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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 111 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 111/ मन्त्र 2
    ऋषिः - अनानतः पारुच्छेपिः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - भुरिगष्टिः स्वरः - मध्यमः

    त्वं त्यत्प॑णी॒नां वि॑दो॒ वसु॒ सं मा॒तृभि॑र्मर्जयसि॒ स्व आ दम॑ ऋ॒तस्य॑ धी॒तिभि॒र्दमे॑ । प॒रा॒वतो॒ न साम॒ तद्यत्रा॒ रण॑न्ति धी॒तय॑: । त्रि॒धातु॑भि॒ररु॑षीभि॒र्वयो॑ दधे॒ रोच॑मानो॒ वयो॑ दधे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । त्यत् । प॒णी॒नाम् । वि॒दः॒ । वसु॑ । सम् । मा॒तृऽभिः॑ । म॒र्ज॒य॒सि॒ । स्वे । आ । दमे॑ । ऋ॒तस्य॑ । धी॒तिऽभिः॑ । दमे॑ । प॒रा॒ऽवतः॑ । न । साम॑ । तत् । यत्र॑ । रण॑न्ति । धी॒तयः॑ । त्रि॒धातु॑ऽभिः । अरु॑षीभिः । वयः॑ । द॒धे॒ । रोच॑मानः । वयः॑ । द॒धे॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वं त्यत्पणीनां विदो वसु सं मातृभिर्मर्जयसि स्व आ दम ऋतस्य धीतिभिर्दमे । परावतो न साम तद्यत्रा रणन्ति धीतय: । त्रिधातुभिररुषीभिर्वयो दधे रोचमानो वयो दधे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम् । त्यत् । पणीनाम् । विदः । वसु । सम् । मातृऽभिः । मर्जयसि । स्वे । आ । दमे । ऋतस्य । धीतिऽभिः । दमे । पराऽवतः । न । साम । तत् । यत्र । रणन्ति । धीतयः । त्रिधातुऽभिः । अरुषीभिः । वयः । दधे । रोचमानः । वयः । दधे ॥ ९.१११.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 111; मन्त्र » 2
    अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 24; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (यत्र) अस्मिन् युद्धे (धीतयः) युद्धकुशलाः (परावतः)  दूरस्थाद्देशादेव (रणन्ति) मङ्गलगीतं गायन्ति (न) यथा (साम) साम गीयते, हे शूर! (त्वं) त्वं (पणीनाम्)  परपक्षैश्वर्य्यवतः (त्यत्, वसु)  बलातीतं धनं (ऋतस्य, धीतिभिः)  कर्मणां  यज्ञैः  (विदः)  लभमानः  (दमे) स्ववशमानयसि (आ)  अथ च (दमे)  स्ववशे  कृत्वा  (मातृभिः, संमर्जयसि)  मातापितृदत्तशक्त्या  पुनरपि  सम्यक्  समर्जयसि (त्रिधातुभिः)  त्रिधातुनिर्मितेन  (अरुषीभिः)  कान्तिमता  शरीरेण (वयः, दधे) पुनरप्यैश्वर्यं दधासि (रोचमानः) दीप्यमानः सन्  (वयः, दधे) पुनरप्यैश्वर्यं दधासि ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (यत्र) जिस युद्ध में (धीतयः) युद्धकुशल लोग (परावतः) दूर से ही (रणन्ति) मङ्गलमय गीत गाते हैं, (न) जैसे (साम) सामगान होता है, हे शूरवीर ! (त्वं) तुम (पणीनां) परपक्ष के ऐश्वर्य्यवालों से (त्यत्, वसु) जो धन छीना गया है, उसको (ऋतस्य, धीतिभिः) कर्मयज्ञ द्वारा (विदः) लाभ करके (दमे) अपने वशीभूत करते हो (आ) और (दमे) अपने अधीन धन को (मातृभिः, सं, मर्जयसि) माता पितादत्त शक्ति द्वारा फिर भली-भाँति अर्जन करके (त्रिधातुभिः) तीन धातुओं से बने हुए (अरुषीभिः) कान्तिवाले इस शरीर द्वारा (वयः, दधे) ऐश्वर्य्य को धारण करते हो और (रोचमानः,वयः,दधे) दीप्तिवाले ऐश्वर्य्यशाली होकर स्वतन्त्रतापूर्वक अपने जीवन को आनन्द में परिणत करते हो ॥२॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र का भावार्थ यह है कि जिस प्रकार ब्रह्मोपासक ब्रह्मयज्ञ में ब्रह्म के ज्ञानादि ऐश्वर्यों को धारण करते हैं, इसी प्रकार शूरवीर कर्मयज्ञ में परमात्मा के अभ्युदयरूप ऐश्वर्य को धारण करते हुए इस त्रिधातुमय शरीर के प्रयत्न को सफल करते हैं ॥२॥

