ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 76/ मन्त्र 11
अनु॑ त्वा॒ रोद॑सी उ॒भे क्रक्ष॑माणमकृपेताम् । इन्द्र॒ यद्द॑स्यु॒हाभ॑वः ॥
स्वर सहित पद पाठअनु॑ । त्वा॒ । रोद॑सी॒ इति॑ । उ॒भे इति॑ । क्रक्ष॑माणम् । अ॒कृ॒पे॒ता॒म् । इन्द्र॑ । यत् । द॒स्यु॒ऽहा । अभ॑वः ॥
स्वर रहित मन्त्र
अनु त्वा रोदसी उभे क्रक्षमाणमकृपेताम् । इन्द्र यद्दस्युहाभवः ॥
स्वर रहित पद पाठअनु । त्वा । रोदसी इति । उभे इति । क्रक्षमाणम् । अकृपेताम् । इन्द्र । यत् । दस्युऽहा । अभवः ॥ ८.७६.११
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 76; मन्त्र » 11
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 28; मन्त्र » 5
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अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 28; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, when you stimulate and energise the soma vitality of life created by nature and humanity, and when you rise as the destroyer of the negativities of the counterforce, then both heaven and earth vibrate and celebrate your majesty in awe with admiration.
मराठी (1)
भावार्थ
जेव्हा जेव्हा माणसावर संकटे येतात व घाबरवतात तेव्हा तेव्हा त्याला (परमेश्वराला) प्रत्येक नरनारीने धन्यवाद द्यावा, त्याची कीर्ती गावी व परस्पर साह्य करून ईश्वराला समर्पण करावे. ॥११॥
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमर्थं विस्पष्टयति ।
पदार्थः
हे इन्द्र ! यद्=यदा त्वम् । दस्युहा= समस्तचोरादिविघ्नविनाशकः । अभवः=भवसि । तदा । उभे+रोदसी=द्यावापृथिव्यौ । क्रक्षमाणम्=रक्षयन्तं त्वा । अन्वकृपेताम्=गायेताम् ॥११ ॥
हिन्दी (3)
विषय
पुनः उस अर्थ को विस्पष्ट करते हैं ।
पदार्थ
(इन्द्र) हे परमेश्वर ! (यद्) जब-जब तू (दस्युहा+अभवः) इस संसार के चोर, डाकू महामारी, प्लेग आदि निखिल विघ्नों का विनाश करता है, तब तू (उभे+रोदसी) ये दोनों द्युलोक और पृथिवीलोक (क्रक्षमाणम्+त्वा) तुझ रक्षक की कीर्ति को (अनु+अकृपेताम्) क्रमपूर्वक गावें ॥११ ॥
भावार्थ
जब-जब मनुष्य के ऊपर आपत्तियाँ आकर डरा जाएँ, तब-तब उसको प्रत्येक नरनारी धन्यवाद दे, उसकी कीर्ति गावे और परस्पर साहाय्य कर ईश्वर को समर्पण करे ॥११ ॥
विषय
शास्य-शासक दोनों बलवान् होते हैं।
भावार्थ
हे ( इन्द्र ) शत्रुहन् ! ( यत् ) जब तू ( दस्युहा अभवः ) दुष्ट पुरुषों का नाश करने हारा होता है तब ( क्रक्षमाणं त्वा अनु ) शत्रु का छेदन करते हुए तेरे साथ २ ( उभे रोदसी ) शास्य और शासक दोनों वर्ग ( अनु कृपेताम् ) बलवान् हो जाते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कुरुसुतिः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, २, ५, ६, ८—१२ गायत्री। ३, ४, ७ निचृद् गायत्री॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥
विषय
क्रक्षमाण [one who gives a crushing defeat to his enemies]
पदार्थ
[१] हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष ! (यद्) = जब तू (दस्युहा अभयः) = वासनारूप दास्यववृत्तियों को नष्ट करनेवाला होता है, तो (क्रक्षमाणम्) = शत्रुओं को कुचलनेवाले (त्वा अनु) = तेरे अनुसार (उभे रोदसी) = दोनों द्यावापृथिवी - मस्तिष्क व शरीर (अकृपेताम्) = सामर्थ्यसम्पन्न बनते हैं । [२] यह इन्द्र जितना - जितना वासना का विनाश करता चलता है, उसी अनुपात में उसके मस्तिष्क व शरीर शक्तिसम्पन्न होते चलते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- हम जितेन्द्रिय बनकर वासना का विनाश करें। तभी हमारे शरीर दृढ़ व मस्तिष्क दीप्त बनेंगे।
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