Sidebar
सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 96
ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः
देवता - अग्निः
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
2
त्व꣡म꣢ग्ने꣣ व꣡सू꣢ꣳरि꣣ह꣢ रु꣣द्रा꣡ꣳ आ꣢दि꣣त्या꣢ꣳ उ꣣त꣢ । य꣡जा꣢ स्वध्व꣣रं꣢꣫ जनं꣣ म꣡नु꣢जातं घृत꣣प्रु꣡ष꣢म् ॥९६॥
स्वर सहित पद पाठत्व꣢म् । अ꣣ग्ने । व꣡सू꣢꣯न् । इ꣣ह꣢ । रु꣣द्रा꣢न् । आ꣣दित्या꣢न् । आ꣣ । दित्या꣢न् । उ꣣त꣢ । य꣡ज꣢꣯ । स्व꣣ध्वर꣢म् । सु꣣ । अध्वर꣢म् । ज꣡न꣢꣯म् । म꣡नु꣢꣯जातम् । म꣡नु꣢꣯ । जा꣣तम् । घृ꣣तप्रु꣡ष꣢म् । घृ꣣त । प्रु꣡ष꣢꣯म् ॥९६॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वमग्ने वसूꣳरिह रुद्राꣳ आदित्याꣳ उत । यजा स्वध्वरं जनं मनुजातं घृतप्रुषम् ॥९६॥
स्वर रहित पद पाठ
त्वम् । अग्ने । वसून् । इह । रुद्रान् । आदित्यान् । आ । दित्यान् । उत । यज । स्वध्वरम् । सु । अध्वरम् । जनम् । मनुजातम् । मनु । जातम् । घृतप्रुषम् । घृत । प्रुषम् ॥९६॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 96
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 5; मन्त्र » 6
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 10;
Acknowledgment
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 5; मन्त्र » 6
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 10;
Acknowledgment
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में राष्ट्रवासी जन परमात्मा से प्रार्थना कर रहे हैं।
पदार्थ
हे (अग्ने) परमात्मन् ! (त्वम्) जगदीश्वर आप (इह) हमारे इस राष्ट्र में (वसून्) धन-धान्य आदि सम्पत्ति से अन्य वर्णों को बसानेवाले उत्कृष्ट वैश्यों को, (रुद्रान्) शत्रुओं को रुलानेवाले वीर क्षत्रियों को, (आदित्यान्) प्रकाशित सूर्यकिरणों के समान विद्याप्रकाश से युक्त ब्राह्मणों को, (उत) और (स्वध्वरम्) शुभ यज्ञ करनेवाले, (मनुजातम्) मनुष्य-समाज के कल्याणार्थ जन्म लेनेवाले, (घृतप्रुषम्) यज्ञाग्नि में अथवा सत्पात्रों में घृत आदि को सींचनेवाले (जनम्) पुत्र को (यज) प्रदान कीजिए ॥६॥ अब वसुओं, रुद्रों और आदित्यों के उपर्युक्त अर्थ करने में प्रमाण लिखते हैं। वसवः से वैश्यजन गृहीत होते हैं, क्योंकि यजुर्वेद ८।१८ में वसुओं से धन की याचना की गयी है। रुद्रों से क्षत्रिय अभिप्रेत हैं, क्योंकि रुद्रों का वर्णन वेदों में इस रूप में मिलता है—हे रुद्र, तेरी सेनाएँ हमसे भिन्न हमारे शत्रु को विनष्ट करें (ऋ० २।३३।११); उस रुद्र के सम्मुख अपनी वाणियों को प्रेरित करो, जिसके पास स्थिर धनुष् है, वेगगामी बाण हैं, जो स्वयं आत्म-रक्षा करने में समर्थ है, किसी से पराजित नहीं होता, शत्रुओं का पराजेता है और तीव्र शस्त्रास्त्रों से युक्त है’ (ऋ० ७।४६।१)। आदित्यों से ब्राह्मण ग्राह्य हैं, क्योंकि तै० संहिता में कहा है कि ब्राह्मण ही आदित्य हैं (तै० सं० १।१।९।८) ॥६॥
भावार्थ
हे जगत्-साम्राज्य के संचालक, देवाधिदेव, परमपिता परमेश्वर ! ऐसी कृपा करो कि हमारे राष्ट्र में धन-दान से सब वर्णाश्रमों का पालन करनेवाले उत्तम कोटि के वैश्य, युद्धों में शत्रुओं को जीतनेवाले वीर क्षत्रिय और आदित्य के समान ज्ञान-प्रकाश से पूर्ण विद्वद्वर ब्राह्मण उत्पन्न हों और सब लोग तरह-तरह के परोपकार-रूप यज्ञों का अनुष्ठान करनेवाली, मानवसमाज का कल्याण करनेवाली, अग्निहोत्र-परायण, अतिथियों का घृतादि से सत्कार करनेवाली सुयोग्य सन्तान को प्राप्त करें ॥६॥ इस दशति में सोम, अग्नि, वरुण, विष्णु आदि विविध नामों से परमेश्वर का स्मरण होने से, परमेश्वर के आश्रय से अंगिरस योगियों की उत्कर्ष-प्राप्ति का वर्णन होने से, परमेश्वर के गुणों का वर्णन करते हुए उससे राक्षसों के संहार तथा राष्ट्रोत्थान के लिए प्रार्थना करने से इस दशति के विषय की पूर्व दशति के विषय के साथ संगति है। प्रथम प्रपाठक में द्वितीय अर्ध की पाँचवीं दशति समाप्त। यह प्रथम प्रपाठक समाप्त हुआ ॥ प्रथम अध्याय में दशम खण्ड समाप्त ॥
पदार्थ
(अग्ने) हे प्रकाशक तेजस्वी अग्रणेता परमात्मन्! (त्वम्) तू (स्वध्वरं घृतप्रुषं मनुजातं जनं प्रति) शोभन अध्यात्म यज्ञकर्ता रेतः—वीर्य से पूरण हुए—ब्रह्मचर्यसम्पन्न—संयमी “रेतो वै घृतम्” [श॰ ९.२.३.४४] “प्रुष स्नेहनसेवनपूरणेषु” [चुरादि॰] देव—दिव्यगुण युक्त विद्वान् “ये देवा मनुजाताः” [पै॰ १.२.३] एवं उपासकजन के प्रति (वसून् रुद्रान्-आदित्यान्-उत) वसुनामक वसाने वाले—जीवन देने वाले प्राणों को “प्राणा वै वसवः प्राणा हीदं सर्वं वस्वाददते” [जै॰ उ॰ ४.२.१.३] रुद्रनामक रुलाते हुए प्राणों को “प्राणा वै रुद्राः प्राणा हीदं सर्वं रोदयन्ति” [जै॰ उ॰ ४.२.१.६] आदित्य नामक रस के आदान करने वाले प्राणों को “प्राणा वा आदित्याः प्राणा हीदं सर्वमाददते” [जै॰ उ॰ ४.२.१.९] (यज) सङ्गमनीय—श्रेष्ठ—उपयुक्त बना—बनाता है।
भावार्थ
सद्गुणयुक्त ब्रह्मचर्यसम्पन्न संयमी अध्यात्म यज्ञ के कर्ता उपासक को जीवन धारण कराने वाले प्राणों को, दोषशोधक प्राणों को और आहार ग्रहण कराने वाले प्राणों को परमात्मा उपयुक्त बना देता है॥६॥
टिप्पणी
[*12. “प्रस्कण्वः कण्वस्य पुत्रः” [निरु॰ ३.१७]।]
विशेष
ऋषिः—प्रस्कण्वः (कण्व—मेधावी का पुत्र—अत्यन्त मेधावी*12)॥<br>
विषय
प्रभु का निवास किन सात में?
पदार्थ
हे (अग्ने)=आगे ले-चलनेवाले प्रभो ! (त्वम्) - आप (इह) इस मानव-जीवन में यज करते हो। किनके साथ?
