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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 108 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 108/ मन्त्र 16
    ऋषिः - शक्तिः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    इन्द्र॑स्य॒ हार्दि॑ सोम॒धान॒मा वि॑श समु॒द्रमि॑व॒ सिन्ध॑वः । जुष्टो॑ मि॒त्राय॒ वरु॑णाय वा॒यवे॑ दि॒वो वि॑ष्ट॒म्भ उ॑त्त॒मः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑स्य । हार्दि॑ । सो॒म॒ऽधान॑म् । आ । वि॒श॒ । स॒मु॒द्रम्ऽइ॑व । सिन्ध॑वः । जुष्टः॑ । मि॒त्राय॑ । वरु॑णाय । वा॒यवे॑ । दि॒वः । वि॒ष्ट॒म्भः । उ॒त्ऽत॒मः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रस्य हार्दि सोमधानमा विश समुद्रमिव सिन्धवः । जुष्टो मित्राय वरुणाय वायवे दिवो विष्टम्भ उत्तमः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रस्य । हार्दि । सोमऽधानम् । आ । विश । समुद्रम्ऽइव । सिन्धवः । जुष्टः । मित्राय । वरुणाय । वायवे । दिवः । विष्टम्भः । उत्ऽतमः ॥ ९.१०८.१६

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 108; मन्त्र » 16
    अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 19; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    हे परमात्मन् ! (इन्द्रस्य) कर्मयोगिनः (हार्दि) हृदयरूपम् (सोमधानम्) अन्तःकरणं (आविश) प्राप्नोतु (इव) यथा (सिन्धवः) नद्यः (समुद्रम्) समुद्रं प्राप्नुवन्ति एवं मद्वृत्तयः भवन्तं प्राप्नुवन्तु (मित्राय) अध्यापकाय (वरुणाय) उपदेशकाय च (वायवे) कर्मयोगिने (जुष्टः) प्रीतियुक्तः (दिवः) द्युलोकस्य (उत्तमः, विष्टम्भः) सर्वोपरिसहायकः ॥१६॥ इत्यष्टोत्तरशततमं सूक्तमेकोनविंशो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    हे परमात्मन् ! (इन्द्रस्य) कर्मयोगी के (हार्दि) हृदयरूप (सोमधानम्) अन्तःकरण को (आविश) प्राप्त हों, (इव) जिस प्रकार (सिन्धवः) नदियें (समुद्रम्) समुद्र को प्राप्त होती हैं, इसी प्रकार हमारी वृत्तियें आपको प्राप्त हों, आप (मित्राय) अध्यापक के लिये और (वरुणाय) उपदेशक के लिए (वायवे) ज्ञानयोगी के लिये (जुष्टः) प्रीति से युक्त और आप (दिवः) द्युलोक का (उत्तमः) सर्वोपरि (विष्टम्भः) सहारा हैं ॥१६॥

    भावार्थ

    कोटि-कोटि ब्रह्माण्ड जिस परमात्मा के आधार पर स्थिर हैं और जो कर्मयोगी तथा ज्ञानयोगी इत्यादि योगी जनों का विद्याप्रदाता है, वही एकमात्र उपास्य देव है ॥१६॥ यह १०८ वाँ सूक्त और १९ वाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    दिवो विष्टम्भ उत्तमः

    पदार्थ

    हे सोम ! तू (इन्द्रस्य) = जितेन्द्रिय पुरुष के इस (हार्दि) = हृदयंगम, अत्यन्त सुन्दर व प्रशंसनीय (सोमधानमः) = सोम के आधारभूत शरीर कलश में आविश इस प्रकार प्रविष्ट हो, (इव) = जैसे कि (सिन्धवः) = नदियाँ (समुद्रम्) = समुद्र में प्रविष्ट होती हैं । हे सोम ! तू (मित्राय) = सबके प्रति स्नेह वाले, (वरुणाय) = निर्देषता को धारण करनेवाले, (वायवे) = निरन्तर गतिशील पुरुष के लिये (जुष्टः) = प्रेम से सेवित होता है। तू (दिवः) = मस्तिष्क रूप द्युलोक को (उत्तमः) = सर्वोत्तम (विष्टम्भः) = धारक होता है। सुरक्षित सोम इस मस्तिष्क में ज्ञानाग्नि का ईंधन बनता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोमरक्षण के लिये 'जितेन्द्रियता 'स्नेह, निर्दोषता व क्रियाशीलता' साधन हैं। यह मस्तिष्क का सर्वोत्तम धारक है। गतमन्त्र के अनुसार मस्तिष्क के उत्तम धारक सोम का रक्षण करते हुए ये व्यक्ति 'धिष्ण्याः [धिषणायां साधुः] उत्तम बुद्धि वाले बनते हैं। इसके द्वारा 'अग्नयः ' निरन्तर आगे चलनेवाले होते हैं। ऐश्वर्य :- [ईश्वरस्य इमे ] ये प्रभु के पूरे विश्वासी आस्तिक बनते हैं । ये कहते हैं-

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    विषय

    सागरवत् प्रभु सब का परम लक्ष्य। परमेश्वर सर्वाश्रय स्तम्भ।

    भावार्थ

    (सिन्धवः समुद्रम् इव) नदियां जिस प्रकार समुद्र को प्राप्त होतीं और उसी में प्रवेश कर जाती हैं उसी प्रकार हे (सोम) उत्पन्न होने हारे जीव ! तू भी (सोम-धानम्) समस्त जगत् को उत्पन्न करने वाले परम सामर्थ्य रूप वीर्य के एकमात्र आश्रय (इन्द्रस्य) परमेश्वर के (हार्दि) हृदयंगम मनोहर रूप में (आ विश) प्रवेश कर। वह परमेश्वर (मित्राय) स्नेही, (वरुणाय) वरण करने वाले (वायवे) ज्ञानी पुरुष के लिये (जुष्टः) प्रीतियुक्त (दिवः) ज्ञान और प्रकाश तथा सूर्य और महान् आकाश का भी (उत्तमः) सर्वोत्तम (वि-स्तम्भः) विशेष रूप में, स्तम्भ के तुल्य ही थामने वाला, सब का महान् आश्रय है। इत्येकोनविंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः– १, २ गौरिवीतिः। ३, १४-१६ शक्तिः। ४, ५ उरुः। ६, ७ ऋजिष्वाः। ८, ९ ऊर्द्धसद्मा। १०, ११ कृतयशाः। १२, १३ ऋणञ्चयः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्दः- १, ९, ११ उष्णिक् ककुप्। ३ पादनिचृदुष्णिक् । ५, ७, १५ निचृदुष्णिक्। २ निचृद्वहती। ४, ६, १०, १२ स्वराड् बृहती॥ ८, १६ पंक्तिः। १३ गायत्री ॥ १४ निचृत्पंक्तिः॥ द्वाविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O Soma spirit of life divine dear to humanity, come, enter the heart core of the soul of humanity’s social order full of love and reverence for the joy and glory of life. Come, enter as rivers flow to the sea. Loved and worshipped for Mitra, spirit of friendship, for Varuna, spirit of freedom and choice with justice and vision, and for Vayu, vibrant power and dignity of the human nation, come and bless, supreme sustainer of heaven and earth.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    कोटी कोटी ब्रह्मांड ज्या परमात्म्याच्या आधारे स्थिर आहे व जो कर्मयोगी व ज्ञानयोगी इत्यादी योगी जनांचा विद्याप्रदाता आहे. तोच एकमात्र उपास्य देव आहे. ॥१६॥

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