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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1271
    ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    2

    ए꣣ष꣡ शृङ्गा꣢꣯णि꣣ दो꣡धु꣢व꣣च्छि꣡शी꣢ते यू꣣थ्यो꣣꣬३꣱वृ꣡षा꣢ । नृ꣣म्णा꣡ दधा꣢꣯न꣣ ओ꣡ज꣢सा ॥१२७१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए꣣षः꣢ । शृ꣡ङ्गा꣢꣯णि । दो꣡धु꣢꣯वत् । शि꣡शी꣢꣯ते । यू꣣थ्यः꣢ । वृ꣡षा꣢꣯ । नृ꣣म्णा꣢ । द꣡धा꣢꣯नः । ओ꣡ज꣢꣯सा ॥१२७१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एष शृङ्गाणि दोधुवच्छिशीते यूथ्यो३वृषा । नृम्णा दधान ओजसा ॥१२७१॥


    स्वर रहित पद पाठ

    एषः । शृङ्गाणि । दोधुवत् । शिशीते । यूथ्यः । वृषा । नृम्णा । दधानः । ओजसा ॥१२७१॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1271
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 6
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 10; खण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    अगले मन्त्र में साँड का वर्णन करते हुए देहधारी जीवात्मा का वर्णन है

    पदार्थ

    प्रथम—साँड के पक्ष में। (ओजसा) प्रबलता के साथ (नृम्णा) बलों को (दधानः) धारण करता हुआ (एषः) यह (यूथ्यः) गौओं के समूह में रहनेवाला (वृषा) साँड (शृङ्गाणि) सींगों को (दोधुवत्) कँपाता हुआ (शिशीते) पर्वत, खम्भे आदि पर तेज कर रहा है ॥ द्वितीय—मनुष्य के पक्ष में। (ओजसा) बल से (नृम्णा) धन को (दधानः) कमाता हुआ (एषः) यह (यूथ्यः) सामाजिक तथा (वृषा) अन्यों पर सुख की वर्षा करनेवाला मानव (दोधुवत्) दोषों को कँपाता हुआ (शृङ्गाणि) धर्म, अर्थ, काम मोक्ष इन चार पुरुषार्थों का (शिशीते) अभ्यास करता है ॥६॥ यहाँ श्लेष है, प्रथम अर्थ में स्वभावोक्ति अलङ्कार है ॥६॥

    भावार्थ

    जैसे बलवान् साँड स्वभाव के अनुसार सिर को कँपाता हुआ अपने सींगों को पर्वत आदि पर तीक्ष्ण करता है, वैसे ही बलवान् मनुष्य, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को तीक्ष्ण करे ॥६॥

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    पदार्थ

    (एषः) यह परमात्मा (ओजसा) ज्ञानबल से (शृङ्गाणि दोधुवत्) अपनी आनन्द तरङ्गों को उपासक के अन्दर तरङ्गित कर देता है (यूथ्यः-वृषा शिशीते) जैसे गोसमूह का साण्ड अपने सींगों को तीक्ष्ण करता है उन्हें भूमि में धुनकर३ (नृम्णा दधानः) उपासकों के लिये अध्यात्म अन्न४ अमृतभोग को धारण करने के हेतु॥६॥

    विशेष

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    विषय

    ओजस्विता- •उत्साह व धन

    पदार्थ

    (एषः) = यह ' असित' देवल दिव्य गुणों का उपादान करनेवाला बनने के कारण १. (शृंगाणि) = सींगों को [शृ+गन्] हिंसासाधनों को (दोधुवत्) = कम्पित करके अपने से दूर कर देता है । इसके जीवन में किसी प्रकार की हिंसा नहीं होती। इसका जीवन ' अध्वर' बन जाता है । २. (शिशीते) = [शो तनूकरणे] अपनी बुद्धि को तीव्र करता है, ३. (यूथ्य:) = जनसमूह का हित करनेवाला होता है । जनसमूह से अपने को अलग करके अपने ही आनन्द में नहीं विचरता रहता, ४. (वृषा) = शक्तिशाली बनता है और औरों पर सुखों की वर्षा करनेवाला होता है, ५. (ओजसा) = ओजस्विता के साथ (नृम्णा दधानः) = धनों को धारण करनेवाला होता है, अथवा उत्साह को धारण करनेवाला बनता है [नृम्ण=Wealth, Courage] इसके जीवन में उत्साह होता है- उत्साह के लिए ओजस्विता तथा आवश्यक धन इसके पास होता ही है ।

