ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 87/ मन्त्र 4
ऋषिः - कृष्णो द्युम्नीको वा वासिष्ठः प्रियमेधो वा
देवता - अश्विनौ
छन्दः - निचृत्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
पिब॑तं॒ सोमं॒ मधु॑मन्तमश्वि॒ना ब॒र्हिः सी॑दतं सु॒मत् । ता वा॑वृधा॒ना उप॑ सुष्टु॒तिं दि॒वो ग॒न्तं गौ॒रावि॒वेरि॑णम् ॥
स्वर सहित पद पाठपिब॑तम् । सोम॑म् । मधु॑ऽमन्तम् । अ॒श्वि॒ना॒ । आ । ब॒र्हिः । सी॒द॒त॒म् । सु॒ऽमत् । ता । व॒वृ॒धा॒नौ । उप॑ । सु॒ऽस्तु॒तिम् । दि॒वः । ग॒न्तम् । गौ॒रौऽइ॑व । इरि॑णम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
पिबतं सोमं मधुमन्तमश्विना बर्हिः सीदतं सुमत् । ता वावृधाना उप सुष्टुतिं दिवो गन्तं गौराविवेरिणम् ॥
स्वर रहित पद पाठपिबतम् । सोमम् । मधुऽमन्तम् । अश्विना । आ । बर्हिः । सीदतम् । सुऽमत् । ता । ववृधानौ । उप । सुऽस्तुतिम् । दिवः । गन्तम् । गौरौऽइव । इरिणम् ॥ ८.८७.४
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 87; मन्त्र » 4
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 10; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 10; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Ashvins, come from the light of heaven, sit together on the holy grass, drink the honey sweet soma like thirsty deer in the forest, and, exhilarated, listen to the song of adoration offered in honour of divinity.
मराठी (1)
भावार्थ
गृहस्थ स्त्री-पुरुषांनी आपल्या जीवनात परमात्म्याच्या सृष्टीतील पदार्थांचे ज्ञान अधिकाधिक प्राप्त करावे व नाना प्रकारच्या ऐश्वर्याच्या प्राप्तीसाठी उन्नती करत प्रशंसा करावी. ॥४॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे (अश्विना) बलिष्ठ गृहस्थ नर-नारियो! (सुमत्) स्वयमेव (बर्हिः) इस लोक में (सीदतम्) दृढ़ता से बैठो; (मधुमन्तम्) मधुरता इत्यादि गुणों से युक्त (सोमम्) सकल गुणों व सुख के साधक शास्त्रबोध, धन आदि ऐश्वर्य का (पिबतम्) ग्रहण करो; (ता) वे तुम दोनों (वावृधाना) उस ऐश्वर्य से वृद्धि—उन्नति--को प्राप्त होते हुए (दिवः) ज्ञानरूपी प्रकाश की (सुष्टुतिम्) शुभ स्तुति को, इस भाँति (उपगन्तम्) प्राप्त करो जैसे कि (गौरी) वन में मृगयुगल (इरिणम्) अन्नजल युक्त स्थान की मन ही मन प्रशंसा करता है॥४॥
भावार्थ
गृहस्थ जन स्वजीवन में प्रभु की सृष्टि के पदार्थों का ज्ञान अधिकाधिक प्राप्त करें और विभिन्न प्रकार के ऐश्वर्यों की प्राप्ति से उन्नति करते हुए प्रशंसित हों॥४॥
विषय
राजा और शासकों अश्वादि सैन्य एवं सेनापति, उन के कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे ( अश्विना ) जितेन्द्रिय जनो ! आप दोनों ( सुमत् बर्हिः सीदतम् ) उत्तम आसन और प्रजा जन पर अध्यक्षवत् विराजो। और ( मधुमन्तं सोमं पिबतम् ) मधुर आनन्द युक्त ऐश्वर्य का अन्नवत् उपभोग करो। ( ता ) वे आप दोनों ( ववृधाना ) सदा वृद्धि प्राप्त करते हुए ( दिवः सु-स्तुतिं ) ज्ञान के उत्तम उपदेश, कीर्ति को ( इरिणं गौरौ इव ) जलाशय को मृगयुगल के समान ( उप गन्तम् ) प्राप्त होवो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कृष्णो द्युम्नी द्युम्नीको वा वासिष्ठ आंगिरसः प्रियमेधो वा ऋषिः॥ अश्विनी देवते॥ छन्दः—१, ३ बृहती। ५ निचृद् बृहती। २, ४, ६ निचृत् पंक्तिः॥ षडृचं सूक्तम्॥
विषय
सोमपान+प्रभुस्तवन
पदार्थ
[१] हे (अश्विना) = प्राणापानो! आप (मधुमन्तम्) = जीवन को मधुर बनानेवाले (सोमं पिबतम्) = सोम का वीर्यशक्ति का पान करो और (सुमत्) = [शोभनं ] शोभनतया (बर्हिः) = छिन्न वासनाओंवाले हृदय में (सीदतम्) = आसीन होओ। आपने ही वस्तुतः वीर्यरक्षण द्वारा हमारे जीवन को मधुर बनाना है और इसे वासनाशून्य करना है। [२] (वावृधाना) = हमारे जीवनों में वृद्धि को प्राप्त करते हुए (ता) = वे आप दोनों (दिवः) = उस प्रकाशमय प्रभु के (सुष्टुतिम्) = उत्तम स्तवन को इस प्रकार (उपगन्तम्) = समीपता से प्राप्त होओ, (इव) = जैसे (गौरौ) = दो तृषित गौर मृग (इरिणम्) = एक छोटी नदी को प्राप्त होते हैं। नदी को प्राप्त करके ही उन गौर मृगों की तृषा शान्त होती है, इसी प्रकार प्रभुस्तवन ही हमारे प्राणापानों के लिये शान्ति का देनेवाला हो ।
भावार्थ
भावार्थ- प्राणसाधना से सोमरक्षण द्वारा जीवन मधुर बनता है- हृदय वासनाशून्य होता है-प्रभुस्तवन की प्रवृत्ति जागरित होती है।
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