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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 95 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 95/ मन्त्र 2
    ऋषिः - प्रस्कण्वः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - संस्तारपङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    हरि॑: सृजा॒नः प॒थ्या॑मृ॒तस्येय॑र्ति॒ वाच॑मरि॒तेव॒ नाव॑म् । दे॒वो दे॒वानां॒ गुह्या॑नि॒ नामा॒विष्कृ॑णोति ब॒र्हिषि॑ प्र॒वाचे॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    हरिः॑ । सृ॒जा॒नः । प॒थ्या॑म् । ऋ॒तस्य॑ । इय॑र्ति । वाच॑म् । अ॒रि॒ताऽइ॑व । नाव॑म् । दे॒वः । दे॒वाना॑म् । गुह्या॑नि । नाम॑ । आ॒विः । कृ॒णो॒ति॒ । ब॒र्हिषि॑ । प्र॒ऽवाचे॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    हरि: सृजानः पथ्यामृतस्येयर्ति वाचमरितेव नावम् । देवो देवानां गुह्यानि नामाविष्कृणोति बर्हिषि प्रवाचे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    हरिः । सृजानः । पथ्याम् । ऋतस्य । इयर्ति । वाचम् । अरिताऽइव । नावम् । देवः । देवानाम् । गुह्यानि । नाम । आविः । कृणोति । बर्हिषि । प्रऽवाचे ॥ ९.९५.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 95; मन्त्र » 2
    अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 5; मन्त्र » 2
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (हरिः) स पूर्वोक्तः परमात्मा (सृजानः) साक्षात्क्रियमाणः (ऋतस्य, पथ्यां, वाचम्) वाग्द्वारा मुक्तिमार्गं (इयर्त्ति) प्रेरयति (अरिता, इव, नावं) यथा नावस्तरणकाले  नाविकः प्रेरणां करोति, स परमात्मा (देवानां देवः) सर्वदेवानामधिष्ठाता (गुह्यानि) गुप्ताः (नाम, आविः, कृणोति) संज्ञाः प्रकटयति (बर्हिषि, प्रवाचे) वाग्यज्ञार्थम् ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (हरिः) वह पूर्वोक्त परमात्मा (सृजानः) साक्षात्कार को प्राप्त हुआ (ऋतस्य, पथ्यां, वाचम्) वाक् द्वारा मुक्तिमार्ग की (इयर्ति) प्रेरणा करता है। (अरितेव नावम्) जैसा कि नौका के पार लगाने के समय में नाविक प्रेरणा करता है और (देवानां देवः) सब देवों का देव (गुह्यानि) गुप्त (नामाविष्कृणोति) संज्ञायों को प्रगट करता है (बहिर्षि प्रवाचे) वाणीरूपी यज्ञ के लिये ॥२॥

    भावार्थ

    परमात्मा ने ब्रह्मयज्ञ के लिये बहुत सी संज्ञाओं को निर्माण किया, अर्थात् शब्दब्रह्म जो वेद है, उसका निर्माण अर्थात् आविर्भाव संज्ञा-संज्ञिभाव पर निर्भर करता है, इसीलिये संज्ञा-संज्ञिभाव को रहस्यरूप से कथन किया गया है ॥२॥

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    विषय

    न्यायऋत वाणी को बढ़ाने का विद्वानों का कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    (सृजानः हरिः) उत्पन्न किया जाता हुआ, प्रतिष्ठा प्राप्त करता हुआ (हरिः) तेजस्वी पुरुष, (ऋतस्य) सत्य ज्ञान की (पथ्याम्) धर्म पथ से कभी न दूर होने वाली, धर्ममयी, न्याय्य (वाचम्) वाणी को (अरिता इव नावम्) नाव को नाविक के समान ही, (इयार्ति) आगे बढ़ाता है। उसकी पुनः २ वृद्धि और उन्नति करता है। (देवः) ज्ञानदाता, विद्या का प्रकाशक गुरु, आचार्य, (बर्हिषि) वृद्धिकारक पद पर विराज कर (प्र-वाचे) उत्तम वाणी बोलने वाले शिष्य के लिये (देवानाम्) विद्वान् जनों के (गुह्यानि) बुद्धि में प्रकट होने वाले (नाम) ज्ञानों को (आविः कृणोति) प्रकट करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रस्कण्व ऋषिः। पवमानः सोमा देवता ॥ छन्द:- १ त्रिष्टुप् २ संस्तार-पंक्तिः। ३ विराट् त्रिष्टुप्। ४ निचृत् त्रिष्टुप्। ५ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। पञ्चर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    देव गुह्यों का आविष्कार

    पदार्थ

    (सृजान:) = उत्पन्न किया जाता हुआ (हरिः) = यह दुःखहर्ता सोम (ऋतस्य) = सत्यज्ञान की (पथ्याम्) = इस हितकर मार्ग की दर्शक वेदवाणी को (इयर्ति) = हमारे में प्रेरित करता है। (इव) = जैसे (अरिता) = चप्पुओं को चलानेवाला (नावम्) = नाव को नदी में प्रेरित करता है । (देवः) = यह सोम प्रकाशमय है। (देवानाम्) = सूर्यादि देवों के (गुह्यानि) = रहस्यों को (आविष्कृणोति) = नाम अवश्य प्रकट करता है । सोमरक्षण से तीव्रबुद्धि बनकर हम देवों के रहस्यों को समझनेवाले बनते हैं । इन रहस्यों को यह सोम (बर्हिषि) = वासनाशून्य हृदय में (प्रवाचे) = प्रकृष्ट स्तोता के लिये प्रकट करता है । सोमरक्षण से ही वासनायें विनष्ट होती हैं। हृदय वासना शून्य बनता है। इस निर्मल हृदय में तत्वज्ञान का प्रकाश प्रादुर्भूत होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोम हमारे हृदयों में सत्यज्ञान की हितकर वेदवाणी का प्रकाश करता है। हम सोमरक्षण के द्वारा ही तीव्रबुद्धि बनकर सूर्यादि देवों के रहस्यों को जान पाते हैं ।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Soma, saviour and sustainer of life, invoked and self-manifested, reveals and proclaims aloud the divine voice of the path to eternal truth guiding listeners to the shores of Infinity like a pilot rowing man to the sea shore. That same spirit, further, reveals the names, definitions, secrets and mysteries of existences in the meditative yajnic mind for expression and communication on the vedi.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्म्याने ब्रह्मयज्ञासाठी पुष्कळ संज्ञा निर्माण केलेल्या आहेत. अर्थात, शब्दब्रह्म जो वेद आहे त्याची निर्मिती अर्थात आर्विभाव संज्ञा संज्ञी भावावर अवलंबून आहे. त्यासाठी संज्ञा संज्ञिभाव रहस्यरूपाने कथन केलेला आहे. ॥२॥

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