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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1270
    ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    2

    ए꣣ष꣢ रु꣣क्मि꣡भि꣢रीयते वा꣣जी꣢ शु꣣भ्रे꣡भि꣢र꣣ꣳशु꣡भिः꣢ । प꣢तिः꣣ सि꣡न्धू꣢नां꣣ भ꣡व꣢न् ॥१२७०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए꣣षः꣢ । रु꣣क्मि꣡भिः꣣ । ई꣣यते । वाजी꣢ । शु꣣भ्रे꣡भिः꣢ । अ꣣ꣳशु꣡भिः꣢ । प꣡तिः꣢꣯ । सि꣡न्धू꣢꣯नाम् । भ꣡व꣢꣯न् ॥१२७०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एष रुक्मिभिरीयते वाजी शुभ्रेभिरꣳशुभिः । पतिः सिन्धूनां भवन् ॥१२७०॥


    स्वर रहित पद पाठ

    एषः । रुक्मिभिः । ईयते । वाजी । शुभ्रेभिः । अꣳशुभिः । पतिः । सिन्धूनाम् । भवन् ॥१२७०॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1270
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 5
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 10; खण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    अगले मन्त्र में जीवात्मा का वर्णन करते हैं।

    पदार्थ

    वाजी बलवान् (एषः) यह सोम जीवात्मा (सिन्धूनाम्) शरीरस्थ रक्तवाहिनी नाड़ियों का (पतिः) स्वामी (भवन्) होता हुआ (रुक्मिभिः) तेजस्वी (शुभ्रेभिः) स्वच्छ (अंशुभिः) मन, बुद्धि, प्राण, इन्द्रिय आदियों से (ईयते) कार्य करता है ॥५॥

    भावार्थ

    शरीर के अधिष्ठाता जीवात्मा को शरीरथ मन, बुद्धि, आदि तथा बाह्य साधनों को प्रयुक्त करके सदा ही उन्नति करनी चाहिए ॥५॥

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    पदार्थ

    (एषः-वाजी) यह अमृत अन्नभोग वाला सोम परमात्मा (सिन्धूनां पतिः-भवन्) स्यन्दमान—शरीर में बहने वाले प्राणों२ का पालक होता हुआ (रुक्मिभिः शुभ्रेभिः-अंशुभिः) तेजस्वी शुभ्र—शोभन आनन्द प्रवाहों से (ईयते) उपासक के अन्दर प्राप्त होता है॥५॥

    विशेष

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    विषय

    सिन्धुपति का प्रभु दर्शन

    पदार्थ

    (एषः) = यह विषयों से अबद्ध जीव (सिन्धूनाम्-स्यन्दमान) = बहने के स्वभाववाले जलों-वीर्यों [आपो रेतो भूत्वा० ] का (पतिः) = रक्षक (भवन्) = होता हुआ (वाजी) = शक्तिशाली बनकर (रुक्मिभिः) = स्वर्ण के समान देदीप्यमान (शुभ्रेभिः) = उज्ज्वल (अंशुभिः) = ज्ञान की किरणों से (इयते) = प्रभु की ओर जाता है – प्रभु को प्राप्त करता है ।

    मनुष्य के जीवन की मौलिक बात यह है-  १. वह वीर्य की रक्षा करे – सिन्धुओं का पति बने । २. वीर्य-रक्षा का परिणाम यह है कि वह ‘वाजी'– बलवान् बनता है, ३. इसका ज्ञान उज्ज्वल होता है [शुभ्र-अंशु] और ४. यह परमात्मा को प्राप्त करता है ।

    भावार्थ

    मैं सिन्धुपति बनूँ, वाजी होऊँ, उज्ज्वल ज्ञान- किरणों से प्रभु का साक्षात्कार करूँ।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ जीवात्मानं वर्णयति।

    पदार्थः

    (वाजी) बलवान् (एषः) अयं सोमः जीवात्मा (सिन्धूनाम्) देहस्थानां रक्तवहानां नाडीनाम् (पतिः) स्वामी (भवन्) जायमानः सन् (रुक्मिभिः) तेजोमद्भिः। [रोचते इति रुक्मः, रुच दीप्तौ, युजिरुचितिजां कुश्च। उ० १।१४६ इति मक् प्रत्ययः, चकारस्य कुत्वं च।] (शुभ्रेभिः) स्वच्छैः (अंशुभिः) मनोबुद्धिप्राणेन्द्रियादिभिः (ईयते) व्यापारं करोति ॥५॥

    भावार्थः

    देहाधिष्ठात्रा जीवात्मना देहस्थानि मनोबुद्ध्यादीनि बाह्यानि च साधनानि प्रयुज्य सदैवोन्नतिः कार्या ॥५॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।१५।५।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Just as the ocean is full of brilliant, pure waters, so is this powerful soul known as the compendium of knowledge.

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    Meaning

    It pervades every where by its holy brilliance of light and wide creative forces, ruling over the dynamics of the vibrating oceans of space. (Rg. 9-15-5)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (एषः वाजी) એ અમૃત અન્નભોગવાળો પરમાત્મા (सिन्धूनां पतिः भवन्) સ્યંદમાન-શરીરમાં વહનારા પ્રાણોનો પાલક બનીને (रुक्मिभिः शुभ्रेभिः अंशुभिः) તેજસ્વી શુભ્ર-શોભન આનંદ પ્રવાહોથી (ईयते) ઉપાસકની અંદર પ્રાપ્ત થાય છે. (૫)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    शरीराचा अधिष्ठाता असलेल्या जीवात्म्याला शरीरातील मन, बुद्धी इत्यादी व बाह्य साधनांना प्रयुक्त करून सदैव उन्नती करावी. ॥५॥

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