यजुर्वेद - अध्याय 20/ मन्त्र 63
ऋषिः - विदर्भिर्ऋषिः
देवता - अश्विसरस्वतीन्द्रा देवताः
छन्दः - विराडनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
2
ति॒स्रस्त्रे॒धा सर॑स्वत्य॒श्विना॒ भार॒तीडा॑।ती॒व्रं प॑रि॒स्रुता॒ सोम॒मिन्द्रा॑य सुषुवु॒र्मद॑म्॥६३॥
स्वर सहित पद पाठति॒स्रः। त्रे॒धा। सर॑स्वती। अ॒श्विना॑। भार॑ती। इडा॑। ती॒व्रम्। प॒रि॒स्रुतेति॑ परि॒ऽस्रुता॑। सोम॑म्। इन्द्रा॑य। सु॒षु॒वुः॒। सु॒सु॒वु॒रिति॑ सुसुवुः। मद॑म् ॥६३ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तिस्रस्त्रेधा सरस्वत्यश्विना भारतीडा । तीव्रम्परिस्रुता सोममिन्द्राय सुषुवुर्मदम् ॥
स्वर रहित पद पाठ
तिस्रः। त्रेधा। सरस्वती। अश्विना। भारती। इडा। तीव्रम्। परिस्रुतेति परिऽस्रुता। सोमम्। इन्द्राय। सुषुवुः। सुसुवुरिति सुसुवुः। मदम्॥६३॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्भैषज्यादिविषयमाह॥
अन्वयः
हे मनुष्याः! यथा सरस्वती भारतीडा च तिस्रोऽश्विना चेन्द्राय परिस्रुता तीव्र मदं सोमं त्रेधा सुषुवुस्तथा यूयमप्येनं सुषुनोत॥६३॥
पदार्थः
(तिस्रः) त्रित्वसंख्याविशिष्टाः (त्रेधा) त्रिभिः प्रकारैः (सरस्वती) सुशिक्षिता वाणी (अश्विना) सद्वैद्यौ (भारती) धारिका माता (इडा) स्तोतु योग्योपदेशिका (तीव्रम्) तीव्रगुणस्वभावम् (परिस्रुता) परितः सर्वतः स्रवन्ति येन तेन (सोमम्) ओषधिरसं प्रेरणाख्यं व्यवहारं वा (इन्द्राय) ऐश्वर्य्याय (सुषुवुः) निष्पादयन्तु (मदम्) हर्षकम्॥६३॥
भावार्थः
मनुष्यैः सोमाद्योषधिरसं निर्माय पीत्वाऽऽरोग्यं कृत्वा वाचं धियं वक्तृत्वं चोन्नेनयम्॥६३॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर भैषज्यादि विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे मनुष्यो! जैसे (सरस्वती) अच्छे प्रकार शिक्षा पाई हुई वाणी (भारती) धारण करनेहारी माता और (इडा) स्तुति के योग्य उपदेश करनेहारी ये (तिस्रः) तीन और (अश्विना) अच्छे दो वैद्य (इन्द्राय) ऐश्वर्य के लिये (परिस्रुता) सब ओर से झरने के साथ (तीव्रम्) तीव्रगुणस्वभाव वाले (मदम्) हर्षकर्त्ता (सोमम्) ओषधि के रस वा प्रेरणा नाम के व्यवहार को (त्रेधा) तीन प्रकार से (सुषुवुः) उत्पन्न करें, वैसे तुम भी इसकी सिद्धि अच्छे प्रकार करो॥६३॥
भावार्थ
मनुष्यों को चाहिये कि सोम आदि ओषधियों के रस को सिद्ध कर उसको पीके शरीर का आरोग्य करके उत्तम वाणी, शुद्ध बुद्धि और यथार्थ वक्तृत्व शक्ति की उन्नति करें॥६३॥
विषय
उषा, नक्त, अश्वि, तीन देवियां, सविता, वरुण का इन्द्र पद को पुष्ट करना ।
भावार्थ
(सरस्वती) सरस्वती, (भारती) भारती, (इडा) इडा ये ( तिस्रः) तीनों और (अश्विनौ) दोनों, सद्-वैद्यों के समान उक्त अधिकारी ( परिस्रुता) अभिषेक द्वारा (इन्द्राय) इन्द्र, राजा के लिये ( तीव्रम् ) तीव्र (मदम् ) आनन्द और हर्षजनक ( सोमम् ) राष्ट्र रूप ऐश्वर्य को (सुषुवुः ) उत्पन्न करते हैं । अथवा ( इन्द्राय) ऐश्वर्यमय राष्ट्र के लिये (मदम् ) हर्षजनक ( तीव्रम् ) तीव्र, तीक्ष्ण स्वभाव के राजा को उत्पन्न करते हैं ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विराट् अनुष्टुप् । गान्धारः ॥
विषय
तीव्रम् मदम्
पदार्थ
१. (तिस्रः) = तीनों सरस्वती ज्ञान की अधिदेवता, भारती वाणी तथा (इडा) = श्रद्धा (त्रेधा) = जो तीन प्रकार से अवस्थित हैं, 'सरस्वती' द्युलोक में, 'इडा' [श्रद्धा] अन्तरिक्षलोक में तथा 'भारती' इस पृथिवीलोक में, इन तीन देवियों के साथ (अश्विना) = प्राणापान (इन्द्राय) = जितेन्द्रिय पुरुष के लिए (परिस्रुता) = [परिता स्रवणेन ] शरीर में व्यापन के द्वारा (तीव्रम्) = बुद्धि की तीव्रता के सम्पादन करनेवाले [पटुत्वकरम् - उ० ] तथा (मदम्) = हृदयान्तरिक्ष में उल्लास को पैदा करनेवाले (सोमम्) = सोम को, वीर्यशक्ति को (सुषुवुः) = पैदा करते हैं। २. अन्न के सेवन से शरीर में रसादि के क्रम से सोम की उत्पत्ति होती है। यह सोम शरीर में ही व्याप्त रहे, शरीर का ही अङ्ग बन जाए, इसके लिए आवश्यक है कि हम [ क ] स्वाध्याय की वृत्ति को अपनाएँ, सरस्वती की आराधना करें, [ख] प्राणापान की साधना करें, प्राणायाम के अभ्यासी हों [अश्विना], [ग] वाणी को नियन्त्रित रक्खें। यह औरों का भरण-पोषण करनेवाली हो, उत्साहवर्धक, प्रशंसात्मक शब्द ही बोले । कभी क्रोधभरे शब्द न निकाले । ब्रह्मचारी के लिए क्रोध वर्जित है, [घ] हम श्रद्धायुक्त मनवाले हों। हमारा श्रद्धासम्पन्न हृदय सदा प्रभु का स्मरण करनेवाला हो। वह वासनाओं का क्षेत्र न बने । ३. इस प्रकार 'स्वाध्याय, प्राणसाधना, क्रोधशून्य मधुर वाणी व श्रद्धा' इन साधनों से सोम के शरीर में ही व्याप्त होने पर मनुष्य [क] तीव्र बुद्धि बनता है [तीव्रम्], [ख] उसका जीवन उल्लासमय होता है [मदम् ], [ग] इन दो लाभों के अतिरिक्त उसका शरीर भी बड़ा स्वस्थ बनता है। इसी स्वास्थ्य के वर्णन से अग्रिम मन्त्र का प्रारम्भ होगा।
भावार्थ
भावार्थ- सोम मनुष्य को तीव्र बुद्धि व उल्लासमय जीवनवाला बनाता है। 'यह शरीर में ही सुरक्षित रहे', इसके लिए आवश्यक है कि हम स्वाध्यायशील हों, प्राणापान के अभ्यासी हों, वही वाणी बोलें जो क्रोधशून्य हो तथा हृदय में श्रद्धा की भावना से ओत-प्रोत हों।
मराठी (2)
भावार्थ
माणसांनी ‘सोम’ इत्यादी औषधांचा रस तयार करून तो प्यावा व शरीर निरोगी करावे. उत्तम वाणी, शुद्ध बुद्धी व यथार्थ वक्तृत्वशक्तीची वाढ करावी.
