यजुर्वेद - अध्याय 25/ मन्त्र 42
ऋषिः - गोतम ऋषिः
देवता - यजमानो देवता
छन्दः - स्वराट् पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
2
एक॒स्त्वष्टु॒रश्व॑स्या विश॒स्ता द्वा य॒न्तारा॑ भवत॒स्तथ॑ऽऋ॒तुः।या ते॒ गात्रा॑णामृतु॒था कृ॒णोमि॒ ताता॒ पिण्डा॑नां॒ प्र जु॑होम्य॒ग्नौ॥४२॥
स्वर सहित पद पाठएकः॑। त्वष्टुः॑। अश्व॑स्य। वि॒श॒स्तेति॑ विऽश॒स्ता। द्वा। य॒न्तारा॑। भ॒व॒तः॒। तथा॑। ऋ॒तुः। या। ते॒। गात्रा॑णाम्। ऋ॒तु॒थेत्यृ॑तु॒ऽथा। कृ॒णोमि॑। तातेति॒ ताता॑। पिण्डा॑नाम्। प्र। जु॒हो॒मि॒। अ॒ग्नौ ॥४२ ॥
स्वर रहित मन्त्र
एकस्त्वष्टुरश्वस्या विशस्ता द्वा यन्तारा भवतस्तथऽऋतुः । या ते गात्राणामृतुथा कृणोमि ताता पिण्डानाम्प्र जुहोम्यग्नौ ॥
स्वर रहित पद पाठ
एकः। त्वष्टुः। अश्वस्य। विशस्तेति विऽशस्ता। द्वा। यन्तारा। भवतः। तथा। ऋतुः। या। ते। गात्राणाम्। ऋतुथेत्यृतुऽथा। कृणोमि। तातेति ताता। पिण्डानाम्। प्र। जुहोमि। अग्नौ॥४२॥
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
पुनः कथं पशवः शिक्षणीया इत्याह॥
अन्वयः
हे मनुष्याः! यथैक ऋतुस्त्वष्टुरश्वस्य विशस्ता भवति, यौ द्वा यन्तारा भवतस्तथा या ते गात्राणां पिण्डानामृतुथा वस्तून्यहं कृणोमि ताताऽग्नौ प्रजुहोमि॥४२॥
पदार्थः
(एकः) असहायः (त्वष्टुः) प्रदीप्तस्य (अश्वस्य) तुरङ्गस्य। अत्र संहितायाम् [अ॰६.३.११४] इति दीर्घः। (विशस्ता) विच्छेदकः (द्वा) द्वौ (यन्तारा) नियामकौ (भवतः) (तथा) तेन प्रकारेण (ऋतुः) वसन्तादिः (या) यानि (ते) तव (गात्राणाम्) अङ्गानाम् (ऋतुथा) ऋतोः (कृणोमि) (ताता) तानि तानि (पिण्डानाम्) (प्र) (जुहोमि) (अग्नौ) पावके॥४२॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथाऽश्वशिक्षकाः प्रत्यृत्वश्वान् सुशिक्षयन्ति, तथा गुरवो विद्यार्थिनां चेष्टाकरणानि शिक्षयन्ति। यथाग्नौ पिण्डान् हुत्वा वायुं शोधयन्ति, तथा विद्याग्नावविद्याभ्रमान् हुत्वाऽऽत्मनः शोधयन्ति॥४२॥
विषयः
पुनः कथं पशवः शिक्षणीया इत्याह ॥
सपदार्थान्वयः
हे मनुष्या यथैक ऋतुस्त्वष्टुरश्वस्य विशस्ता भवति यौ द्वा यन्तारा भवतस्तथा या ते गात्राणां पिण्डानामृतुथा वस्तून्यहं कृणोमि ता ताऽग्नौ प्रजुहोमि ॥ ४२ ॥ सपदार्थान्वयः--हे मनुष्याः ! यथैकः असहायः ऋतुः वसन्तादिः त्वष्टुः प्रदीप्तस्य अश्वस्य तुरङ्गस्य विशस्ता विच्छेदकः भवति, यौ द्वा द्वौ यन्तारा नियामकौ भवतस्तथा तेन प्रकारेण या यानि ते तव गात्राणाम् अङ्गानां पिण्डानामृतुथा ॠतो: वस्तून्यहं कृणोमि, ता ता तानि तानि अग्नौ पावके प्रजुहोमि॥ २५ । ४२ ॥
पदार्थः
