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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1395
ऋषिः - ऊर्ध्वसद्मा आङ्गिरसः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - काकुभः प्रगाथः (विषमा ककुप्, समा सतोबृहती)
स्वरः - पञ्चमः
काण्ड नाम -
3
स꣣ह꣡स्र꣢धारं वृष꣣भं꣡ प꣢यो꣣दु꣡हं꣢ प्रि꣣यं꣢ दे꣣वा꣢य꣣ ज꣡न्म꣢ने । ऋ꣣ते꣢न꣣ य꣢ ऋ꣣त꣡जा꣢तो विवावृ꣣धे꣡ राजा꣢꣯ दे꣣व꣢ ऋ꣣तं꣢ बृ꣣ह꣢त् ॥१३९५॥
स्वर सहित पद पाठस꣣ह꣡स्र꣢धारम् । स꣣ह꣡स्र꣢ । धा꣣रम् । वृषभ꣢म् । प꣣योदु꣡ह꣢म् । प꣣यः । दु꣡ह꣢꣯म् । प्रि꣣य꣢म् । दे꣣वा꣡य꣢ । ज꣡न्म꣢꣯ने । ऋ꣣ते꣡न꣢ । यः । ऋ꣣त꣡जा꣢तः । ऋ꣣त꣢ । जा꣣तः । विवावृधे꣢ । वि꣣ । वावृधे꣢ । रा꣡जा꣢꣯ । दे꣣वः꣢ । ऋ꣣त꣢म् । बृ꣡ह꣢त् ॥१३९५॥
स्वर रहित मन्त्र
सहस्रधारं वृषभं पयोदुहं प्रियं देवाय जन्मने । ऋतेन य ऋतजातो विवावृधे राजा देव ऋतं बृहत् ॥१३९५॥
स्वर रहित पद पाठ
सहस्रधारम् । सहस्र । धारम् । वृषभम् । पयोदुहम् । पयः । दुहम् । प्रियम् । देवाय । जन्मने । ऋतेन । यः । ऋतजातः । ऋत । जातः । विवावृधे । वि । वावृधे । राजा । देवः । ऋतम् । बृहत् ॥१३९५॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1395
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 6; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 12; खण्ड » 2; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 6; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 12; खण्ड » 2; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
अगले मन्त्र में फिर ब्रह्मानन्द का विषय है।
पदार्थ
(ऋतजातः) सत्य में प्रसिद्ध (यः) जो सोम जगदीश्वर (ऋतेन) सत्य द्वारा (वि वावृधे) विशेषरूप से महिमा में बढ़ रहा है और जो (राजा) विश्व का सम्राट्, (देवः) प्रकाशक, (ऋतम्) सत्यस्वरूप तथा (बृहत्) महान् है, उस (सहस्रधारम्) सहस्र धाराओंवाले, (वृषभम्) मनोरथ पूर्ण करनेवाले, (पयोदुहम्) आनन्दरूप दूध को दुहनेवाले (प्रियम्) तृप्तिप्रदाता जगदीश्वर को (देवाय जन्मने) दिव्य जन्म पाने के लिए (आसोत) दुहो अर्थात् उससे आनन्दरस प्राप्त करो और उसे (परिसिञ्चत) चारों ओर सींचो। यहाँ ‘आसोत, परिसिञ्चित’ पद पूर्वमन्त्र से लाये गये हैं ॥२॥
भावार्थ
आनन्दरस के भण्डार परमात्मा से आनन्द-रस परिस्रुत करके मनुष्यों को अपना आत्मा पवित्र करना चाहिए ॥२॥ इस खण्ड में जीवात्मा, परमात्मा और ब्रह्मानन्द-रस का वर्णन होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति है ॥ बारहवें अध्याय में द्वितीय खण्ड समाप्त ॥
पदार्थ
(सहस्रधारम्) बहुत ज्ञानवाणियों९ वाले (वृषभम्) कामनावर्षक (पयोदुहम्) आनन्दरस दोहने वाले—(प्रियम्) प्रीति करने वाले—शान्तस्वरूप परमात्मा को (देवाय जन्मने) देवजन्म—मुक्त जीवन बनने के लिये उपासित करता हूँ (यः) जो (ऋतेन-ऋतजातः) अपने सत्यस्वरूप से प्रसिद्ध सत्यजात है—सत्य का जन्मदाता (ऋतं बृहत्-राजा) महान् सत्य स्वामी राजमान है (देवः) द्योतमान (विवावृधे) गुण शक्तियों से बढ़ा-चढ़ा है, वही उपासनीय है॥२॥
विशेष
ऋषिः—ऊर्ध्वसद्मा (ऊँचे स्थान वाला)॥<br>
विषय
द्युलोक में जन्म लेनेवाला
पदार्थ
मनुष्य पुण्यकर्मों से उच्च लोकों में जन्म लेता है और पापकर्मों से अधोलोकों में। पुण्यकर्मा व्यक्ति ऊर्ध्वसमा=उत्कृष्ट लोकों में घरवाला बनता है । हीनाकर्षण से ऊपर उठा होने के कारण यह ‘आङ्गिरस'=शक्तिशाली बना रहता है । वह कहता है कि – 'उस प्रभु का स्तवन करो' [परिषिञ्चत] यः = जो