विषय
यानंतर भैपज्य आदी विषयी -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे मनुष्यांनो, ज्याप्रमाणे (सरस्वती) चांगल्या योग्य रीती (1) वाणी (वा भाषण, उच्चारण आदी) शिकविणारी स्त्री, (2) (भारती) धारण-पालन करणारी माता आणि (3) (इडा) प्रशंसनीय हितकर उपदेश देणारी स्त्री या (तिस्रः) तिघी (इन्द्राय) ऐश्वर्य, (वा स्वास्थ रूप संपदा) प्राप्त करण्यासाठी (परिस्रुता) वेगाने वाहणाऱ्या निर्झराप्रमाणे (तीव्रम्) तीव्रगुणधारक (मदम्) हर्ष उत्पन्न करणारा (सोमम्) औषधीरस (त्रेधा) तीन पद्धतीने (सुषुवः) तयार करतात (आणि इतरांना नीरोग होण्यासाठी देतात) हे मनुष्यानो, तुम्हीही (त्या विदुषी स्त्रियांचे व कुशल वैद्याचे अनुकरण करा.) ॥63॥
भावार्थ
भावार्थ - मनुष्यांकरिता हे उपयुक्त आहे की त्यांनी सोम आदी औषधींचा रस काढावा. ते योग्यप्रकारे तयार करून प्यावा आणि त्याद्वारे शरीराचे आरोग्य राखावे, वाणी शुद्ध करावी आणि बुद्धी व वक्तृत्वशक्तीचा विकास करावा. ॥63॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Well-disciplined speech, protecting mother, laudable preachress, these three, and two good physicians, should produce differently the strong, gladdening, well-begotten juice of medicines.
Meaning
Three motherly spirits, Vedic vision, knowledge and wisdom, and the mother-land, and two powers of health and medicine, may distil and create the intense and joyous nectar of soma extracted from all nature for Indra, the human soul, in three ways, that is, for physical, mental and spiritual nourishment.
Translation
May the twin healers, and the three—the speech, the discriminating intellect, and the culture—in three separate forms provide the aspirant with strong elating bliss. (1)
Notes
Tisrastredhã, thrice three; three in three separate forms; three dwelling in three different places. Madam susuvuḥ, brewed the gladdening drink. Also, pro vide with elating bliss.
बंगाली (1)
विषय
পুনর্ভৈষজ্যাদিবিষয়মাহ ॥
পুনরায়ঃ ভৈষজ্যাদি বিষয় পরবর্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে মনুষ্যগণ ! যেমন (সরস্বতী) সুশিক্ষিতা বাণী (ভারতী) ধারণকারিণী মাতা এবং (ইডা) স্তুতিযোগ্য উপদেশকারিণী এই (তিস্রঃ) তিন এবং (অশ্বিনা) উত্তম দুই বৈদ্য (ইন্দ্রায়) ঐশ্বর্য্য হেতু (পরিস্রুতা) সর্ব দিক দিয়া স্রবণ সহ (তীব্র) তীব্রগুণ স্বভাবযুক্ত (মদম্) হর্ষক (সোমম্) ওষধির রস বা প্রেরণা নামের ব্যবহারকে (ত্রেধা) তিন প্রকারে (সুষুবুঃ) উৎপন্ন করিবে সেইরূপ তুমিও ইহার সিদ্ধি উত্তম প্রকারে কর ॥ ৬৩ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- মনুষ্যদিগের উচিত যে, সোমাদি ওষধি সকলের রসকে সিদ্ধ করিয়া উহা পান করিয়া শরীরের আরোগ্য করিয়া উত্তম বাণী, শুদ্ধ বুদ্ধি এবং যথার্থ বত্তৃôত্ব শক্তির উন্নতি করিবে ॥ ৬৩ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
তি॒স্রস্ত্রে॒ধা সর॑স্বত্য॒শ্বিনা॒ ভার॒তীডা॑ ।
তী॒ব্রং প॑রি॒স্রুতা॒ সোম॒মিন্দ্রা॑য় সুষুবু॒র্মদ॑ম্ ॥ ৬৩ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
তিস্র ইত্যস্য বিদর্ভির্ঋষিঃ । অশ্বিসরস্বতীন্দ্রা দেবতাঃ । বিরাডনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
গান্ধারঃ স্বরঃ ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal