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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1135
    ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    1

    आ꣢ मि꣣त्रे꣡ वरु꣢꣯णे꣣ भ꣢गे꣣ म꣡धोः꣢ पवन्त ऊ꣣र्म꣡यः꣢ । वि꣣दाना꣡ अ꣢स्य꣣ श꣡क्म꣢भिः ॥११३५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । मि꣣त्रे꣢ । मि꣣ । त्रे꣢ । व꣡रु꣢꣯णे । भ꣡गे꣢꣯ । म꣡धोः꣢꣯ । प꣣वन्ते । ऊर्म꣡यः꣢ । वि꣣दानाः꣢ । अ꣣स्य । श꣡क्म꣢꣯भिः ॥११३५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ मित्रे वरुणे भगे मधोः पवन्त ऊर्मयः । विदाना अस्य शक्मभिः ॥११३५॥


    स्वर रहित पद पाठ

    आ । मित्रे । मि । त्रे । वरुणे । भगे । मधोः । पवन्ते । ऊर्मयः । विदानाः । अस्य । शक्मभिः ॥११३५॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1135
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 2; मन्त्र » 8
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 8; खण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 8
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    अब ज्ञान तथा ब्रह्मानन्द का विषय वर्णित करते हैं।

    पदार्थ

    (मधोः) मधुर ज्ञान-रस वा ब्रह्मानन्द-रस की (ऊर्मयः) तरङ्गें (मित्रे) मित्रभूत जीवात्मा में, (वरुणे) दोषनिवारक मन में और (भगे) सेवनीय प्राण में (आ पवन्ते) आती हैं। (विदानाः) उन तरङ्गों को प्राप्त करनेवाले लोग (अस्य) इस मधुर ज्ञान वा ब्रह्मानन्द की (शक्मभिः) शक्तियों से युक्त हो जाते हैं ॥८॥

    भावार्थ

    ज्ञान व ब्रह्मानन्द की तरङ्गों से शरीर में स्थित सब कुछ मन, बुद्धि, प्राण, इन्द्रियाँ आदि और रोम-रोम तरङ्गित हो जाता है ॥८॥

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    पदार्थ

    (शक्मभिः) यम, नियम, आसन, प्राणायामादि, शम, दम आदि अध्यात्मकर्मों द्वारा*45 (अस्य) इस सोम—शान्तस्वरूप परमात्मा को (विदानाः) जाननेवाले हैं उन उपासकों के (मित्रे) प्राण में*46 (वरुणे) अपान में*47 (भगे) मस्तिष्कस्थ ओज में*48 (मधोः) मधुमय परमात्मा की (ऊर्मयः) आनन्दतरङ्गें—धाराएँ (आ पवन्ते) समन्तरूप से पहुँच जाती हैं वस जाती हैं॥८॥

    टिप्पणी

    [*45. “शक्म कर्मनाम” [निघं॰ २.१]।] [*46. “प्राणो वै मित्रः” [श॰ ६.५.१.५]।] [*47. “अपानो वरुणः” [श॰ ८.४.२.६]।] [*48. “भगश्च मे द्रविणं च मे यज्ञेन कल्पताम्” [तै॰ सं॰ ४.७.३.१]।]

    विशेष

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    विषय

    मित्र, वरुण और भग

    पदार्थ

    १. (मित्रे) = [क] सबके साथ स्नेह करनेवाले में अथवा [ख] प्रमीते: त्रायते, अपने को पापों से बचानेवाले में, २. (वरुणे) = [क] वरुणो नाम वरः श्रेष्ठः, अपने को श्रेष्ठ बनानेवाले में अथवा, [ख] वारयति–काम-क्रोधादि का निवारण करनेवाले में, ३. (भगे) = [क] भजते- प्रभु की उपासना करनेवाले में, [ख] अथवा धर्मकार्यों का सेवन करनेवाले में [ ऋ० १.१३६.६ द०] (मधोः) = सोम की, वीर्य की ऊर्ध्वगति होती है, अर्थात् सोम की शक्ति की (ऊर्मयः) = तरंगें (आपवन्ते) = समन्तात् गति करती हैं। वस्तुत: ‘राग-द्वेष, पापकर्मों में फँसना, श्रेष्ठ बनने का ऊँचा लक्ष्य न होना, कामक्रोधादि का शिकार होते रहना, प्रभु की ओर न झुककर पार्थिव भोगों की वृत्तिवाला होना, धर्मकार्यों में न लगना' ये सब ऐसी बातें हैं जो वीर्य की रक्षा में सहायक नहीं होती। ये 'शोक, मोह, क्रोध' सभी ब्रह्मचारी के लिए इसी दृष्टिकोण से वर्जित हैं। ‘मित्रे वरुणे' का अर्थ ‘प्राणापान की साधना करनेवाले में' यह भी है । प्राणापान की साधना भी वीर्य रक्षा का महान् साधन है । अस्य- इस सुरक्षित सोम की शक्मभिः=शक्तियों से ये 'मित्र, वरुण और भग' विदाना:-ज्ञानी बनते हैं। सोम ही ज्ञानाग्नि का ईंधन है ।

    भावार्थ

    हम मित्र, वरुण और भग बनकर सोम की ऊर्ध्वगतिवाले हों और इस सोम की शक्ति से अपनी ज्ञानाग्नि को दीप्त करें ।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ ज्ञानस्य ब्रह्मानन्दस्य च विषयो वर्ण्यते।

    पदार्थः

    (मधोः) मधुरस्य ज्ञानरसस्य ब्रह्मानन्दरसस्य वा (ऊर्मयः) तरङ्गा (मित्रे) मित्रभूते जीवात्मनि, (वरुणे) दोषनिवारके मनसि, (भगे) सेवनीये प्राणे च (आ पवन्ते) आगच्छन्ति। (विदानाः) तान् तरङ्गान् प्राप्नुवन्तो जनाः (अस्य) मधुरस्य ज्ञानस्य ब्रह्मानन्दस्य वा (शक्मभिः२) सामर्थ्यैः, युज्यन्ते इति शेषः। [शक्लृ शक्तौ ‘अशिशकिभ्यां छन्दसि’ उ० ४।१४८ इति मनिन्।] ॥८॥

    भावार्थः

    ज्ञानस्य ब्रह्मानन्दस्य वा तरङ्गैः शरीररथं सर्वमपि मनोबुद्धिप्राणेन्द्रियादिकं रोम रोम च तरङ्गायते ॥८॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।७।८, ‘आ मि॒त्रावरु॑णा॒ भगं॒ मध्वः॑ पवन्त ऊ॒र्मयः॑ इति पूर्वार्धपाठः। २. शक्मभिः सुखैः इति सा०। शक्तैः कर्मभिः इति वि०।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The currents of this pleasant soul, move in Prana, Apana and Samana, and a Yogi nicely acquires knowledge through the forces of this soul.

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    Meaning

    Those wise sages of knowledge, whose sweet will and loving emotions abide by divine love and friendship, freedom and justice, and excellence and generosity, live happy and prosperous in a state of vibrancy like waves of sparkling streams, by the love and exhilaration of Soma, spirit of peace and purity. (Rg. 9-7-8)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (शक्मभिः) યમ, નિયમ, આસન, પ્રાણાયામ આદિ, શમ, દમ આદિ અધ્યાત્મ કર્મો દ્વારા (अस्य) એ સોમ-શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્માને (विदानाः) જાણનારા છે, તે ઉપાસકોના (मित्रे) પ્રાણમાં (वरुणे) અપાનમાં (भगे) મસ્તિષ્કસ્થ ઓજમાં (मधोः) મધુમય પરમાત્માના (ऊर्मयः) આનંદ તરંગો-ધારાઓ (आ पवन्ते) સમગ્રરૂપથી પહોંચી જાય છે. વસી જાય છે. (૮)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ज्ञान व ब्रह्मानंदाच्या तरंगांनी शरीरात स्थित सर्व काही मन बुद्धी, प्राण, इंद्रिये इत्यादी व रोम रोम तरंगित होतो. ॥८॥

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