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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 81 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 81/ मन्त्र 6
    ऋषिः - कुसीदी काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    आ नो॑ भर॒ दक्षि॑णेना॒भि स॒व्येन॒ प्र मृ॑श । इन्द्र॒ मा नो॒ वसो॒र्निर्भा॑क् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । नः॒ । भ॒र॒ । दक्षि॑णेन । अ॒भि । स॒व्येन । प्र । मृ॒श॒ । इन्द्र॑ । मा । नः॒ । वसोः॑ । निः । भा॒क् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ नो भर दक्षिणेनाभि सव्येन प्र मृश । इन्द्र मा नो वसोर्निर्भाक् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । नः । भर । दक्षिणेन । अभि । सव्येन । प्र । मृश । इन्द्र । मा । नः । वसोः । निः । भाक् ॥ ८.८१.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 81; मन्त्र » 6
    अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 38; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, bear and bring and bless us with wealth, power, honour and protection both by right and by left hand, and never deprive us of this honour and excellence.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    येथे पुरुषाचा आरोप करून वर्णन केलेले आहे. त्यासाठी दक्षिण व सव्य शब्दाचा प्रयोग केलेला आहे. ईश्वर चोहीकडून भरणपोषण करत आहे व विस्तृत धन आणि निवास देत आहे. त्यासाठी तोच माणसांचा पूज्य देव आहे. ॥६॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    हे भगवन् ! दक्षिणेन हस्ते । नः=अस्मान् । आ+भर=पोषय सव्येन च अभिप्रमृश । अभितः प्ररक्ष । हे इन्द्र । नः=अस्मान् । वसोः=धनात् । मा+निर्भाक्=निर्भाक्षीः ॥६ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    हे भगवन् ! (दक्षिणेन) दक्षिण हस्त से (नः) हम लोगों को (आ+भर) धनधान्य से पूर्ण कर (सव्येन) बायें हाथ से (अभि+प्रमृश) चारों ओर रक्षा कर, हे इन्द्र (नः) हम लोगों को (वसोः) धन और वास से (मा+निर्भाक्) मत अलग कर ॥६ ॥

    भावार्थ

    यहाँ पुरुषत्व का आरोप करके वर्णन किया गया है, इसलिये दक्षिण और सव्य शब्द का प्रयोग है । ईश्वर हम लोगों का चारों ओर से भरण-पोषण कर रहा है और विस्तृत धन और वास दे रहा है, अतः वही मनुष्यों का पूज्य देव है ॥६ ॥

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    विषय

    वेरोक दानशील उद्यमार्थं प्रेरक प्रभु।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! तू (नः) हमें (दक्षिणेन आ भर ) दायें हाथ से ऐश्वर्य दान कर और (सव्येन अभि प्र मृश) बायें से भी उत्साहित कर। तू ( नः ) हमें ( वसोः मा निर्भाक् ) धन से वञ्चित मत कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कुसीदी काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः—१, ५, ८ गायत्री। २, ३, ६, ७ निचृद गायत्री। ४, ९ त्रिराड् गायत्री॥ नवर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    उत्साहित होकर वसु को प्राप्त करना

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (ता) = हमारे लिये (दक्षिणेन) = दाहिने हाथ से (आभर) = ऐश्वर्य को प्राप्त कराइये । (स्वयेन अभि प्रमृश) = बाएँ हाथ से हमें थपकी देकर उत्साहित करिये [मृक्ष्] उत्साहित होकर हम धनार्जन के लिये उद्योगवाले हों। [२] हे प्रभो! हमें (वसोः) = निवास के लिये आवश्यक धन से (मा निर्भाक्) = वञ्चित मत करिये। वसु में हमें भागी बनाइये।

    भावार्थ

    भावार्थ- हे प्रभो! आप हमें उत्साहित करिये और पुरुषार्थ के द्वारा धनार्जन में समर्थ करिये।

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