    भावार्थ

    —मैं ओजस्विता, उत्साह व धन को प्राप्त करनेवाला बनूँगा।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ वृषभवर्णनमुखेन देहधारिणं जीवात्मानं वर्णयति।

    पदार्थः

    प्रथमः—वृषभपक्षे। (ओजसा) प्राबल्येन (नृम्णा) नृम्णानि बलानि। [नृम्णमिति बलनाम। निघं० २।९।] (दधानः) धारयन् (एषः) अयम् (यूथ्यः) यूथार्हः (वृषा) वृषभः (शृङ्गाणि) विषाणानि (दोधुवत्) कम्पयन् (शिशीते) पर्वतस्तम्भादौ तीक्ष्णीकरोति ॥ द्वितीयः—मनुष्यपक्षे। (ओजसा) बलेन (नृम्णा) नृम्णानि धनानि। [नृम्णमिति धननाम। निघं० २।१०।] (दधानः) अर्जयन् (एषः) अयम् (यूथ्यः) यूथार्हः, सामाजिकः (वृषा) अन्येषु सुखवर्षको मानवः (दोधुवत्) दोषान् कम्पयन् (शृङ्गाणि) चतुरः पुरुषार्थान् धर्मार्थकाममोक्षरूपान्। [चत्वारि शृङ्गा२ ऋ० ४।५८।३, य० १७।९१ इति वचनात्।] (शिशीते) अभ्यस्यति ॥६॥ अत्र श्लेषः, प्रथमेऽर्थे च स्वभावोक्तिरलङ्कारः ॥६॥

    भावार्थः

    यथा बलवान् वृषभः स्वभावानुसारं शिरः कम्पयन् स्वकीये शृङ्गे पर्वतादौ तीक्ष्णयति तथा बलवान् मानवो धर्मार्थकाममोक्षान् तीक्ष्णयेत् ॥६॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।१५।४। २. चत्वारो वेदा नामाख्यातोपसर्गनिपाता विश्वतैजसप्राज्ञतुरीय- धर्मार्थकाममोक्षाश्चेत्यादीनि शृङ्गाणि—इति ऋ० ४।५८।३ भाष्ये द०।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Just as a bull, roaming in a herd of cows, waves and whets his horns, so does a learned person, with his power of leading men, acquiring riches, attain to the heights of knowledge.

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    Meaning

    This Soul, vibrating on top of the highest bounds of the universe, abides in repose in the world of existence, one with all in the multitudinous world, generous and virile, bearing and ruling the entire wealth and powers of the universe by its power and splendour. (Rg. 9-15-4)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (एषः) એ પરમાત્મા (ओजसा) જ્ઞાનબળથી (श्रृङ्गाणि दोधुवत्) પોતાના આનંદ તરંગોને ઉપાસકની અંદર તરંગિત કરી દે છે. (यूथ्यः वृषा शिशीते) જેમ ગાયના સમૂહ-ધણનો સાંઢ પોતાના શિંગડાઓને ભૂમિમાં ઘસીને તીક્ષ્ણ કરે છે. (नृम्णा दधानः) ઉપાસકોને માટે અધ્યાત્મ અન્ન અમૃતભોગને ધારણ કરવા માટે. [તીક્ષ્ણ બનાવે છે.](૬)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसा बलवान पोळ (सांड) त्याच्या स्वभावानुसार डोके हलवीत आपल्या शिंगांना पर्वत इत्यादीद्वारे घासून तीक्ष्ण करतो, तसेच बलवान मनुष्यांनी धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष यांचा तीव्रतेने अभ्यास करावा. ॥६॥

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