ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 76/ मन्त्र 9
पिबेदि॑न्द्र म॒रुत्स॑खा सु॒तं सोमं॒ दिवि॑ष्टिषु । वज्रं॒ शिशा॑न॒ ओज॑सा ॥
स्वर सहित पद पाठपिब॑ । इत् । इ॒न्द्र॒ । म॒रुत्ऽस॑खा । सु॒तम् । सोम॑म् । दिवि॑ष्टिषु । वज्र॑म् । शिशा॑नः । ओज॑सा ॥
स्वर रहित मन्त्र
पिबेदिन्द्र मरुत्सखा सुतं सोमं दिविष्टिषु । वज्रं शिशान ओजसा ॥
स्वर रहित पद पाठपिब । इत् । इन्द्र । मरुत्ऽसखा । सुतम् । सोमम् । दिविष्टिषु । वज्रम् । शिशानः । ओजसा ॥ ८.७६.९
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 76; मन्त्र » 9
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 28; मन्त्र » 3
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अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 28; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, friend of cosmic winds and lover of tempestuous humans, whetting your thunderbolt with the light and lustre of justice, protect and promote the ecstatic creations of the lovers of divinity in their cherished programmes of progress.
मराठी (1)
भावार्थ
ईश्वर संपूर्ण आत्म्यांचा सखा आहे व हे आत्मे भोज्य इत्यादी पदार्थांशिवाय राहू शकत नाहीत. त्यासाठी पदार्थांचे रक्षण करणे त्याचे कर्तव्य आहे. ॥९॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
हे इन्द्र=परमेश्वर ! ओजसा=स्वशक्त्या । वज्रम्= स्वन्यायदण्डम् । शिशानः=तीक्ष्णीकुर्वन् त्वम् । दिविष्टिषु= संसारपालनयज्ञेषु । सुतं=स्वयमेव निष्पादितम् । सोमम्=सर्वं वस्तु । पिब+इत्=पालयैव । यतस्त्वम् । मरुत्सखासि ॥९ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
(इन्द्र) हे परमेश्वर ! (ओजसा) स्वशक्ति से (वज्रम्) अपने न्यायदण्ड को (शिशानः) तीक्ष्ण करता हुआ तू (दिविष्टिषु) इस संसारपालनरूप क्रिया में (सुतम्) स्वयमेव शुद्ध कर बनाए हुए (सोमम्) निखिल पदार्थ की (पिब+इत्) रक्षा ही कर, जिस हेतु तू (मरुत्सखा) समस्त प्राणों का सखा है ॥९ ॥
भावार्थ
ईश्वर जिस कारण सकल आत्माओं का सखा है और ये आत्मा भोज्यादि पदार्थों के विना नहीं रह सकते, अतः पदार्थों की रक्षा करना उसका कर्त्तव्य है ॥९ ॥
विषय
पराक्रमी के कर्तव्य।
भावार्थ
तू ( मरुत्सखा ) मनुष्यों और वीर पुरुषों का सखा, मित्र होकर ही ( दिविष्टिषु ) सब दिनों हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! ( ओजसा ) पराक्रम से ( वज्रं शिशानः ) अपने बल वीर्य और शस्त्रबल को तीक्ष्ण करता हुआ ( दिविष्टिषु ) अपनी कामनाओं को प्राप्त करने के निमित्त ( सुतं सोमं ) उत्पन्न जगत् या ऐश्वर्य का ( पिब इत् ) पुत्रवत् पालन और धनवत् उपभोग कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कुरुसुतिः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, २, ५, ६, ८—१२ गायत्री। ३, ४, ७ निचृद् गायत्री॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥
विषय
दिविष्टिषु
पदार्थ
[१] हे (इन्द्र) = शत्रुविद्रावक प्रभो ! (मरुत्सखा) = प्राणरूप मित्रों को प्राप्त करानेवाले आप (सुतं सोमम्) = उत्पन्न हुए सोम को (पिबा इत्) = शरीर में पीजिये ही। आपकी आराधना से व प्राणायाम से सोमकण शरीर में सुरक्षित रहें। [२] इस सोमरक्षण द्वारा (दिविष्टिषु) = ज्ञान के प्रकाशों के प्राप्त होने पर यह उपासक (ओजसा) = ओजस्विता के द्वारा (वज्रं शिशानः) = [वज गतौ] गतिशीलता को तीव्र करनेवाला हो। ज्ञानी व ओजस्वी बने और गतिशील हो ।
भावार्थ
भावार्थ- प्राणसाधना द्वारा सोमरक्षण होकर हमारे ज्ञान ओज व गतिशीलता में वृद्धि हो ।
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