ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 64/ मन्त्र 30
ऋ॒धक्सो॑म स्व॒स्तये॑ संजग्मा॒नो दि॒वः क॒विः । पव॑स्व॒ सूर्यो॑ दृ॒शे ॥
स्वर सहित पद पाठऋ॒धक् । सो॒म॒ । स्व॒स्तये॑ । स॒म्ऽज॒ग्मा॒नः । दि॒वः । क॒विः । पव॑स्व । सूर्यः॑ । दृ॒शे ॥
स्वर रहित मन्त्र
ऋधक्सोम स्वस्तये संजग्मानो दिवः कविः । पवस्व सूर्यो दृशे ॥
स्वर रहित पद पाठऋधक् । सोम । स्वस्तये । सम्ऽजग्मानः । दिवः । कविः । पवस्व । सूर्यः । दृशे ॥ ९.६४.३०
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 64; मन्त्र » 30
अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 41; मन्त्र » 5
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अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 41; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(ऋधक् सोम) हे अद्वितीय जगदीश्वर ! भवान् (सञ्जग्मानः) सर्वत्र परिपूर्णोऽस्ति। तथा (दिवः) प्रकाशस्वरूपोऽस्ति। अथ च (कविः) सर्वज्ञो भवान् (स्वस्तये) कल्याणाय (पवस्व) मां पवित्रयतु। (सूर्यः) सरतीति सूर्यः हे परमात्मन् ! (दृशे) ज्ञानवर्धनाय ममान्तःकरणे विराजितो भवतु ॥३०॥ इति चतुःषष्टितमं सूक्तमेकचत्वारिंशत्तमो वर्गश्च समाप्तः ॥ इति श्रीमदार्यमुनिनोपनिबद्धे क्संहिताभाष्ये नवममण्डले सप्तमाष्टके प्रथमोऽध्यायः समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(ऋधक् सोम) हे अद्वितीय परमात्मन् ! आप (सञ्जग्मानः) सर्वत्र परिपूर्ण हैं। तथा (दिवः) प्रकाशस्वरूप हैं (कवि) सर्वज्ञ हैं। आप (स्वस्तये) हमारे कल्याण के लिये (पवस्व) हमको पवित्र करें। (सूर्यः) हे परमात्मन् ! (दृशे) ज्ञान की वृद्धि के लिये आप हमारे हृदय में आकर विराजमान हों ॥३०॥
भावार्थ
इस मन्त्र में परमात्मा ने ज्ञान का उपदेश किया है कि हे उपासक जनों ! आप अपने ज्ञान की वृद्धि के लिये सर्वोपरि शक्ति से अपने मङ्गल की उपासना सदैव करते रहें ॥३०॥ यह ६४ वाँ सूक्त और ४१ वाँ वर्ग समाप्त हुआ। ऋग्वेद के ९वें मण्डल में ७वें अष्टक का पहला अध्याय समाप्त हुआ ॥
विषय
दिवः संजग्मानः
पदार्थ
[१] हे (सोम) = वीर्यशक्ते ! (ऋधक्) = [ऋध्नुवन् नि० ४।२५] समृद्धि को प्राप्त करता हुआ तू स्वस्तये हमारे कल्याण के लिये हो। (दिवः) = ज्ञान का (संजग्मानः) = हमारे साथ संगम [मेल] करनेवाला हो। (कविः) = क्रान्तदर्शी - क्रान्तप्रज्ञ हमारी बुद्धि को सूक्ष्म बनानेवाला हो। [२] (सूर्य:) = कर्मों में प्रेरित करनेवाला, शक्ति संचार के द्वारा स्फूर्ति को उत्पन्न करनेवाला तू (दृशे) = ज्ञान के लिये (पवस्व) = हमें प्राप्त हो । तूने ही तो हमारी ज्ञानाग्नि को दीप्त करना है।
भावार्थ
भावार्थ- सुरक्षित सोम हमारी ज्ञानाग्नि को दीत करता है, हमें सूक्ष्म बुद्धि बनाता है । अगले सूक्त में ऋषि 'भृगु वारुणि जमदग्नि' है, ज्ञान से परिपक्व बुद्धिवाला यह 'भृगु' हैं, सब दोषों का निवारण करनेवाला 'वारुणि' है, दीप्त जाठराग्निवाला और अतएव स्वस्थ यह 'जमदग्नि' है । इस सोम का शंसन इन शब्दों में करता है-
विषय
वानप्रस्थ के अनन्तर संन्यास का आदेश। संन्यासी का सूर्यवत् पद।
भावार्थ
हे (सोम) सब को अनुशासन करने वाले ! तू (स्वस्तये) कल्याण के लिये (ऋधक्) तेज, ज्ञान आदि से सम्पन्न एवं सब से असंग होकर (दिवः संजग्मानः) वानप्रस्थ से और आगे बढ़कर संन्यास में जाता हुआ (सूर्यः) आकाश में सूर्य के समान (कविः) क्रान्तदर्शी होकर (दृशे) अध्यात्म दर्शन करने और अन्यों के विवेक दर्शन के लिये (पवस्व) कदम बढ़ा। इत्येकचत्वारिंशो वर्गः ॥ इति प्रथमोऽध्यायः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
काश्यप ऋषिः। पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:– १, ३, ४, ७, १२, १३, १५, १७, १९, २२, २४, २६ गायत्री। २, ५, ६, ८–११, १४, १६, २०, २३, २५, २९ निचृद् गायत्री। १८, २१, २७, २८ विराड् गायत्री। ३० यवमध्या गायत्री ॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O Soma, instant and gracious divinity, creative, omniscient and constant radiation of heavenly light, the very sun for the vision of humanity, pray flow on with the radiance and the bliss, purify and sanctify our mind and soul.
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात परमात्म्याने ज्ञानाचा उपदेश केलेला आहे. हे उपासकांनो! तुम्ही आपल्या ज्ञानाच्या वृद्धीसाठी सर्वात श्रेष्ठ शक्तीला आपल्या कल्याणासाठी सदैव उपासना करत राहा. ॥३०॥
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