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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 72 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 72/ मन्त्र 7
    ऋषिः - हर्यतः प्रागाथः देवता - अग्निर्हर्वीषि वा छन्दः - विराड्गायत्री स्वरः - षड्जः

    दु॒हन्ति॑ स॒प्तैका॒मुप॒ द्वा पञ्च॑ सृजतः । ती॒र्थे सिन्धो॒रधि॑ स्व॒रे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दु॒हन्ति॑ । स॒प्त । एका॑म् । उप॑ । द्वा । पञ्च॑ । सृ॒ज॒तः॒ । ती॒र्थे । सिन्धोः॑ । अधि॑ । स्व॒रे ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दुहन्ति सप्तैकामुप द्वा पञ्च सृजतः । तीर्थे सिन्धोरधि स्वरे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दुहन्ति । सप्त । एकाम् । उप । द्वा । पञ्च । सृजतः । तीर्थे । सिन्धोः । अधि । स्वरे ॥ ८.७२.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 72; मन्त्र » 7
    अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 15; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Five senses of perception alongwith two others, mind and intelligence (i.e., mana and buddhi), at work distill the power and glory of Agni, like seven milk maids milking one cow on the bank of a sacred river, and give it expression in the resounding notes of cosmic hymns.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    सूर्याची प्रात:कालीन आभा दिसताच उपासक आपल्या हृदयदेशात, आपल्या अंत:करणाच्या वृत्तीच्या शक्तीने परमेश्वराचे ध्यान करतो व तसेच तो आपल्या कर्मेन्द्रियांनाही त्याच अनुभवानुसार प्रयुक्त करतो. साधकाच्या ज्ञान, कर्मेन्द्रिये, मन व बुद्धी शक्तीचे परस्पर सामंजस्य असल्याने हृदयामध्ये परमेश्वराचे दर्शन होते. ॥७॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    उस समय (सिन्धोः) हृदय सागर (अधि स्वरे) मुखर (तीर्थे) सुगमता से दुःखों से पार उतारने वाले स्थान पर अर्थात् हृदयदेश में उपासक की सप्त--पाँचों ज्ञानेन्द्रिय व मन तथा बुद्धि--ये सातों ऋत्विज (एकाम्) परमेश्वर रूपिणी माँ को (दुहन्ति) दुहते हैं; उनमें से (द्वा) दो, मन तथा बुद्धि (पञ्च) पाँच दूसरे ऋत्विजों या पाँच कर्मेन्द्रियों को (सृजतः) प्रयुक्त करते हैं॥७॥

    भावार्थ

    प्रातः सूर्य की आभा के दर्शन होते ही उपासक अपने हृदय-देश में, अपनी कर्मेन्द्रियों को भी उसी अनुभव से प्रयुक्त करता है। साधक की ज्ञान व कर्मन्द्रियों तथा मन और बुद्धि शक्तियों का आपसी सामञ्जस्य होने पर ही हृदय-देश में भगवान् के दर्शन हो पाते हैं॥७॥

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    विषय

    देह का अद्भुत यन्त्र।

    भावार्थ

    ( सप्त ) सात मिलकर ( एकाम् दुहन्ति ) एक का दोहन करते हैं और ( द्वा पञ्च ) दो पांचों को ( सिन्धोः स्वरे तीर्थे अधि ) सिन्धु के स्वयं प्रकाशमान तीर्थ अर्थात् मार्ग में ( उप सृजतः ) प्रेरित करते हैं। अर्थात् अध्यात्म में—प्राण-अपान, ये दोनों पांच ज्ञानेन्द्रियों को ( सिन्धु ) अर्थात् प्राण या रक्त की नाड़ी के (स्वरे तीर्थे अधि) स्वयं प्रकाशमान मार्ग मेरुदण्ड में स्थित होकर प्रेरित करते हैं। वे सातों मिलकर ( एकाम् दुहन्ति ) एक आत्मा या चेतनारूप गौ या वाणी को दोहन करते हैं, उससे बल प्राप्त करते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    हर्यतः प्रागाथ ऋषिः। अग्निर्हवींषि वा देवता॥ छन्द्रः—१, ३, ८—१०, १२, १६ गायत्री। २ पादनिचृद् गायत्री। ४—६, ११, १३—१५, १७निचृद् गायत्री। ७, १८ विराड् गायत्री॥ अष्टादशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    दुहन्ति सप्त एकाम्

    पदार्थ

    [१] गतमन्त्र के अनुसार शरीररथ का ठीक से योजन होने पर (सप्त) = शरीररथ सात ऋषि 'कर्णाविमौ नासिके चक्षणी मुखम्' कर्ण आदि (एकाम्) = इस अद्वितीय वेदधेनु का (दुहन्ति) = दोहन करते हैं। सातों इन्द्रियाँ ज्ञान को प्राप्त करानेवाली होती हैं। [२] वेदधेनु का दोहन होने पर इस समय (द्वा) = दो-प्राण और अपान (पञ्च) = पाँच ज्ञानेन्द्रियों को (सिन्धोः) = ज्ञानसमुद्र के (तीर्थे) = घाट पर (स्वरे अधि) =‍ उस स्वयं राजमान प्रभु के (उपसृजतः) = समीप संसृष्ट करते है । प्राणसाधना के द्वारा इन्द्रियाँ, विषयों में न जाकर प्रभुप्रवण होती हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम कान आदि के द्वारा ज्ञान का वर्धन करें। प्राणसाधना द्वारा इन्द्रियों को प्रभुप्रवण करें।

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