥९ ॥
भावार्थ
इस ऋचा में महासम्पत्ति महाधन और महाकीर्ति के लिये ईश्वर से प्रार्थना है । निःसन्देह जो तन मन से ईश्वर के निकट प्राप्त होते हैं, उनका मनोरथ अवश्य सिद्ध होता है, उसमें विश्वास कर उसकी आज्ञा पर चलो ॥९ ॥
विषय
उसके कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे ( वसो ) माता पितावत् प्रजा को बसाने हारे ! हे (शूर) दुष्टों के नाशक ! तू ( महे राधसे ) बड़े भारी धन के लिये (न उत् सु मृशस्व उ ) हमें उत्तम रीति से प्राप्त कर। हमें उन्नत कर और ( मह्यै मघत्तये ) बहुत ऐश्वर्य देने के लिये ( उत् उ सु ) हमें उठा और हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! ( महे श्रवसे उत् ) बड़े यश के लिये हमें उठा।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
पुरुहन्मा ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१ पादनिचृद् बृहती। ५, ७ विराड् बृहती। ३ निचृद् बृहती। ८, १० आर्ची स्वराड् बृहती। १२ आर्ची बृहती। ९, ११ बृहती। २, ६ निचृत् पंक्तिः। ४ पंक्ति:। १३ उष्णिक्। १५ निचृदुष्णिक्। १४ भुरिगनुष्टुप्॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥
विषय
राधसे, मधत्तये, श्रवसे
पदार्थ
[१] हे (वसो) = हमारे निवास को उत्तम बनानेवाले (शूर) = शत्रुओं को शीर्ण करनेवाले प्रभो ! आप (नः) = हमें (उ) = निश्चय से (सु) = अच्छी प्रकार (महे राधसे) = महान् ऐश्वर्य के लिए (उन्मृशस्व) = स्पर्श करिये। आपके सम्पर्क से हम उत्कृष्ट ऐश्वर्य को प्राप्त करें। [२] हे (मघवन्) = ऐश्वर्यशालिन् ! (उ) = और (सु) = सम्यक् (म मघत्तये) = महान् ऐश्वर्य के दान के लिए हमें ऊँचा उठाइए [उत्थापय] । [३] हे (इन्द्र) = शत्रुविद्रावक प्रभो ! (महे अवसे) = महान् यश व ज्ञान के लिए (उत्) = हमें उठाइए ।
भावार्थ
भावार्थ- हम प्रभु के सम्पर्क से, ऐश्वर्य को दान की वृत्ति को तथा महान् यश को प्राप्त करें।
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