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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1295
ऋषिः - राहूगण आङ्गिरसः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
2
स꣢ त्रि꣣त꣢꣫स्याधि꣣ सा꣡न꣢वि꣣ प꣡व꣢मानो अरोचयत् । जा꣣मि꣢भिः꣣ सू꣡र्य꣢ꣳ स꣣ह꣢ ॥१२९५॥
स्वर सहित पद पाठसः । त्रि꣣त꣡स्य꣢ । अ꣡धि꣢꣯ । सा꣡न꣢꣯वि । प꣡व꣢꣯मानः । अ꣣रोचयत् । जामि꣡भिः꣢ । सू꣡र्य꣢꣯म् । स꣣ह꣢ ॥१२९५॥
स्वर रहित मन्त्र
स त्रितस्याधि सानवि पवमानो अरोचयत् । जामिभिः सूर्यꣳ सह ॥१२९५॥
स्वर रहित पद पाठ
सः । त्रितस्य । अधि । सानवि । पवमानः । अरोचयत् । जामिभिः । सूर्यम् । सह ॥१२९५॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1295
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 7; मन्त्र » 4
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 10; खण्ड » 6; सूक्त » 1; मन्त्र » 4
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 7; मन्त्र » 4
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 10; खण्ड » 6; सूक्त » 1; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
अगले मन्त्र में परमेश्वर का उपकार वर्णित है।
पदार्थ
(सः) उस (पवमानः) क्रियाशील और पवित्रकर्ता परमेश्वर ने (त्रितस्य) तृतीय लोक द्यौ के (सानवि अधि) शिखर पर (जामिभिः सह) बन्धुभूत नक्षत्रों के साथ (सूर्यम्) सूर्य को (अरोचयत्) चमकाया है ॥४॥
भावार्थ
परमेश्वर द्युलोक में सूर्य और तारावलि को चमकाता है और बिना ही आधार के धारण करता है, यह उसका उपकार कौन नहीं मानेगा? ॥४॥
पदार्थ
(सः-पवमानः) वह सोम—परमात्मा (जामिभिः सह) बढ़ती हुई स्तुतियों के द्वारा (त्रितस्य) स्थूल सूक्ष्म कारण शरीरधारी आत्मा के (सानवि-अधि) सम्भजनीय सर्वोच्च साधन अन्तःकरण में उस उपासक आत्मा को (सूर्यम्) ‘सूर्यमिव’ सूर्य की भाँति१ (अरोचयत्) तेजस्वी बना देता है॥४॥
विशेष
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विषय
ज्ञान, कर्म व भक्ति के शिखर पर
पदार्थ
(सः) = वह राहूगण १. (त्रितस्य) = 'ज्ञान, कर्म व भक्ति' के त्रित के (अधिसानवि) = शिखर पर वर्त्तमान होता हुआ २. (पवमानः) = अपने को पवित्र करने के स्वभाववाला होता है। ज्ञान इसके मस्तिष्क को पवित्र करता है तो कर्म इसके हाथों को पवित्र करते हैं और भक्ति से इसका हृदय शुद्ध होता है । ३. इस प्रकार अपना शोधन करता हुआ यह (जामिभिः सह) = विविध विषयों का अदन करनेवाली इन इन्द्रियों के साथ (सूर्यम्) = अपने मुख्य प्राण को (अरोचयत्) = दीप्त करता है। ('प्राणः प्रजानामुदयत्येष सूर्यः') इस प्रश्नोपनिषद् के वाक्य में सूर्य और प्राण में कार्य-कारणभाव दिखाकर सूर्य का प्राण से सम्बन्ध प्रतिपादित किया है। प्राणायाम के द्वारा प्राण-शोधन तो होता ही है, सारी इन्द्रियाँ भी निर्मल हो उठती हैं। (प्राणायामैर्दहेद् दोषान्) - प्राणायाम से इन्द्रियों के दोष जल जाते हैं, और वे चमक उठती हैं।
भावार्थ
मैं प्राण व इन्द्रियों को दीप्त करूँ ।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ परमेश्वरस्योपकारमाह।
पदार्थः
(सः) असौ (पवमानः) क्रियाशीलः पावकश्च परमेश्वरः (त्रितस्य) तृतीयस्य लोकस्य दिवः (सानवि अधि) शिखरे (जामिभिः सह) बन्धुभूतैः नक्षत्रैः सार्धम् (सूर्यम्) आदित्यम् (अरोचयत्) प्रकाशितवान् अस्ति ॥४॥
भावार्थः
परमेश्वरो दिवि सूर्यं तारावलिं च द्योतयति निराधारं धारयति चेति तदुपकारं को न मन्येत ॥४॥
इंग्लिश (2)
Meaning
The All-purifying God, refines with allied function the intellect in the head of an ascetic longing for release from threefold sufferings.
Translator Comment
$ Griffith intercepts Trita as a Rishi. This explanation is unsound as there is no history in the Vedas. The word means an ascetic looking for release from threefold sufferings, i.e., (1) आध्यात्मिक, spiritual, (2) आधिदैविक, elemental, (3) आधिभौतिक physical.
Meaning
Soma, pure, purifying, and all pervasive across and ever on top of the three worlds of space and three dimensions of time, shines with the sun and other kindred luminaries. (Rg. 9-37-4)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (सः पवमानः) તે સોમ-પરમાત્મા (जामिभिः सह) વૃદ્ધિ પામતી સ્તુતિઓ દ્વારા (त्रितस्य) સ્થૂલ, સૂક્ષ્મ, કારણ શરીરધારી આત્માનાં (सानवि अधि) સંભજનીય સર્વોચ્ચ સાધન અન્તઃકરણમાં તે ઉપાસક આત્માને (सूर्यम्) સૂર્યની સમાન (अरोचयत्) તેજસ્વી બનાવી દે છે. પ્રકાશિત કરે છે. (૪)
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वर द्युलोकात सूर्य व तारे प्रकाशित करतो व आधाराशिवाय त्यांना धारण करतो. हा त्याचा उपकार कोण मानणार नाही? ॥४॥
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