१. (वसून्)=वसुओं के साथ, जो लोगों को बसाते हैं। निराश्रय को आश्रय देना, भूखे को रोटी और बेकार को काम देना है तो वह उसे बसाना है। बसाने के कारण वह 'वसु' कहलाता है और प्रभु के सङ्ग के योग्य बनता है।
२. (रुद्रान्)=[रुत्=शब्द, ज्ञान; रा= देना] ज्ञान देनेवाला 'रुद्र' कहलाता है। स्वयं ज्ञान प्राप्त करके उस ज्ञान को औरों को देने के लिए प्रयत्नशील है, वह 'रुद्र' है। ये रुद्र उस महान् रुद्र के साथी बनते हैं, जो सम्पूर्ण ज्ञान का स्रोत है।
३. (उत)= और (आदित्यान्)=आदित्यों को भी प्राप्त होते हैं। सूर्य आदित्य कहलाता है, क्योंकि वह कीचड़ में से, खारे समुद्र में से और दुर्गन्धित जोहड़ों में से भी निरन्तर शुद्ध जल का आदान कर रहा है। इसी प्रकार जो प्रत्येक व्यक्ति से गुणों का ही ग्रहण करता है, वह आदित्य कहलाता है और प्रभु का प्रेमपात्र बनता है।
४. (स्वध्वरम्) = [सु अध्वरम्] = उत्तम हिंसाहित जीवनवाले को प्रभु प्राप्त होते हैं। जो मन में द्वेष नहीं करता, सूनृत- मधुर वाणी का प्रयोग करता है और हिंसा से दूर रहता है वह 'स्वध्वर' कहलाता है और प्रभु उससे स्नेह करते हैं।
५. (जनम्)=जो जनयति उत्पन्न करता है, निर्माणात्मक कार्य करता है न कि ध्वंसात्मक, उस 'जन' को प्रभु मिलते हैं।
६. (मनुजातम्) = जातो मनुर्यस्मिन्- जिसमें ज्ञान उत्पन्न हुआ है, उसे प्रभु मिलते हैं। जो व्यक्ति अपने में ज्ञानाग्नि को दीप्त करता है, वह प्रभु का सङ्ग करता है।
७. (घृतप्रुषम्) = घृत शब्द घृ धातु से बना है। इसके दो अर्थ हैं- क्षरण तथा दीप्ति। प्रुष के भी दो अर्थ हैं- जला देना [to burn] तथा उँडेलना= छिड़कना [to pour out, sprinkle] जो व्यक्ति ज्ञानाग्नि द्वारा दोषों को जला डालता है वह 'घृतपुष' है। यह घृतप्रुष प्रभु को अत्यन्त प्रिय होता है।
इस प्रकार एक-एक करके, कण-कण करके उल्लिखित गुणों का अपने में संग्रह करनेवाला ‘प्रस्कण्व' इस मन्त्र का ऋषि है।
भावार्थ
हम अपने को प्रभु का निवास स्थान बनाने के लिए अपने में उपर्युक्त गुणों का संग्रह करने में प्रयत्नशील हों ।
विषय
परमेश्वर की स्तुति
भावार्थ
भा० = हे ( अग्ने ) = प्रभो ! तू ( इह ) = इस संसार में ( वसून् ) = सृष्टि को वसाने वाले और जीवन के मूलकारण पृथिवी आदि आठों वसुओं को ( रुद्रान् ) = दुष्टों को रुलाने वाले, या मूढों को अन्तकाल में दुखदायी, ११ रुद्रों , प्राणों को और आदान-विसर्ग का कार्य करनेवाले १२ आदित्यों मासों को और ( मनुजाते ) = अपने मनन सामर्थ्य से उन्नतरूप में प्रकट हुए ( घृतप्रुषम्१ ) = ज्ञान और कर्म से भरपूर या तेज से पूर्ण, या ज्ञान के प्रसारक ( स्वध्वरं जनं ) = सब के रक्षक, अहिंसक, मनुष्य को ( यज ) = अपनी संगति में रख ।
मनुष्य सब प्राणियों से इसी बात में उन्नत है कि वह १. 'मनुजात' मननशक्ति से बना हुआ २.'घृतप्रुषम्' अपना तेज दूसरों पर फैलाने वाला, ३. 'स्वध्वरं' किसी प्राणी की प्राणाहिंसा न करने वाला हो । इन तीन गुणों के कारण वह परमात्मा के संग का लाभ करता है और देवतुल्य हो जाता है ।
टिप्पणी
९६–वृ क्षरणदीप्त्योः । जुहोत्यादिः । घृतप्रुषम् तेजःप्रसारकम् । मा० वि० ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - प्रस्कण्वः ।
छन्दः - अनुष्टुप् ।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ राष्ट्रवासिनः परमात्माग्निं प्रार्थयन्ते।
पदार्थः
हे (अग्ने) परमात्मन् ! (त्वम्) जगदीश्वरः (इह) अस्माकं राष्ट्रे (वसून्) वासयन्ति धनधान्यादिसम्पत्त्या इतरान् वर्णान् इति वसवः तान् उत्कृष्टवैश्यान्, (रुद्रान्) रोदयन्ति शत्रून् इति रुद्राः वीरक्षत्रियाः तान्, (आदित्यान्) प्रकाशितसूर्यकिरणवद् विद्याप्रकाशयुक्तान् ब्राह्मणान्, (उत) अपि च (स्वध्वरम्) शोभनयज्ञम्। अत्र नञ्सुभ्याम्। अ० ६।२।११९ इत्युत्तरपदस्यान्तोदात्तत्वम्। (मनुजातम्) मनवे मनुष्यसमाजाय तत्कल्याणायेति यावत् जातं गृहीतजन्मानम्। अत्र मन्यतेः स्वृ० उ० १।१० इति उः प्रत्ययः, निच्च। तस्य नित्त्वान्मनुशब्द आद्युदात्तः। समासे च तस्य चतुर्थ्यन्तत्वात् क्ते च, अ० ६।२।४५ इति पूर्वपदस्य प्रकृतिस्वरः। (घृतप्रुषम्) घृतम् आज्यादिकं प्रुष्णाति अग्नौ सिञ्चति सत्पात्रेषु वा वर्षतीति तम् (जनम्) पुत्रं (यज) प्रदेहि। यजतिरत्र देवपूजासङ्गतिकरणदानेष्विति पाठाद् दानार्थः। संहितायां द्व्यचोऽतस्तिङः अ० ६।३।१३५ इति दीर्घः। वसूँ, रुद्राँ, आदित्याँ इति सर्वत्र दीर्घादटि समानपादे। अ० ८।३।९ इति नकारस्य रुत्वम्, आतोऽटि नित्यम्। अ० ८।३।३ इति पूर्वस्यानुनासिकः। अथ वसुरुद्रादित्यानाम् उक्तार्थेषु प्रमाणम्। वसवो वैश्याः, अ॒स्मे ध॑त्त वसवो॒ वसू॑नि॒। य० ८।१८ इति तत्सकाशाद् वसुप्रार्थनात्। रुद्राः क्षत्रियाः, अ॒न्यं ते॑ अ॒स्मन्निव॑पन्तु सेनाः॑। ऋ० २।३३।११, इमा रु॒द्राय॑ स्थि॒रध॑न्वने॒ गिरः क्षि॒प्रेष॑वे दे॒वाय॑ स्व॒धाव्ने॑। अषा॑ळहाय॒ सह॑मानाय वे॒धसे॑ ति॒ग्मायु॑धाय भरता शृ॒णोतु॑ नः ॥ ऋ० ७।४६।१ इत्यादिरूपेण तेषां सेनानीत्वधनुर्धरत्वादिवर्णनात्। आदित्याः ब्राह्मणाः, एते खलु वादित्या यद् ब्राह्मणाः। तै० सं० १।१।९।८ इति प्रामाण्यात् ॥६॥२
भावार्थः
हे जगत्साम्राज्यसञ्चालक देवाधिदेव परमपितः परमेश्वर ! ईदृशीं कृपां कुरु यदस्माकं राष्ट्रे धनदानेन सर्वान् वर्णाश्रमान् पालयन्तः सद्वैश्याः, युद्धेषु शत्रून् विजेतारो वीराः क्षत्रियाः, आदित्यवज्ज्ञानप्रकाशेन पूर्णा विपश्चिद्वरा ब्राह्मणाश्च स्युः। सर्वे च विविधानां परोपकारयज्ञानामनुष्ठातारं, मानवसमाजस्य कल्याण- कर्तारम्, अग्निहोत्रिणम्, अतिथीनां घृतादिना सत्कर्तारं च सुयोग्यं सन्तानं प्राप्नुयुः ॥६॥ अत्र सोमाग्निवरुणविष्णुप्रभृतिर्विविधनामभिः परमेश्वरस्य स्मरणात्, तदाश्रयेण योगिनामङ्गिरसामुत्कर्षप्राप्तिवर्णनात्, परमेश्वरगुणवर्णन- पुरस्सरं राक्षससंहारार्थं राष्ट्रोत्थानार्थं च प्रार्थनाकरणादेतद्दशत्यर्थस्य पूर्वदशत्यर्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम्। इति प्रथमे प्रपाठके द्वितीयार्धे पञ्चमी दशतिः। समाप्तश्चायं प्रथमः प्रपाठकः ॥ इति प्रथमेऽध्याये दशमः खण्डः ॥
टिप्पणीः
१. ऋ० १।४५।१, देवता अग्निर्देवाश्च। २. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिणा मन्त्रोऽयं विद्वत्पक्षे व्याख्यातः। तत्र अग्निशब्देन विद्युद्वद् वर्तमानो विद्वान्, वसुशब्देन कृतचतुर्विंशतिवर्षब्रह्मचर्याः पण्डिताः, रुद्रशब्देन आचरितचतुश्चत्वारिंशद्वर्षब्रह्मचर्या महाबला विद्वांसः, आदित्यशब्देन च समाचरिताष्टचत्वारिंशत्संवत्सरब्रह्मचर्याखण्डितव्रता महाविद्वांसो गृहीताः।
इंग्लिश (2)
Meaning
O God, let Vasus, Rudras, Adityas, reflective souls, men replete with knowledge and action, and benefactors of humanity be Thy companions.
Translator Comment
Vasus: Persons who observe celibacy for 24 years. Rudras: Persons who observe celibacy for 36 years. Adityas: Persons who observe celibacy for 48 years. Out of the 33 devatas, forces of nature, there are 8 Vasus, 11 Rudras and 12 Adityas, the months, besides Indra, (Lightning) and Prajapati (Yajna). These forces of nature are also the companions of God.
Meaning
Agni, lord of light and knowledge, sagely scholar of wisdom and piety, bring together into this yajna of love and non-violence the people, children of reflective humanity, who sprinkle the vedi with holy water and offer ghee into the fire. Bring together the celibate scholars of twenty four, thirty six and forty eight years discipline and perform yajna in honour of the Vasus, eight abodes of life in nature, Rudras, eleven vitalities of life, and Adityas, twelve phases of the yearly round of the sun. (Rg. 1-45-1)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (अग्ने) હે પ્રકાશક , તેજસ્વી , અગ્રણેતા પરમાત્મન્ ! (त्वम्) તું (स्वध्वरं धृतप्नुषं मनुजातं जनं प्रति) સુંદર અધ્યાત્મ યજ્ઞ કરતા રેતઃ - વીર્યથી પરિપૂર્ણ - બ્રહ્મચર્ય સંપન્ન સંયમી દેવ-દિવ્યગુણયુક્ત વિદ્વાન તથા ઉપાસક જન પ્રત્યે (वसून् रुद्रान् आदित्यान् उत) વસુનામક વસાવનાર - જીવન આપનાર પ્રાણોને , રુદ્રનામક રડાવનાર પ્રાણોને , આદિત્યનામક રસનું આદાન કરનારા પ્રાણોને (यज) સંગમનીય - શ્રેષ્ઠ - ઉપયુક્ત બનાવ - બનાવે છે. (૬)
भावार्थ
ભાવાર્થ : સદ્ગુણયુક્ત , બ્રહ્મચર્ય સંપન્ન , સંયની અધ્યાત્મયજ્ઞના કર્તા ઉપાસકનું જીવન ધારણ કરાવનાર પ્રાણોને , દોષ શોધક પ્રાણોને તથા આહાર ગ્રહણ કરાવનાર પ્રાણોને પરમાત્મા ઉપયુક્ત બનાવી દે છે. (૬)
उर्दू (1)
Mazmoon
برہم چریہ یگیہ کی رکھشا کیجئے!
Lafzi Maana
ہے اگنے! (تومّ) آپ (اِیہہ) اِس سنسار میں (وسُون) 24 ورشوں تک برہمچریہ کا برت دھارن کرنے والوں کو (رُدران) 36 ورشوں تک کے برہم چاریوں کو (اُت) اور (آدتیان) 48 ورش تک برہم چریہ کا برت پالن کرنے والوں کو اُن کے اس برہم چریہ یگیہ کو (یج) سپھل کرو، سِدھ کرو اور (سَوَدھ ورم) ہنسا رہت شریشٹھ یگیوں کے کرنے والے (گھِرت پروُشم) اور ہون کی اگنی میں شردھا پُورن گھرت آہوُتیاں دینے والے (منوجاتم جنم) منش ماتا پتا سے جنم پائے ہوئے ہر ایک سجن پُرش کی اُس کے رچائے یگیوں کی رکھشا کیجئے۔
Tashree
برہم چریہ کے مہا یگیہ کی سِدّھی کر دو ہے بھگوان،
جس سے وِیر تیجسوی بن کر سب جگ کا کر دیں کلیان۔
Khaas
(دسواں کھنڈ ختم ہوا)
मराठी (2)
भावार्थ
हे जगाच्या साम्राज्याचे संचालक, देवाधिदेव, परम पिता परमेश्वरा! आमच्यावर अशी कृपा कर, की आमच्या राष्ट्रात धन-दानाने सर्व वर्णाश्रमाचे पालन करणारे उत्तम कोटीचे वैश्य, युद्धात शत्रूंना जिंकणारे वीर क्षत्रिय व आदित्याप्रमाणे ज्ञानप्रकाशाने पूर्ण विद्वान ब्राह्मण उत्पन्न व्हावेत व सर्व लोक भिन्न भिन्न प्रकारचे परोपकाररूपी यज्ञांचे अनुष्ठान करणारे, मानवसमाजाचे कल्याण करणारे, अग्निहोत्र- परायण, अतिथींचा घृत इत्यादीद्वारे सत्कार करणारे व सुयोग्य संतान प्राप्त व्हावे. ॥६॥ या दशतिद्वारे सोम, अग्नी, वरुण, विष्णू इत्यादी विविध नावांनी परमेश्वराचे स्मरण असल्यामुळे परमेश्वराच्या आश्रयाने अंगिरस योग्यांच्या उत्कर्ष प्राप्तीचे वर्णन करत त्याच्याकडून राक्षसांचा संहार व राष्ट्रोत्थानासाठी प्रार्थना केल्यामुळे या दशतिच्या विषयाची पूर्व दशतिच्या विषयाबरोबर संगती आहे.
विषय
आता राष्ट्रवासी परमात्मरूप अग्नीला प्रार्थना करीत आहेत -
शब्दार्थ
हे (अग्ने) परमात्मन्, (त्वम्) आपण (तुम्ही) (इह) आमच्या या राष्ट्रात (वसून्) धन- धान्य आदी संपत्तीद्वारे अन्य (ब्राह्मण, क्षत्रिय, शूद्र) वर्णांना सुखी करणाऱ्या उत्कृष्ट वैश्यजनांना (उत्पन्न करा) तसेच (रुद्रान्) शत्रूनां रडविणारे वीर क्षत्रिय (आदित्यान्) प्रकाशमान सूर्यकिरणाप्रमाणे आपल्या विद्या प्रकाशाने समृद्ध असे ब्राह्मण (उव) आणि (स्वध्वरम्) शुभ यज्ञ करणारे याज्ञिक जन (आम्हाला द्या) (मनुजातम्) मनुष्य - समाजाच्या कल्याणासाठी जन्म घेणारे उपकारी लोक आणि (घृत प्रुषम्) यज्ञामीत अथवा सत्मात्रात घृत आदी पदार्थांचे सिंचन करणारे (जनम्) पुत्र (आमच्या राया राष्ट्रात) (यज) उत्पन्न होऊ द्या।। ६।।
भावार्थ
हे जगाचे संचालक, हे देवाधिदेव परमपिता परमेश्वर, अशी कृपा करू की आमच्या राष्ट्रात धन - दान करून सर्व वर्ण आश्रमांचे पालन करणारे उत्तम वैश्य जन आणि युद्धात शत्रुजेता वीर क्षत्रिय (यांच्या घरी सुयोग्य संताने जन्मावीत) तसेच आदित्यवत् ज्ञान प्रकाशाने परिपूर्ण असे विद्वतर ब्राह्मण उत्पन्न होतील आणि (हे प्रभो, असे करा की ज्यायोगे राज्यात विविध प्रकारचे परोपकार आदी यज्ञ करणारी मानव समाजाचे कल्याण करणारी, अग्निहोत्र परायण, अतिथींचा घृतादीद्वारे सत्कार करणारी सुसंताने सर्व लोकांना प्राप्त होतील.।। ६।। या दशतीमध्ये सोम, अग्नी, वुरण, विष्णु आदी विविध नावाने परमेश्वराचे स्मरण केले आहे तसेच परमेश्वराच्या आश्रयाने अंगिरस योगीजन कसा उर्त्क साधतात याचे वर्णन आणि परमेश्वराच्या गुणांचे वर्णन करीत त्याद्वारे राक्षस - संहार व राष्ट्रोन्नतीसाठी प्रार्थना केली आहे. यामुळे या दशतीच्या विषयांची संगती यापूर्वीच्या दशतीच्या विषयांशी आहे, असे जाणावे.
विशेष
वसू, रुद्र णि आदित्य या शब्दांचा जो अर्थ वर दिला आहे, त्याविषयी शास्त्राचे प्रमाण उद्धृत करीत आहोत. (वसवः) या शब्दाने वैश्मजन अभिप्रेत आहेत कारण यजुर्वेदाच्या मंत्र संख्या ८-१८ मध्ये वसूकडे धनाची याचना केली आहे. रुद्र शब्दाने येथे क्षत्रिय अभिप्रेत आहेत, कारण वेदांमध्ये रुद्राचे वर्णन या रूपात सापडते. ङ्गहे रुद्र, तुझ्या सेना आमच्या शत्रूंना नष्ट करू देफ (ऋ. २-३३-११) ङ्गत्या रुद्रासमोर आपल्या वाणी प्रस्तुत करा (त्याला प्रार्थना करा) की ज्या रुद्राजनक दृढ धनुष आहे, वेगवान बाण आहेत, जो स्वतः आत्मरक्षणात समर्थ आहे, जो कोणाकडूनही पराभूत होत नाही, जो शत्रूंचा पराजेता असून तीव्र शस्त्रांनी युक्त आहे (ऋ. ७-४६-१) आदित्य शब्दाने येथे ब्राह्मण ग्राह्य आहे, कारण की तैत्रिरीय संहितेमध्ये म्हटले आहे, ङ्गब्राह्मणच आद्त्यि आहेफ (तै. सं. १-१-९-८) ।। ६।। प्रथम प्रपाठकाचा द्वितीय अर्धाचा पाचवी दशती समाप्त।। येथे प्रथम प्रपाठक समाप्त झाला।। प्रथम अध्यायातील दशम खंड समाप्त।।
तमिल (1)
Word Meaning
சுப யாகத்தோடான [1] மனுவால் மலரும் சலம் வர்ஷிக்கும் வசுக்களையும் இங்குள்ள ருத்ரர்களையும் ஆதித்யர்களையும் (12மாதங்களையும்) அக்னியே! (மனிதனே) நீ துதிக்கவும் (நாடவும்).
FootNotes
[1] மனுவால் - உன் ரட்சிப்பிலாக்கவும்.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal