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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 96 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 96/ मन्त्र 12
    ऋषिः - प्रतर्दनो दैवोदासिः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    यथाप॑वथा॒ मन॑वे वयो॒धा अ॑मित्र॒हा व॑रिवो॒विद्ध॒विष्मा॑न् । ए॒वा प॑वस्व॒ द्रवि॑णं॒ दधा॑न॒ इन्द्रे॒ सं ति॑ष्ठ ज॒नयायु॑धानि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यथा॑ । अप॑वथाः । मन॑वे । व॒यः॒ऽधाः । अ॒मि॒त्र॒ऽहा । व॒रि॒वः॒ऽवित् । ह॒विष्मा॑न् । ए॒व । प॒व॒स्व॒ । द्रवि॑णम् । दधा॑नः । इन्द्रे॑ । सम् । ति॒ष्ठ॒ । ज॒नय॑ । आयु॑धानि ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यथापवथा मनवे वयोधा अमित्रहा वरिवोविद्धविष्मान् । एवा पवस्व द्रविणं दधान इन्द्रे सं तिष्ठ जनयायुधानि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यथा । अपवथाः । मनवे । वयःऽधाः । अमित्रऽहा । वरिवःऽवित् । हविष्मान् । एव । पवस्व । द्रविणम् । दधानः । इन्द्रे । सम् । तिष्ठ । जनय । आयुधानि ॥ ९.९६.१२

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 96; मन्त्र » 12
    अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 8; मन्त्र » 2
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    हे परमात्मन् ! (यथा, मनवे) यथा विज्ञानिने (अपवथाः) धनादिदानाय भवान् तं पवित्रयति (वयोधाः) अन्नादिदाता (अमित्रहा) दुष्टशासकः (वरिवोवित्) ऐश्वर्यदाता (हविष्मान्) हव्ययुक्तो भक्तः भवत्प्रियो भवति तथैव (एव) निश्चयेन (पवस्व) मां पुनीहि (इन्द्रे) कर्मयोगिनि च (द्रविणं, दधानः) ऐश्वर्यं धारयन् (सं, तिष्ठ) आगत्य विराजतां (जनय, आयुधानि) कर्मयोगिभ्यः विविधान्यायुधानि निष्पादयतु ॥१२॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    हे परमात्मन् ! (यथा) जिस प्रकार (मनवे) विज्ञानी पुरुष के लिये (अपवथाः) धनादिक देने के लिये आप पवित्र करते हैं, अन्नादिकों के देनेवाला (अमित्रहा) दुष्टों का दण्ड देनेवाला (वारिवोवित्) और धनादि ऐश्वर्य्य को देनेवाला (हविष्मान्) हविवाला भक्त पुरुष आपको प्रिय होता है, इस प्रकार हे परमात्मन् ! (एव) निश्चय करके (पवस्व) आप हमको पवित्र करें और (इन्द्रे) कर्म्मयोगी में (द्रविणं, दधानः) ऐश्वर्य्य को धारण करते हुए आप (सन्तिष्ठ) आकर विराजमान हों तथा (जनय, आयुधानि) कर्म्मयोगी के लिये अनन्त प्रकार के आयुधों को उत्पन्न करें ॥१२॥

    भावार्थ

    परमात्मपरायण पुरुष परमात्मा में चित्तवृत्तिनिरोध द्वारा अनन्त प्रकार के ऐश्वर्य्य और आयुधों को उत्पन्न करके देश को अभ्युदयशाली बनाते हैं ॥१२॥

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    विषय

    जगत्-शासक प्रभु और राजा से प्रजाओं की प्रार्थना।

    भावार्थ

    हे उत्तम शासक ! तू (वयः-धाः) दीर्घ जीवन, बल और अन्न का देने वाला, (अमित्र-हा) शत्रुओं का नाश करने वाला, (वरिवः-वित्) धनों को प्राप्त कराने वाला है। तू (यथा मनवे अपवेथाः) जिस प्रकार ज्ञानवान् पुरुष के हितार्थ उसको नाना पदार्थ प्रदान करे (एव) उसी प्रकार तू (हविष्मान्) उत्तम साधनों और सामग्री से युक्त होकर (द्रविणं दधानः) ऐश्वर्य और बल को धारण करता हुआ (पवस्व) प्राप्त हो, और तू (इन्द्रे सं तिष्ठ) ऐश्वर्यमय परमपद पर विराज, (आयुधा नि जनय) अपने शत्रु पर प्रहार करने के साधनों को उत्पन्न कर, प्रकट कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रतदनो दैवोदासिर्ऋषिः। पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, ३, ११,१२, १४, १९, २३ त्रिष्टुप्। २, १७ विराट् त्रिष्टुप्। ४—१०, १३, १५, १८, २१, २४ निचृत् त्रिष्टुप्। १६ आर्ची भुरिक् त्रिष्टुप्। २०, २२ पादनिचृत् त्रिष्टुप्॥ चतुर्विंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    'मनु व इन्द्र' में सोम की स्थिरता

    पदार्थ

    हे सोम ! (यथा) = जैसे तू (मनवे) = विचारशील पुरुष के लिये (अपवथाः) = जाता है [अगच्छः] और उसके लिये (वयोधाः) = उत्कृष्ट जीवन को धारण करनेवाला होता है, (अमित्रहा) = शत्रुओं का विनाश करनेवाला होता है, (वरिवोवित्) = धन का प्राप्त करानेवाला होता है तथा (हविष्मान्) = प्रशस्त हवि वाला दानपूर्वक अदन वाला होता है, अर्थात् उस विचारशील पुरुष को तू दानपूर्वक अदन वाला बनाता है (एवा) = इसी प्रकार (इन्द्रे) = जितेन्द्रिय पुरुष में (पवस्व) = तू प्राप्त हो । (द्रविणं दधानः) = सब अन्नमय आदि कोशों के ऐश्वर्य को धारण कराता हुआ (सन्तिष्ठ) = स्थित हो । और (आयुधानि) = इन्द्रियाँ मन व बुद्धिरूप आयुधों को (जनय) = विकसित शक्ति वाला कर ।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोम 'मनु व इन्द्र' में स्थिर होता है, 'विचारशील जितेन्द्रिय' पुरुष में। ये जीवन को उत्कृष्ट बनाता है। अन्नमय आदि कोशों के ऐश्वर्य को धारण करता हुआ इन्द्रियों, मन व बुद्धि को विकसित शक्ति वाला करता है । ऋषिः प्रतर्दनो ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    As ever before for all time immemorial you vibrate, flow and purify humanity for their good, bearing good health and happy age, destroying negativities and enmities, knowing the wealth we need and bearing the wealth unbounded with honour and excellences of life and holy fragrances of the yajna of living, so now too, pray, vibrate, flow and purify, bearing wealth, honour and excellence, vest in the spirit of humanity and in human glory, and create the weapons of defence against the onslaughts of conflict and contradictions.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्म परायण पुरुष परमात्म्यामध्ये चित्तवृत्ती निरोधाद्वारे अनंत प्रकारचे ऐश्वर्य व आयुधे उत्पन्न करून देशाचा अभ्युदय करतात. ॥१२॥

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