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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1134
ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
2
स꣢ वा꣣यु꣡मिन्द्र꣢꣯म꣣श्वि꣡ना꣢ सा꣣कं꣡ मदे꣢꣯न गच्छति । र꣢णा꣣ यो꣡ अ꣢स्य꣣ ध꣡र्म꣢णा ॥११३४॥
स्वर सहित पद पाठसः । वा꣣यु꣢म् । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । अ꣣श्वि꣡ना꣢ । सा꣣क꣢म् । म꣡दे꣢꣯न । ग꣣च्छति । र꣡ण꣢꣯ । यः । अ꣣स्य । ध꣡र्म꣢꣯णा ॥११३४॥
स्वर रहित मन्त्र
स वायुमिन्द्रमश्विना साकं मदेन गच्छति । रणा यो अस्य धर्मणा ॥११३४॥
स्वर रहित पद पाठ
सः । वायुम् । इन्द्रम् । अश्विना । साकम् । मदेन । गच्छति । रण । यः । अस्य । धर्मणा ॥११३४॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1134
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 2; मन्त्र » 7
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 8; खण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 7
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 2; मन्त्र » 7
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 8; खण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 7
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
अगले मन्त्र में फिर गुरु-शिष्य का विषय है।
पदार्थ
(यः) जो शिष्य (अस्य) इस सोम के अर्थात् विद्याप्रेरक आचार्य के (धर्मणा) नियम से (रण) चलता है, (सः) वह शिष्य (मदेन साकम्) उत्साह के साथ (वायुम्) प्राणविद्या वा पवनविद्या को (इन्द्रम्) आत्मविद्या वा विद्युद्-विद्या को और (अश्विना) मन-बुद्धि की विद्या वा सूर्य-चन्द्र की विद्या को (गच्छति) प्राप्त कर लेता है ॥७॥
भावार्थ
शिष्यों को चाहिए कि समर्पणभाव से गुरुओं के संरक्षण में रहते हुए सब विद्याएँ पढ़कर वायु, बिजली आदि के प्रयोग से यान, यन्त्र आदि चलाएँ, सब भूगोल-खगोल का ज्ञान प्राप्त करें और आध्यात्मिक सिद्धियाँ पाएँ ॥७॥
पदार्थ
(यः) जो उपासक (अस्य धर्मणा) इस सोम—शान्तस्वरूप परमात्मा के धर्म—मद—हर्षानन्द प्राप्त करने से ‘अस्मिन्’*40 इस ही सोम—शान्तस्वरूप परमात्मा में (रण) रमण करता है*41 (सः) वह ऐसा उपासक (वायुम्) आयु को*42 (इन्द्रम्) वाणी को*43 (अश्विना) श्रत्रों को*44 (मदेन) उस हर्षानन्द को लेकर (गच्छति) प्राप्त होता है, उसके जीवन में हर्ष, वाणी में हर्ष, श्रवण में हर्ष रहता है॥७॥
टिप्पणी
[*40. ‘अस्मिन्’ इति पदमाकांक्ष्यते।] [*41. “रणाय रमणीयाय” [निरु॰ ९.२७] “नाहमिन्द्राणि रारणे....नाहमिन्द्राणि रमे” [निरु॰ ११.३९]।] [*42. “आयुर्वा एष यद् वायुः” [ऐ॰ आ॰ २.४.३]।] [*43. “य इन्द्रः सा वाक्” [जै॰ १.११.१.२]।] [*44. “श्रोत्रे अश्विनौ” [श॰ १२.९.१.१३]।]
विशेष
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विषय
प्रभु को कौन प्राप्त करता है ?
