ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 29/ मन्त्र 1
प्रास्य॒ धारा॑ अक्षर॒न्वृष्ण॑: सु॒तस्यौज॑सा । दे॒वाँ अनु॑ प्र॒भूष॑तः ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । अ॒स्य॒ । धाराः॑ । अ॒क्ष॒र॒न् । वृष्णः॑ । सु॒तस्य॑ । ओज॑सा । दे॒वान् । अनु॑ । प्र॒ऽभूष॑तः ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रास्य धारा अक्षरन्वृष्ण: सुतस्यौजसा । देवाँ अनु प्रभूषतः ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । अस्य । धाराः । अक्षरन् । वृष्णः । सुतस्य । ओजसा । देवान् । अनु । प्रऽभूषतः ॥ ९.२९.१
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 29; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 19; मन्त्र » 1
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अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 19; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ परमात्मनाऽभ्युदयप्राप्तेः साधनानि वर्ण्यन्ते।
पदार्थः
(प्रभूषतः) प्रभुत्वमिच्छन्तः पुरुषस्येदं कर्तव्यं यत्सः (देवान् अनु) विदुषामनुयायी स्यात् किं च (सुतस्य ओजसा) नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्य परमात्मनस्तेजसा आत्मानं तेजस्विनं विदध्यात् (वृष्णः अस्य धाराः) सर्वकामप्रदस्य परमात्मनः कृपाधारा (अक्षरन्) आत्मानमभिषिञ्चेत् ॥१॥
हिन्दी (3)
विषय
अब परमात्मा अभ्युदयप्राप्ति के साधनों का वर्णन करते हैं।
पदार्थ
(प्रभूषतः) प्रभुत्व अर्थात् अभ्युदय को चाहनेवाले पुरुष का कर्तव्य यह है कि वह (देवान् अनु) विद्वानों का अनुयायी बने और (सुतस्य ओजसा) नित्य शुद्ध बुद्ध मुक्त परमात्मा के तेज से अपने आपको तेजस्वी बनावे (वृष्णः अस्य धाराः) जो सर्वकामप्रद है, उसकी धारा से (अक्षरन्) अपने को अभिषिक्त करे ॥१॥
भावार्थ
परमात्मा उपदेश करता है कि हे पुरुषो ! तुम विद्वानों की संगति के विना कदापि अभ्युदय को नहीं प्राप्त हो सकते। जिस देश के लोग नाना प्रकार की विद्याओं के वेत्ता विद्वानों के अनुयायी बनते हैं, उस देश का ऐश्वर्य देश-देशान्तरों में फैल जाता है। इसलिये हे अभ्युदयाभिलाषी जनों ! तुम भी विद्वानों के अनुयायी बनो ॥१॥
विषय
ओजस्विता न दिव्यगुण
पदार्थ
[१] (अस्य) = इस (सुतस्य) = उत्पन्न हुए हुए (वृष्णः) = शक्ति को देनेवाले सोम की (धाराः) = धारायें (प्र अक्षरन्) = शरीर में प्रवाहित होती हैं । [२] शरीर में प्रवाहित होने पर ये सोम की धारायें (ओजसा) = ओजस्विता के साथ (देवान् अनु) = दिव्य गुणों को (अनु) = लक्ष्य करके (प्रभूषतः) = [ प्रभवितुमिच्छतः ] हमें शक्तिशाली बनाने की कामना करती हैं। यह सोम हमें ओजस्वी बनाता है । हमें शक्तिशाली बनाकर हमारे अन्दर दिव्य गुणों का वर्धन करता है।
भावार्थ
भावार्थ- शरीर में सुरक्षित सोम हमें ओजस्वी व दिव्य गुण सम्पन्न बनाता है ।
विषय
सोम पवमान। आत्मा की देह में राष्ट्र में राजा के समान स्थिति ।
भावार्थ
तू (देवान् प्रभूषतः अनु) उत्तम सामर्थ्यवान् विद्वानों और वीरों के प्रतिदिन (ओजसा) बल पराक्रम से (सुतस्य अस्य वृष्णः धाराः) अभिषिक्त हुए इस बलवान् पुरुष की (धाराः) वाणियें, आज्ञाएं (प्र अक्षरन्) मेघ से निकली जलधाराओं के समान सब के सुख के लिये निकलें। इसी प्रकार इस आत्मा की (देवान् अनु) इन्द्रिय गण के प्रति (प्र-भूषतः) प्रभुवत् इस की (धाराः) जलधारावत् ग्रहण शक्तियां इन्द्रिय प्रणालिकाओं से बाहर आती हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
नृमेध ऋषिः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्दः- १ विराड् गायत्री। २–४, ६ निचृद् गायत्री। ५ गायत्री॥ षडृर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
In character with its self-refulgence, and glorifying its divine powers in nature and humanity, the streams of this mighty virile Soma, pure and immaculate, flow forth with the light and lustre of its omnipotence.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा उपदेश करतो की हे पुरुषांनो! तुम्ही विद्वानांच्या संगतीशिवाय कधीही अभ्युदय करू शकत नाही. ज्या देशातील लोक नाना प्रकारच्या विद्यावेत्ते असलेल्या विद्वानांचे अनुयायी बनतात त्या देशाचे ऐश्वर्य देशदेशान्तरी पसरते यासाठी हे अभ्युदयाभिलाषी लोकांनो! तुम्ही ही विद्वानांचे अनुयायी बना ॥१॥
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