(एकः) असहायः (त्वष्टु:) प्रदीप्तस्य (अश्वस्य) तुरङ्गस्य । अत्र संहितायामिति दीर्घः (विशस्ता) विच्छेदक: (द्वा) द्वौ (यन्तारा) नियामकौ (भवतः) (तथा ) तेन प्रकारेण (ऋतुः) वसन्तादिः (या) यानि (ते) तव (गात्राणाम्) अङ्गानाम् (ऋतुथा) ऋतो: (कृणोमि) (ता ता) तानि तानि (पिण्डानाम्) (प्र) (जुहोमि) (अग्नौ) पावके ॥ ४२ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथाऽश्वशिक्षकाः प्रत्यृत्वश्वान् शिक्षयन्ति, तथा गुरवो विद्यार्थिनां चेष्टाकरणानि शिक्षयन्ति । यथाऽग्नौ पिण्डान् हुत्वा वायुं शोधयन्ति तथा विद्याग्नावविद्याभ्रमान् हुत्वाऽऽत्मनः शोधयन्ति ॥ २५ । ४२ ॥
विशेषः
गोतमः । यजमानः=गुरुः । स्वराट्पङ्क्तिः । पञ्चमः ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर किस प्रकार पशु सिखाने चाहियें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे मनुष्यो! जैसे (एकः) अकेला (ऋतुः) वसन्त आदि ऋतु (त्वष्टुः) शोभायमान (अश्वस्य) घोड़े का (विशस्ता) विशेष करके रूपादि का भेद करने वाला होता है वा जो (द्वा) दो (यन्तारा) नियम करने वाले (भवतः) होते हैं (तथा) वैसे (या) जिन (ते) तुम्हारे (गात्रााणम्) अङ्गों वा (पिण्डानाम्) पिण्डों के (ऋतुथा) ऋतु सम्बन्धी पदार्थों को मैं (कृणोमि) करता हूँ (ताता) उन-उन को (अग्नौ) आग में (प्र, जुहोमि) होमता हूँ॥४२॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे घोड़ों के सिखाने वाले ऋतु-ऋतु के प्रति घोड़ों को अच्छा सिखलाते हैं, वैसे गुरुजन विद्यार्थियों को क्रिया करना सिखलाते हैं वा जैसे अग्नि में पिण्डों का होम कर पवन की शुद्धि करते हैं, वैसे विद्यारूपी अग्नि में अविद्यारूप भ्रमों को होम के आत्माओं की शुद्धि करते हैं॥४२॥
विषय
राष्ट्र के कार्यों का विभाग और उन पर योग्य विद्वान् अध्यक्ष की नियुक्ति ।
भावार्थ
संवत्सर रूप प्रजापति की राष्ट्रमय प्रजापति से तुलना । (स्वष्टुः) सूर्य के (अश्वस्य) आशुगामी काल का (एकः ऋतुः) एक पूर्ण वत्सर (विशस्ता ) उसको विभाग करता है और इसके (द्वा यन्तरा ) दो अयन नियन्ता (भवतः ) होते हैं । (तथा) उसी प्रकार (ऋतुः ) एक-एक ऋतु संवत्सर को विभक्त करता है और उस ऋतु के भी ( द्वा यन्तारा ) दो-दो मास नियम से (भवतः ) होते हैं। इसी प्रकार हे प्रजापते ! प्रजापालक राष्ट्र ! (ते) तेरे ( गात्राणाम् ) अङ्गों में से (या) जिन अङ्गों को मैं विद्वान् पुरुष (ऋतुथा) संवत्सर के ऋतु के समान नियामक, बली पुरुष के सामर्थ्य के अनुसार (कृणोमि ) पृथक्-पृथक् विभक्त करूं उन विभक्त ( पिण्डानाम ) अवयवों में से ( ता ता ) उन-उन अवयवों, या राष्ट्र के विभागों को (अग्नौ ) ज्ञानवान्, नेता, अग्रणी पुरुष के अधीन (प्र जुहोमि ) प्रदान करूं ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
यजमानः। स्वराट् पंक्ति: । पंचमः ॥
विषय
फिर किस प्रकार पशु सिखाने चाहिएँ, इस विषय का उपदेश किया है॥
भाषार्थ
हे मनुष्यो ! जैसे (एक:) एक (ऋतुः) वसन्त ऋतु (त्वष्टुः) प्रदीप्त सूर्यरूप (अश्वस्य) घोड़े का (विशस्ता) विच्छेदक होता है; और जो (द्वा) दो ऋतुएँ (यन्तारौ) घोड़े की नियामक होती हैं; (तथा) वैसे (या) जो (ते) तेरे (गात्राणाम्) अंगों एवं (पिण्डानाम्) पिण्डों के निमित्त (ऋतुथा) ऋतु के अनुसार वस्तुओं को मैं (कृणोमि) बनाता हूँ; और (ताता) उन-उनवस्तुओं को (नौ) अग्नि में (प्रजुहोमि) होम करता हूँ ॥ २५ । ४२ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमा अलङ्कार है। जैसे घोड़ों के शिक्षक प्रत्येक ऋतु में घोड़ों को प्रशिक्षण देते हैं; वैसे गुरुजन विद्यार्थियों को चेष्टा करना सिखलाते हैं। जैसे अग्नि में पिण्डों का होम करके वायु को शुद्ध करते हैं, वैसे विद्याअग्नि में अविद्या-भ्रमों का होम करके आत्माओं को शुद्ध करते हैं ॥ २५ । ४२॥
भाष्यसार
१. पशुओं को कैसे शिक्षित करें--जैसे एक वसन्त ऋतु त्वष्टा=सूर्य रूप अश्व की विच्छेदक=विशेषक होती है, और जैसे दो ऋतु उक्त सूर्य की नियामक होती हैं वैसे अश्व शिक्षक विद्वान् प्रत्येक ऋतु में घोड़ों को शिक्षित करें। इसी प्रकार गुरुजन भी विद्यार्थियों को उचित चेष्टा करना सिखलावें। जैसे याजक लोग अग्नि में पिण्डों का होम करके वायु को शुद्ध करते हैं वैसे विद्वान् लोग विद्या की अग्नि में अविद्या भ्रम का होम करके आत्मा को शुद्ध करें। २. अलङ्कार– इस मन्त्र में उपमा वाचक इव आदि पद लुप्त हैं, अतः वाचकलुप्तोपमा अलङ्कार है। उपमा यह है कि अश्व-शिक्षकों के समान गुरुजन भी विद्यार्थियों को उचित गात्र-चेष्टा करना सिखलावें ॥ २५ । ४२ ॥
विषय
त्वष्टा- अश्व
पदार्थ
१. गतमन्त्र के प्रकरण को ही चलाते हुए कहते हैं कि (एक:) = जीवन-निर्माण के कार्य में मुख्य भाग लेनेवाला [एके मुख्यान्यकेवलाः] आचार्य (त्वष्टुः) = [त्विष दीप्तौ] बुद्धि के दृष्टिकोण से सूर्य के समान [त्वष्टा - सूर्य] चमकनेवाले तथा (अश्वस्य) = शरीर में घोड़े के समान शक्तिवाले विद्यार्थी का (विशस्ता) = विशेषरूप से दोषों का छेदन करनेवाला होता है। २. (द्वा यन्तारा भवतः) = दो ही बातें निर्माण कार्य में नियामक होती हैं। आचार्य की सभी क्रियाएँ इन दो दृष्टिकोणों को लिये हुए होती हैं- [क] विद्यार्थी का मस्तिष्क (त्वष्टा) = सूर्य के समान देदीप्यमान बने और उसका शरीर (अश्व) = घोड़े के समान शक्तिशाली हो। ३. दो नियामक तत्त्वों के साथ तथा उसी प्रकार (ऋतुः) = ऋतु भी नियामक होती है। स्पष्ट है गर्मी का कार्यक्रम वर्षाऋतु में कुछ परिवर्तित हो जाएगा और वर्षा में चलनेवाले कार्य को सर्दी में कुछ परिवर्तन करना होगा। पढ़ाई के समय में ऋतु परिवर्तन के साथ परिपाक करना ही पड़ेगा। वास्तव में ऋतु के अनुसार की गई सब क्रियाएँ विद्यार्थी को नीरोग व निर्दोष बनानेवाली होंगी। आचार्य विद्यार्थी से कहता है कि-४. (या) = जो मैं तेरे (गात्राणाम्) = अंगों के दोषों को (ऋतुथा) = ऋतु के अनुसार (कृणोमि) = दूर