पदार्थ
(सः) = वह व्यक्ति (यः) = जो (अस्य) = प्रभु के (धर्मणा) = कर्मों से (रणा) = रमण करता है— आनन्द का अनुभव करता है, अर्थात् प्रभु-प्राप्ति के लिए हितकर कर्मों में ही आनन्द लेता है, (वायुम्) = [वा गतौ] स्वभावतः क्रियावाले और सारे ब्रह्माण्ड को गति देनेवाले (इन्द्रम्) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु को (अश्विना) = प्राणापानों के द्वारा, अर्थात् प्राण- साधना के द्वारा (मदेन साकम्) - सदा उल्लास के साथ जीवन-यापन करता हुआ (गच्छति) = प्राप्त होता है ।
प्रभु-प्राप्ति का मार्ग यह है कि हम १. प्रभु से उपदिष्ट कर्मों में रमण करें- आत्मकि उन्नति के लिए किये जानेवाले कर्मों में हमारी रुचि हो, २. प्राणापान की साधना का हम ध्यान करें, ३. जीवन में सदा उल्लासमय रहने का प्रयत्न करें ।
प्रभु वायु हैं—हमें गति देनेवाले हैं और वे प्रभु ‘इन्द्र' हैं–परमैश्वर्यवाले हैं। ‘वायुमिन्द्रम्’ शब्दों का यह क्रम संकेत करता है कि गतिशीलता ही ऐश्वर्य प्राप्ति का साधन है।
भावार्थ
१. हम प्रभु-प्राप्ति के साधनभूत कर्मों में आनन्द लें, २. प्राण- साधना करें, ३. सदा जीवन को उल्लासमय बनाने के लिए यत्नशील हों ।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ पुनर्गुरुशिष्यविषय उच्यते ॥
पदार्थः
(यः) शिष्यः (अस्य) सोमस्य विद्याप्रेरकस्य आचार्यस्य (धर्मणा) नियमेन (रण) रणति चलति। [रण शब्दार्थः गत्यर्थश्च, भ्वादिः। अत्र तिब्लोपश्छान्दसः।] (सः) शिष्यः (मदेन साकम्) उत्साहेन सह (वायुम्) प्राणविद्यां पवनविद्यां वा, (इन्द्रम्) आत्मविद्यां विद्युद्विद्यां वा, (अश्विना) मनोबुद्धिविद्यां सूर्यचन्द्रविद्यां वा (गच्छति) प्राप्नोति ॥७॥
भावार्थः
शिष्यैः समर्पणभावेन गुरूणां संरक्षणे निवसद्भिः सर्वा विद्या अधीत्य वायुविद्युदादिप्रयोगेण यानयन्त्रादीनि चालनीयानि सर्वं भूगोलखगोलज्ञानं प्राप्तव्यमाध्यात्मिक्यः सिद्धयश्च सम्पादनीयाः ॥७॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ९।७।७, ‘धर्म॑णा’ इत्यत्र धर्मभिः।
इंग्लिश (2)
Meaning
A Yogi, who revels in the steady abstraction of the soul, controls the forces of breath, and mind, and the organs of action and cognition.
Meaning
He who happily abides by the laws of this Soma, spirit of vibrant purity, goes forward in life with powers of ruling strength and excellence and sagely people of noble knowledge and unfailing action. (Rg. 9-7-7)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (यः) જે ઉપાસક (अस्य धर्मणा) એ સોમ-શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્માના ધર્મ-મદ-હર્ષાનંદ પ્રાપ્ત કરવાથી (‘अस्मिन्’) એ જ સોમ-શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મામાં (रण) રમણ કરે છે. (सः) તે એવો ઉપાસક (वायुम्) આયુને (इन्द्रम्) વાણીને (अश्विना) શ્રોત્રોને (मदेन) તે હર્ષાનંદને લઈને (गच्छति) પ્રાપ્ત થાય છે, તેના જીવનમાં હર્ષ-આનંદ, વાણીમાં હર્ષ અને શ્રવણમાં પણ હર્ષ રહે છે. (૭)
मराठी (1)
भावार्थ
शिष्यांनी समर्पणभावाने गुरूंच्या संरक्षणात राहून सर्व विद्या शिकून वायू, विद्युत इत्यादी प्रयोगाने यान, यंत्र इत्यादी चालवावे. सर्व भूगोल-खगोलाचे ज्ञान प्राप्त करावे व आध्यात्मिक सिद्धी प्राप्त कराव्यात ॥७॥
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