१. (सहस्रधारम्) = हज़ारों प्रकार से हमारा धारण करनेवाला है। २. (वृषभम्) = हमारी सब आवश्यक वस्तुओं की हमपर वर्षा करनेवाला है- सर्वशक्तिमान् है। ३. (पयोदुहम्) = ज्ञानरूप दुग्ध का दोहन करनेवाला है। ४. (प्रियम्) = हमें तृप्त करनेवाला है- जिसके स्मरण से निर्वृति का अनुभव होता है ५. (ऋतजातः) = जो सत्य का उत्पत्ति स्थान है । ६. (ऋतेन विवावृधे) = जो ऋत के द्वारा ही हममें बढ़ता है—अर्थात् जितना जितना मैं सत्य को अपनाता चलता हूँ उतना-उतना ही प्रभु का प्रकाश मुझमें अधिकाधिक होता जाता है । ७. (राजा) = देदीप्यमान है तथा सारे ब्रह्माण्ड का नियामक है । ८. (देव:) = सब दिव्यताओं का पुञ्ज है । ९. (ऋतम्) = सत्यस्वरूप है । १०. (बृहत्) = सदा वृद्ध है - बढ़ा हुआ है [वर्धमानं स्वे दमे ] ।
इस प्रभु का स्तवन हम इसलिए करें कि देवाय जन्मने-हमें देवलोक में जन्म मिले, पवित्र व सम्पन्न घरों में हम जन्म लें । प्रभु-स्तुति का अन्तिम परिणाम तो मोक्ष प्राप्ति ही है— परन्तु उस मार्ग पर चलने से हम लक्ष्य पर नहीं भी पहुँचते तो उत्कृष्ट लोकों में तो जन्म होता ही है ।
भावार्थ
हम प्रभु-स्तवन करें, जिससे हमारा जन्म उत्कृष्ट लोकों में हो।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ पुनरपि ब्रह्मानन्दविषयमाह।
पदार्थः
(ऋतजातः) सत्ये प्रसिद्धः (यः) सोमो जगदीश्वरः (ऋतेन)सत्येन (वि वावृधे) विशेषेण महिम्ना वर्द्धते, यश्च (राजा)विश्वसम्राट्, (देवः) प्रकाशकः, (ऋतम्) सत्यस्वरूपः, (बृहत्) महांश्च वर्तते, तम् (सहस्रधारम्) सहस्रधारमयम्, (वृषभम्) कामवर्षकम्, (पयोदुहम्) आनन्दरूपस्य पयसः प्रदातारम् (प्रियम्) तृप्तिप्रदं जगदीश्वरम् (देवाय जन्मने) दिव्यजन्मप्राप्तये (आ सोत) आनन्दरसं स्रावयत(परिसिञ्चत) परिवर्षत चेति पूर्वेण सम्बन्धः ॥२॥
भावार्थः
आनन्दरसागारात् परमात्मन आनन्दरसं परिस्राव्य मानवैः स्वात्मा पावनीयः ॥२॥ अस्मिन् खण्डे जीवात्मनः परमात्मनो ब्रह्मानन्दरसस्य च वर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन संगतिरस्ति ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Visualise in the soul, God, the highest Goal, the Friend of all, the Grantor of invigorating happiness, the Showerer of joy, the Master of myriad powers. The soul, the lord of all the organs of senses m the body, refined through penance, develops through knowledge. It is divine, true in essence, and mighty.
Meaning
For the rise of the self to the state of divine refulgence, let us serve and adore Soma, divine spirit of a thousand streams and showers, potent and generous, creator of the milk of life by universal law, dear as father and friend, who, manifestive in the laws of universal existence, pervades the expansive creativity of divine power and is the self-refulgent ruler, generous divinity and the infinite law, truth and ultimate reality it self. (Rg. 9-108-8)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (सहस्रधारम्) બહુજ જ્ઞાનવાણીઓવાળા (वृषभम्) કામનાવર્ષક-મનોરથોને સફળ કરનાર, (पयोदुहम्) આનંદરસનું દોહન કરનાર, (प्रियम्) પ્રીતિ કરનાર-શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્માને (देवाय जन्मने) દેવજન્મ મુક્ત જીવન બનવા માટે ઉપાસિત કરું છું. (यः) જે (ऋतेन ऋतजातः) પોતાના સત્યસ્વરૂપથી પ્રસિદ્ધ સત્યજાત છે-સત્યનો જન્મદાતા (ऋतं बृहत् राजा) મહાન સત્ય સ્વામી રાજમાન છે. (देवः) પ્રકાશમાન (विवावृधे) ગુણ શક્તિઓથી વધારે છે, તે જ ઉપાસનીય છે. (૨)
मराठी (1)
भावार्थ
आनंदरसाचे भांडार परमात्म्याकडून आनंदरस स्रवित करून माणसांनी आपला आत्मा पवित्र केला पाहिजे. ॥२॥
टिप्पणी
या खंडात जीवात्मा, परमात्मा व ब्रह्मानंद रसाचे वर्णन असल्यामुळे या खंडाची पूर्व खंडाबरोबर संगती आहे
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