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    विषय

    रोचमानः वयो दधे

    पदार्थ

    हे सोम ! (त्वम्) = तू (त्यत्) = उस प्रसिद्ध (वसु) = जीवन धन को, निवास के लिये आवश्यक तत्त्व को (पणीनाम्) = [पण व्यवहारे स्तुतौ च] प्रभुस्मरण पूर्वक सब व्यवहारों के करनेवाले पुरुषों को (विदः) = प्राप्त करता है । (स्वे) = अपने इस (दमे) = शरीर रूप गृह में (मातृभिः) = इन वेदमाता के ज्ञानदुग्धों के द्वारा (आ सम्मर्जयसि) = चारों ओर सम्यक् शोधन को करता है । सोमरक्षण से ज्ञानदीप्ति होकर हमारे सब व्यवहारों में शुद्धि आ जाती है। (दमे) = इस शरीरगृह में (ऋतस्य धीतिभिः) = ऋत के सत्यज्ञान व यज्ञादि उत्तम कर्मों के धारण से तू शोधन को करता है। सुरक्षित सोम हमें ज्ञानदीप्त करता है और हमारी यज्ञादि कर्मों में रुचि को उत्पन्न करता है। इस प्रकार यह सोम ऋतधारण के द्वारा हमें शुद्ध करता है । (तद्) = सो (न) = अब [नः संप्रति] (यत्र) = जहाँ जिस शरीरगृह में (धीतयः) = इस सोम का धारण करनेवाले (साम रणन्ति) = प्रभु के स्तुति मन्त्रों का गायन करते हैं, वहाँ यह सोम (त्रिधातुभिः) = 'इन्द्रियाँ, मन व बुद्धि' इन तीनों का धारण करनेवाली (अरुषीभिः) = आरोचमान इन ज्ञानवाणियों से (वयः दधे) = उत्कृष्ट जीवन को हमारे में स्थापित करता है । (रोचमानः) = कान्ति को धारण करता हुआ यह सोम (वयः दधे) = उत्कृष्ट जीवन को प्राप्त कराता है। [यहाँ 'त्रिधातुभिः' का अर्थ 'प्रकृति, जीव व परमात्मा के ज्ञान को धारण करनेवाली' भी हो सकता है।]

    भावार्थ

    भावार्थ- सोम प्रभुस्तवन पूर्वक व्यवहार करने वालों को वसु प्राप्त कराता है। ज्ञानवाणियों सेव ऋतु के धारण से जीवन को शुद्ध बनाता है। प्रभुस्तवन करने वालों की इन्द्रियों, मन व बुद्धि को दीस करता हुआ उत्कृष्ठ दीर्घ जीवन का स्थापन करनेवाला बनता है ।

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    विषय

    आत्मा और राजा का बलवान् होना

    भावार्थ

    हे सोम आत्मन् ! हे राजन् ! (त्वं) तू (पणीनां व्यत् वसुविदः) व्यवहार-मार्ग में रहने वाले इन्द्रियगणों का वह धन, ग्राह्य ज्ञान जान लेता है और (मातृभिः) ज्ञान करने वाले अन्तः-साधनों या विद्वानों से उस (वसु) प्राप्त ऐश्वर्य वा ज्ञान को (स्वे दमे) अपने गृह में और (दमे) दमनशील चित्त में (ऋतस्य धीतिभिः) तेज वा सत्य ज्ञान के धारण करने वाले विद्वानों द्वारा (सं मर्जयसि) उनसे मिल कर खूब शुद्ध कर लेता है, (यत्र) जहां (धीतयः) ज्ञान के धारण करने वाले (परावतः) परम रक्षास्थान से (साम न) साम गान वा सामवचन के तुल्य ग्राह्य ज्ञान का (रणन्ति) उपदेश करते हैं वहां तू (त्रिधातुभिः अरुषीभिः) तीनों लोकों, वर्षों वा त्रिविध प्रजाओं को धारण करने वाली, दीप्तियुक्त नीतियों वा सेनाओं से राजावत्, वाणियों से (वयः दधे) बल, ज्ञान, तेज और दीर्घायु को धारण करता है। और वह तू (रोचमानः) खूब तेजोमय, एवं सर्वप्रिय होकर (वयः दधे) बल को धारण करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अनानतः पारुच्छेपिर्ऋषिः। पवमानः सोमो देवता॥ छन्दः- १ निचृदष्टिः। २ भुरिगष्टिः। ३ अष्टिः॥ तृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    You win the wealth of advantage over hard bargainers in exchange and, in trade and commerce, turn deficit into surplus and make it shine with native resources in your own home, yes with open, honest, yajnic transactions of law and truth as on the vedi of yajna. Songs of praise and appreciation from afar are heard where expert organisers and workers rejoice in action. Bright and brilliant Soma spirit of peace holds life and sustenance in hand by shining wealth of matter, mind and motion in open peaceable circulation, yes Soma holds life and sustenance in hand, under control, and provides it freely.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्राचा भावार्थ हा आहे की, ज्या प्रकारे ब्रह्मोपासक ब्रह्मयज्ञात ब्रह्माचे ज्ञान इत्यादी ऐश्वर्य धारण करतात, त्याचप्रकारे शूरवीर कर्मयज्ञात परमात्म्याचे अभ्युदयरूप ऐश्वर्य धारण करून या त्रिधातुमय शरीराने प्रयत्न सफल करतात. ॥२॥

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