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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1132
ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
2
प꣡व꣢मानो अ꣣भि꣢꣫ स्पृधो꣣ वि꣢शो꣣ रा꣡जे꣢व सीदति । य꣡दी꣢मृ꣣ण्व꣡न्ति꣢ वे꣣ध꣡सः꣢ ॥११३२॥
स्वर सहित पद पाठप꣡व꣢꣯मानः । अ꣣भि꣢ । स्पृ꣡धः꣢꣯ । वि꣡शः꣢꣯ । रा꣡जा꣢꣯ । इ꣣व । सीदति । य꣢त् । ई꣣म् । ऋण्व꣡न्ति꣢ । वे꣣ध꣡सः꣢ ॥११३२॥
स्वर रहित मन्त्र
पवमानो अभि स्पृधो विशो राजेव सीदति । यदीमृण्वन्ति वेधसः ॥११३२॥
स्वर रहित पद पाठ
पवमानः । अभि । स्पृधः । विशः । राजा । इव । सीदति । यत् । ईम् । ऋण्वन्ति । वेधसः ॥११३२॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1132
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 2; मन्त्र » 5
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 8; खण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 5
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 2; मन्त्र » 5
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 8; खण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
आगे फिर गुरु-शिष्य का ही विषय है।
पदार्थ
(यत्) जब (ईम्) इस आचार्य को (वेधसः) अन्य विद्वान् गुरु (ऋण्वन्ति) प्राप्त होते हैं, तब यह (विशः) प्रजाओं को (राजा इव) जैसे राजा वैसे (पवमानः) पवित्र आचरणवाला करता हुआ (स्पृधः) विद्यायज्ञ में विघ्न डालनेवाले स्पर्धालुओं को (अभि सीदति) दूर कर देता है ॥५॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥५॥
भावार्थ
आचार्य दूसरे सुयोग्य गुरुजनों की सहायता से ही छात्रों को विद्वान् और पवित्र हृदयवाला करने में समर्थ होता है ॥५॥
पदार्थ
(वेधसः-यत्-ईम्-ऋण्वन्ति) उपासक मेधावी आत्माएँ जब इस सोम—शान्तस्वरूप परमात्मा को प्राप्त करते हैं*38 कर लेते हैं तो (पवमानः स्पृधः-अभि सीदति) आनन्दधारा में आता हुआ परमात्मा उनके साथ संघर्ष करनेवाले पाप काम आदि दोषों को दबा देता है (राजा-इव विशः) जैसे राजा प्रजा पर अधिकार करता है उनके उपद्रवों को दबा देता है॥५॥
टिप्पणी
[*38. “ऋण्वन्ति गतिकर्मा” [निघं॰ २.१४]।]
विशेष
<br>
विषय
प्रभु क्या करते हैं ?
पदार्थ
(यत् ईम्) = वस्तुतः जब (वेधसः) = ज्ञानी लोग (ऋण्वन्ति) = प्रभु को प्राप्त करते हैं तब (पवमानः) = वे पवित्र करनेवाले प्रभु (स्पृधः) = [स्पर्ध संघर्षे] हमारे साथ संघर्ष करनेवाले (विशः) = हमारे न चाहते हुए भी हमारे अन्दर प्रवेश कर जानेवाले काम-क्रोध आदि को (अभिसीदति) = [अभिषादयति] नष्ट कर देते हैं। हम प्रभु की शरण में जाते हैं और प्रभु हमारे इन शत्रुओं को नष्ट कर देते हैं। प्रभु की शक्ति के बिना हम इन शत्रुओं को जीत ही कहाँ सकते थे? हमारे साथ स्पर्धा में तो ये हमारे अन्दर घुस ही आते हैं। प्रभु हमारे साथ होते हैं तो ये हमपर आक्रमण नहीं कर पाते । आक्रमण करते हैं तो पराजित होते हैं । (इव) = उसी प्रकार जैसे (राजा) = एक राजा विद्रोहियों को दबा देते हैं । ये प्रभु भी मेरे विरोधियों को कुचल देते हैं ।
भावार्थ
मैं प्रभु को प्राप्त करता हूँ - प्रभु मेरे शत्रुओं को शान्त करते हैं ।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ पुनर्गुरुशिष्यविषयमेवाह।
पदार्थः
(यत्) यदा (ईम्) एनम् आचार्यम् (वेधसः) विद्वांस अन्ये गुरवः (ऋण्वन्ति) प्राप्नुवन्ति, तदा अयम् (विशः) प्रजाजनान् राजा इव नृपतिरिव, शिष्यान् (पवमानः) पवित्राचरणान् कुर्वन् (स्पृधः) स्पर्धमानान् विद्यायागविघ्नकारिणः (अभि सीदति) अभिभवति ॥५॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥५॥
भावार्थः
आचार्य इतरेषां सुयोग्यानां गुरुजनानां साहाय्येनैव छात्रान् विदुषः पवित्रहृदयांश्च कर्त्तुं पारयति ॥५॥ आचार्य दूसरे सुयोग्य गुरुजनों की सहायता से ही छात्रों को विद्वान् और पवित्र हृदयवाला करने में समर्थ होता है ॥५॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ९।७।५।
इंग्लिश (2)
Meaning
When the Yogis goad this soul, the lustrous soul, quelling all opposing forces, sits enthroned as a King, who overpowers the warring subjects.
Meaning
The pure and purifying Soma rises over all rivals and sits on top of people like a ruler when the wise sages pray and move his attention and love. (Rg. 9-7-5)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (वेधसः यत् ईम् ऋण्वन्ति) ઉપાસક મેધાવી આત્માઓ જ્યારે એ સોમ-શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્માને પ્રાપ્ત કરે છે, ત્યારે (पवमानः स्पृधः अभि सीदति) જ્ઞાનધારામાં આવીને પરમાત્મા તેની સાથે સંઘર્ષ કરનારા પાપ, કામ આદિ દોષોને દબાવી દે છે-દમન કરે છે. (राजा इव विशः) જેમ રાજા પ્રજા પર અધિકાર કરે છે, તેના ઉપદ્રવોને દબાવી દે છે. (૪)
मराठी (1)
भावार्थ
आचार्य दुसऱ्या सुयोग्य गुरुजनाच्या साह्यानेच विद्यार्थ्यांना विद्वान व पवित्र हृदयाचा करण्यास समर्थ असतो. ॥५॥
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