करने का प्रयत्न करता हूँ अथवा ऋतु के अनुसार अंगों के संस्कार का प्रयत्न करता हूँ तो अग्नौ प्रगतिशील तुझे (ता-ता) = उन-उन (पिण्डानाम्) = बलों को [पिण्ड - might, strength, power] (प्रजुहोमि) = आहुत करता हूँ। इन्हें निर्दोष बनाने के लिए किये गये संस्कारों द्वारा तुझे प्रत्येक अंग में सशक्त करता हूँ। ५. वस्तुत: आचार्य का यज्ञ यही है कि वह विद्यारूप अग्नि में अङ्ग-प्रत्यङ्ग में शक्तिरूप हव्य की आहुति दे, विद्यार्थी को सर्वांग सुन्दर बनाने का प्रयत्न करे।
भावार्थ
भावार्थ- आचार्य ने विद्यार्थी को 'त्वष्टा व अश्व' दीप्त व सबल बनाना है। इसके लिए वह ऋतुओं के अनुसार सब क्रियाओं को करता हुआ विद्यार्थीरूप अग्नि में बलों की आहुति देता है, अर्थात् उन्हें सर्वाङ्ग सबल बनाने का प्रयत्न करता है।
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे अश्वशिक्षक निरनिराळ्या ऋतुंमध्ये घोड्यांना उत्तम शिक्षण देतात किंवा प्रशिक्षित करतात तसे गुरुजन विद्यार्थ्यांना निरनिराळ्या क्रिया शिकवितात. जसे अग्नीत तूप, तांदूळ वगैरेंची आहुती देऊन होम करतात व वायू शुद्ध करतात. तसे विद्यारूपी अग्नीत अविद्यारूपी भ्रमाचा हेत करून आत्म्याची शुद्धी करतात.
विषय
पशूंना कशाप्रकारे प्रशिक्षित करावे, याविषयी -
शब्दार्थ
शब्दार्थ -हे मनुष्यांनो (एकः) एक (ऋतुः) वसंत आदी एक ?? ऋतू (त्वष्टुः) सुशोभित वा सुंदर (अश्वस्य) घोड्याचे (विशस्ता) विशेष वा ऋतूप्रमाणे वेगवेगळे रूप बदलणारा असतो, अथवा (द्वा) दोन (यन्तारा) नियामक ऋतू (भवतः) (पशू वा माणसाचे रूप बदलणारे) असतात (तथा) त्याप्रमाणे (ते) (या) तुमच्या ज्या (गात्राणाम्) अवयवांच्या अथवा (पिण्डानाम्) अवयवांचे पिण्ड म्हणजे शिरा, नाड्या आदी) यांना (ऋतुथा) प्रत्येक ऋतूप्रमाणे योग्य वा आवश्यक पदार्थ वा औषधी मी (कृणोमि) तयार करावी (ता ता) तुमच्या त्या त्या रोगांना दूर करण्याासठी ते रोगनाशक औषधी मी (वैद्य वा याज्ञिक) (अग्रौ) अग्नीमधे (प्र, जुहोमि) आहुतीरूपाने टाकत आहे. ॥42॥
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. ज्याप्रमाणे अश्वप्रशिक्षक घोड्यांना ऋतूप्रमाणे वेगवेगळे प्रशिक्षण देतात आणि जसे गुरूजन विद्यार्थ्यांना क्रिया शिकवितात, आणि जसे अग्नीत पिण्ड (औषधीचे तुकडे) टाकून याज्ञिकजन वायूची शुद्धी करतात, तद्वत विद्यारूप अग्नीमधे अविद्यारूप भ्रमादींना होमात जाळून यज्ञकर्ता आत्म्याला शुद्ध करतात. ॥42॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O people, just as spring alone gives beauty to a graceful horse, or two seasons control him ; so do I control your organs and livelihood, and give you various objects in different seasons, and place all these under the custody of a learned person.
Meaning
One is the marker of the sun’s horse/chariot of time, that is the year, the annual cycle of seasons. Two are the guiding controllers, the summer solstice and the winter solstice. I take the divisions of your course, O sun, O ruler, O nation, according to the seasons, and I dedicate them to the fire of national yajna according to the seasons and the circumstances of the nation.
Translation
There is only one immolator, which can kill the radiant horse, that is the Time—killer of all. Whilst there are two to take care of him (the horse himself and his master rider), such of the limbs of the horse I take care of according to the seasons, (to give protection from heat and cold) and to heal up its wounds, hot fomentations are given to the swollen tumours. (1)
Notes
Rtutha, in due season; according to custom. Tvaştuḥ aśvasya, of the radiant horse. Or, of the horse which is born from the sun; or, the horse of the sun. Visastā, killer, immolator. Dvā yantārā, they are two, day and night, to regulate.
बंगाली (1)
विषय
পুনঃ কথং পশবঃ শিক্ষণীয়া ইত্যাহ ॥
পুনঃ কী প্রকার পশুকে শিক্ষা দিবে, এই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ–হে মনুষ্যগণ! যেমন (একঃ) একাকী (ঋতুঃ) বসন্তাদি ঋতু (ত্বষ্টুঃ) শোভায়মান (অশ্বস্য) অশ্বের (বিশস্তা) বিশেষ করিয়া রূপাদির পার্থক্যকারী হয় অথবা যে (দ্বা) দুই (য়ন্তারা) নিয়মকারী (ভবতঃ) হইয়া থাকে (তথা) সেইরূপ (য়া) যে (তে) তোমাদের (গাত্রাণাম্) অঙ্গসকল বা (পিণ্ডানাম্) পিণ্ডসমূহের (ঋতুথা) ঋতু সম্পর্কীয় পদার্থগুলিকে আমি (কৃণোমি) করি (তাতা) সেই সব কে (অগ্নৌ) অগ্নিতে (প্র, জুহোমি) হোম করি ॥ ৪২ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ–এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । যেমন অশ্বের শিক্ষক প্রত্যেক ঋতুতে অশ্বকে উত্তম শিক্ষা দেয় তদ্রূপ গুরু বিদ্যার্থীদেরকে ক্রিয়া করা শিখায় অথবা যেমন অগ্নিতে পিণ্ডের হোম করিয়া বায়ুর শুদ্ধি করে তদ্রূপ বিদ্যারূপী অগ্নিতে অবিদ্যারূপ ভ্রম সকলকে হোমের আত্মার শুদ্ধি করিয়া থাকে ॥ ৪২ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
এক॒স্ত্বষ্টু॒রশ্ব॑স্যা বিশ॒স্তা দ্বা য়॒ন্তারা॑ ভবত॒স্তথ॑ऽঋ॒তুঃ ।
য়া তে॒ গাত্রা॑ণামৃতু॒থা কৃ॒ণোমি॒ তাতা॒ পিণ্ডা॑নাং॒ প্র জু॑হোম্য॒গ্নৌ ॥ ৪২ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
একস্ত্বষ্টুরিত্যস্য গোতম ঋষিঃ । য়জমানো দেবতা । স্বরাট্ পংক্তিশ্ছন্দঃ ।
পঞ্চমঃ স্বরঃ ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal