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यजुर्वेद अध्याय - 25

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  • यजुर्वेद - अध्याय 25/ मन्त्र 6
    ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - मरुतादयो देवताः छन्दः - निचृदतिधृतिः स्वरः - षड्जः
    6

    म॒रुता॑ स्क॒न्धा विश्वे॑षां दे॒वानां॑ प्रथ॒मा कीक॑सा रु॒द्राणां॑ द्वि॒तीया॑ऽऽदि॒त्यानां॑ तृ॒तीया॑ वा॒योः पुच्छ॑म॒ग्नीषोम॑यो॒र्भास॑दौ॒ क्रुञ्चौ॒ श्रोणि॑भ्या॒मिन्द्रा॒बृह॒स्पती॑ऽऊ॒रुभ्यां॑ मि॒त्रावरु॑णाव॒ल्गाभ्या॑मा॒क्रम॑ण स्थू॒राभ्यां॒ बलं॒ कुष्ठा॑भ्याम्॥६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    म॒रुता॑म्। स्क॒न्धाः। विश्वे॑षाम्। दे॒वाना॑म्। प्र॒थ॒मा। कीक॑सा। रु॒द्राणा॑म्। द्वि॒ताया॑। आ॒दि॒त्याना॑म्। तृ॒तीया॑। वा॒योः। पुच्छ॑म्। अ॒ग्नीषोम॑योः। भास॑दौ। क्रुञ्चौ॑। श्रोणि॑भ्या॒मिति॒ श्रोणि॑ऽभ्याम्। इन्द्रा॒बृह॒स्पती॒ इतीन्द्रा॒बृह॒स्पती॑। ऊ॒रुभ्या॒मित्यू॒रुऽभ्या॑म्। मि॒त्रावरु॑णौ। अ॒ल्गाभ्या॑म्। आ॒क्रम॑ण॒मित्या॒ऽक्रम॑णम्। स्थू॒राभ्या॑म्। बल॑म्। कुष्ठा॑भ्याम् ॥६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मरुताँ स्कन्धा विश्वेषान्देवानाम्प्रथमा कीकसा रुद्राणान्द्वितीयादित्यानान्तृतीया वायोः पुच्छमग्नीषोमयोर्भासदौ क्रुञ्चौ श्रोणिभ्यामिन्द्राबृहस्पतीऽऊरुभ्याम्मित्रावरुणावल्गाभ्यामाक्रमणँ स्थूराभ्याम्बलं कुष्ठाभ्याम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    मरुताम्। स्कन्धाः। विश्वेषाम्। देवानाम्। प्रथमा। कीकसा। रुद्राणाम्। द्विताया। आदित्यानाम्। तृतीया। वायोः। पुच्छम्। अग्नीषोमयोः। भासदौ। क्रुञ्चौ। श्रोणिभ्यामिति श्रोणिऽभ्याम्। इन्द्राबृहस्पती इतीन्द्राबृहस्पती। ऊरुभ्यामित्यूरुऽभ्याम्। मित्रावरुणौ। अल्गाभ्याम्। आक्रमणमित्याऽक्रमणम्। स्थूराभ्याम्। बलम्। कुष्ठाभ्याम्॥६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 25; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह॥

    अन्वयः

    हे मनुष्याः! युष्माभिर्मरुतां स्कन्धा विश्वेषां देवानां प्रथमा कीकसा रुद्राणां द्वितीयाऽऽदित्यानां तृतीया वायोः पुच्छमग्नीषोमयोर्भासदौ क्रुञ्चौ श्रोणिभ्यामिन्द्राबृहस्पती ऊरुभ्यां मित्रावरुणावल्गाभ्यामाक्रमणं कुष्ठाभ्यां स्थूराभ्यां बलं च निष्पादनीयम्॥६॥

    पदार्थः

    (मरुताम्) मनुष्याणाम् (स्कन्धाः) भुजदण्डमूलानि (विश्वेषाम्) (देवानाम्) विदुषाम् (प्रथमा) आदिमा (कीकसा) भृशं शासनानि (रुद्राणाम्) (द्वितीया) ताडनक्रिया (आदित्यानाम्) अखण्डितन्यायाधीशानाम् (तृतीया) न्यायक्रिया (वायोः) (पुच्छम्) पशोरवयवम् (अग्नीषोमयोः) (भासदौ) यौ भासं प्रकाशं दद्यातां तौ (क्रुञ्चौ) पक्षिविशेषौ (श्रोणिभ्याम्) कटिप्रदेशाभ्याम् (इन्द्राबृहस्पती) वायुसूर्यौ (ऊरुभ्याम्) जानुन ऊर्ध्वाभ्यां पादावयवाभ्याम् (मित्रावरुणौ) प्राणोदानौ (अल्गाभ्याम्) अलं गन्तृभ्याम्। अत्र छान्दसो वर्णलोप इति टिलोपः (आक्रमणम्) (स्थूराभ्याम्) स्थूलाभ्याम्। अत्र कपिलकादित्वाल्लत्वविकल्पः (बलम्) (कुष्ठाभ्याम्) निष्कर्षाभ्याम्॥६॥

    भावार्थः

    मनुष्यैर्भुजबलं स्वाङ्गपुष्टिर्दुष्टताडनं न्यायप्रकाशादीनि च कर्माणि सदा कर्त्तव्यानि॥६॥

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    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    सपदार्थान्वयः

    हे मनुष्या युष्माभिर्मरुतां स्कन्धा विश्वेषां देवानां प्रथमा कीकसा रुद्राणां द्वितीयाऽऽदित्यानां तृतीया वायोः पुच्छमग्नीषोमयोर्भासदौ क्रुञ्चौ श्रोणिभ्यामिन्द्राबृहस्पती ऊरुभ्यां मित्रावरुणावल्गाभ्यामाक्रमणं कुष्ठाभ्यां स्थूराभ्यां बलं च निष्पादनीयम् ॥ ६ ॥ सपदार्थान्वयः--हे मनुष्याः! युष्माभिर्मरुतां मनुष्याणां स्कन्धाः भुजदण्डमूलानि, विश्वेषां देवानां विदुषां प्रथमा आदिमा कीकसा भृशं शासनानि, रुद्राणां द्वितीया ताडनक्रिया, आदित्यानाम् अखण्डितन्यायाधीशानां तृतीया न्यायक्रिया, वायोः पुच्छं पशोरवयवम्, अग्नीषोमयोर्भासदौ यौ भासं=प्रकाशं दद्यातां तौक्रुञ्चौ पक्षिविशेषौ, श्रोणिभ्यां कटिप्रदेशाभ्यां इन्द्राबृहस्पती वायुसूर्यौ, ऊरुभ्यां जानुन ऊर्ध्वाभ्यां पादावयवाभ्यां मित्रावरुणौ प्राणोदानौ, अल्गाभ्याम् अलं गन्तृभ्याम् आक्रमणं, कुष्ठाभ्यां निष्कर्षाभ्यां स्थूराभ्यां स्थूलाभ्यां बलं च; निष्पादनीयम् ॥ २५ । ६॥

    पदार्थः

    (मरुताम्) मनुष्याणाम् (स्कन्धाः) भुजदण्डमूलानि (विश्वेषाम्) (देवानाम्) विदुषाम् (प्रथमा) आदिमा (कीकसा) भृशं शासनानि (रुद्राणाम्) (द्वितीया) ताडनक्रिया (आदित्यानाम्) अखण्डितन्यायाधीशानाम् (तृतीया) न्यायक्रिया (वायोः) (पुच्छम् ) पशोरवयवम् (अग्नीषोमयोः) (भासदौ) यौ भासं=प्रकाशं दद्यातां तौ (क्रुञ्चौ) पक्षिविशेषौ (श्रोणिभ्याम्) कटिप्रदेशाभ्याम् (इन्द्राबृहस्पती) वायुसूर्यौ (ऊरुभ्याम्) जानुन ऊर्ध्वाभ्यां पादावयवाभ्याम् (मित्रावरुणौ) प्राणोदानौ (अल्गाभ्याम्) अलं गन्तृभ्याम् । यत्र छान्दसो वर्णलोप इति टिलोपः (आक्रमणम्) (स्थूराभ्याम्) स्थूलाभ्याम्। अत्र कपिलकादित्वाल्लत्वविकल्पः (बलम्) (कुष्ठाभ्याम्) निष्कर्षाभ्याम् ॥ ६॥

    भावार्थः

    मनुष्यैर्भुजबलं स्वाङ्गपुष्टिर्दुष्टताडनं न्यायप्रकाशादीनि च कर्माणि सदा कर्त्तव्यानि ॥ २५ । ६॥

    भावार्थ पदार्थः

    स्कन्धा:=भुजबलम्। द्वितीया=दुष्टताडनम् ।तृतीया=न्यायप्रकाशः।बलम्=स्वाङ्गपुष्टिः ।

    विशेषः

    प्रजापतिः। मरुतादयः=मनुष्यादयः । निचृदतिधृतिः । षड्जः ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो! तुम को (मरुताम्) मनुष्यों के (स्कन्धाः) कंधा (विश्वेषाम्) सब (देवानाम्) विद्वानों की (प्रथमा) पहिली क्रिया और (कीकसा) निरन्तर शिखावटें (रुद्राणाम्) रुलाने हारे विद्वानों की (द्वितीया) दूसरी ताड़नरूप क्रिया (आदित्यानाम्) अखण्डित न्याय करने वाले विद्वानों की (तृतीया) तीसरी न्यायक्रिया (वायोः) पवन सम्बन्धी (पुच्छम्) पशु की पूंछ अर्थात् जिससे पशु अपने शरीर को पवन देता (अग्नीषोमयोः) अग्नि और जल सम्बन्धी (भासदौ) जो प्रकाश को देवें वे (क्रुञ्चौ) कोई विशेष पक्षी वा सारस (श्रोणिभ्याम्) चूतड़ों से (इन्द्राबृहस्पती) पवन और सूर्य (ऊरुभ्याम्) जांघों से (मित्रावरुणौ) प्राण और उदान (अल्गाभ्याम्) परिपूर्ण चलने वाले प्राणियों से (आक्रमणम्) चाल तथा (कुष्ठाभ्याम्) निचोड़ और (स्थूराभ्याम्) स्थूल पदार्थों से (बलम्) बल को सिद्ध करना चाहिये॥६॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को भुजाओं का बल, अपने अङ्ग की पुष्टि, दुष्टों को ताड़ना और न्याय का प्रकाश आदि काम सदा करने चाहियें॥६॥

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    विषय

    देह के पीठ के मोहरों से राज्याधिकारियों की तुलना और उनके कर्तव्य- विवेचन | उदर में स्थित अंगों से राष्ट्र के अन्य पदार्थों की तुलना । अथवा उनकी शक्तियों से उनके उपयोगों की आलोचना ।

    भावार्थ

    ( मरुतां स्कन्धाः) जैसे शरीर में कन्धे हैं वैसे ही राष्ट्र में "मरुत' अर्थात् शत्रु को वायुवेग से झपट कर मारने वाले वीर सेनाओं कों ( स्कन्धाः ) स्कन्धावार या छावनियां हैं ( विश्वेषां देवानाम् ) समस्त विद्वान् पुरुषों की (प्रथमा) सबसे प्रथम, सर्वोत्तम (कीकसा) उपदेश क्रिया प्रथम 'कीकसा' अर्थात् कूल्हे की पहली मोहरी के समान आधार है । (रुद्राणां द्वितीया) रुद्र अर्थात् दुष्टों को रुलाने वाले दमनकारी पुरुषों की शासन व्यवस्था दूसरी मोहरी के समान है ।( तृतीया आदित्यानाम् ) आदित्य के समान तेजस्वी अखण्डित शासनकारी अधीशों का शासन तीसरी मोहरी के समान है । ( वायो: पुच्छम् ) 'वायु' न्यायाधीश का पद शरीर में पूंछ के समान राष्ट्र का आश्रय वा दुष्ट पुरुषों का नाशक है। (अग्नि-सोमयोः) अग्नि, अग्रणी सेनापति और सोम, ऐश्वर्यवान् राजा यह दोनों तेजस्वी पदाधिकारी राष्ट्र के (भासदौ) दो नितम्ब भागों के समान राष्ट्र के अधार हैं। (क्रुञ्चौ) हंसों के समान विशेष विवेकी, दो विद्वान ( श्रोणिभ्याम्) राष्ट्र के कटिप्रदेशों से तुलना करते हैं । (इन्द्र-बृहस्पती) इन्द्र और बृहस्पति, राजा और मंत्री दोनों (ऊरुभ्याम् ) राष्ट्र के दो जांघों ( अल्गाभ्याम्) अति वेग से गमन करने वाले ऊरुओं के दो सन्धि भागों से (मित्रावरुणौ ) मित्र और वरुण इन दो पदाधिकारियों की तुलना है । (आक्रमणम्) राष्ट्र का विजयार्थ आक्रमण करने की ( स्थूराभ्याम् ) स्थूल जांघों के भागों से तुलना है । ( कुष्ठाभ्याम् ) जांघ चूतड़ दोनों के बीच के गहरे स्थानों से ( बलम ) राष्ट्र के सैन्य बल की तुलना है ।

    टिप्पणी

    ६ – मित्रावरुणा अल्गा० इति काण्व ० ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मरुदादयः । निचृदतिधृतिः । षड्जः ॥

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    विषय

    किसके लिए कौन क्रिया होती है, यह फिर उपदेश किया है॥

    भाषार्थ

    हे मनुष्यो ! तुम--(मरुताम्) मनुष्यों के (स्कन्धाः) कन्धे (विश्वेषाम्) सब (देवानाम्) विद्वानों की (प्रथमा) प्रथम क्रिया (कीकसा) अत्यन्त शासन, (रुद्राणाम्) रुद्रों की (द्वितीया) दूसरी ताडन क्रिया, (आदित्यानाम्) अखण्डित न्यायाधीशों की (तृतीया) तीसरी न्यायक्रिया, (वायोः) वायु-सम्बन्धी (पुच्छम्) पशु की 'पूंछ' (अग्नीषोमयोः) सूर्य और चन्द्र सम्बन्धी (भासदौ) भास=प्रकाश देने वाले (क्रुञ्चौ) दो सारस पक्षी, (श्रोणिभ्याम्) कटि प्रदेशों के लिए (इन्द्राबृहस्पती) वायु और सूर्य, (उरुभ्याम्) जाँघों के लिए (मित्रावरुणौ) प्राण और उदान, (अल्गाभ्याम्) अत्यन्त गति करने वाली उरुसन्धियों के लिए (आक्रमणम्) आक्रमण=गति विशेष, (स्थूराभ्याम्) स्थूल (कुष्ठाभ्याम्) नितम्बस्थ कूपकों के लिए (बलम्) बल को सिद्ध करो ॥ २५ । २६॥

    भावार्थ

    सब बाहुबल, अपने अंगों की पुष्टि, दुष्टों का ताडन, और न्यायप्रकाश आदि कर्मों को सदा करें ॥ २५ । ६ ॥

    प्रमाणार्थ

    (अल्गाभ्याम्) यहाँ 'छान्दसो' वर्णलोपः' इस नियम से टि भाग का लोप है।(स्थूराभ्याम्) यहाँ 'कपिलक' आदि से लत्व विकल्प है।

    भाष्यसार

    किसके लिए कौन क्रिया होती है--सब मनुष्यों को उचित है कि वे मनुष्यों के भुजदण्ड अर्थात् बाहु-बल एवं अंगों की पुष्टि को क्रिया को, वायु की पशुओं की पूँछ रूप स्पर्श क्रिया को, सूर्य और चन्द्र की सारस पक्षी रूप प्रकाश देने वाली क्रिया को जानें। दोनों कटिप्रदेशों के लिए वायु और सूर्य को, दोनों जंघाओं के लिए प्राण प्रौर उदान को, उरुसन्धियों के लिए आक्रमण को, स्थूल नितम्बों के लिए बल को सिद्ध करें ॥ २५ । ६ ॥; विद्वानों के शासन रूप प्रथम क्रिया, रुद्रों की ताडन रूप दूसरी क्रिया को, न्यायाधीशों की न्याय-प्रकाश रूप तीसरी

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    माणसांनी बाहुबल वाढवावे व आपले शरीर पुष्ट करावे. दुष्टांवर प्रहार करून न्यायाचा प्रसार वगैरे कामे सदैव करावीत.

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    विषय

    पुनश्‍च, तोच विषय -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे मनुष्यानो, (मरूताम्) मनुष्यांच्या (स्कन्धाः) खांद्या आणि (विश्‍वेषाम्) सर्व (देवानाम्) विद्वानांसाठी (प्रथमा) प्रथम क्रिया करा. (कीकसः) निरंतर उपदेश वा सुशिक्षण देऊन (लोकांना) (रुद्राणाम्) (पश्‍चातापामुळे) रडविणार्‍या विद्वानांसाठी (द्वितीया) दुसरी ताडनरूप क्रिया करा. (आदित्यानाम्) सदैव न्यायाने वागणार्‍या वा न्याय देणार्‍या विद्वानांसाठी (तृतीया) तिसरी न्याय दान क्रिया करा (तृतीया स्थानाचे महत्व आहे, असे माना) (वायोः) वायूसंबंधी (पुच्छम्) पशूचे शेपूट म्हणजे ज्याने पशू शरीररक्षणासाठी हवा देतात. पशूंचे ते अवयव (बलवान करा) (अग्नीषोमयोः) अग्नी आणि जल यासंबंधी (भासदा) प्रकाश देणार्‍या पदार्थांचा उपयोग करा. (क्रुञ्चौ) विशेष पक्षी का (सारस) करकोचा, (श्रोणिभ्याम्) ढोपर्‍यासाठी (इन्द्राबृहस्पती) पवन व सूर्य, (ऊरुभ्याम्) जंघांसाठी (मित्रावरुणौ) प्राण व उदाम, (अल्गाभ्याम् ) चालणार्‍या प्राण्यांसाठी (आक्रमणम्) चालण्याची क्रिया, (कुष्ठाभ्याम्) पिळून काढलेल्या रसादी साठी आणि (स्थूराभ्याम्) स्थूल पदार्थासाठी (बलम्) बळ उत्पन्न करा (पक्षी, पवन, सूर्य, प्राणापान, वनस्पती या सर्वापासून तुम्हांस शक्ती मिळेल, असे यत्न करा व त्या त्या पक्ष्यापासून त्याचे गुण ग्रहण करा. ) ॥6॥

    भावार्थ

    भावार्थ - मनुष्यानी सदा ही कार्ये अवश्य करावीत आपल्या बाहूंत शक्ती वाढवावी, शरीर आणि अवयव पुष्ट ठेवावे. दुष्टांना दंडित करावे आणि न्यायाचा विस्तार करावा ॥6॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    The shoulders of men are like the cantonments in a State. The foremost function of all learned persons is to preach. To punish the wicked is the second act of awe-inspiring learned persons. To do justice is the third act of justice loving celibate learned persons. The tail of an animal is an instrument of airing. Fire and water give light. Two learned persons of discrimination like two swans are like the buttocks of the state. Air and sun are like thighs. Pran and Udan are like persons walking at full pace. Attack should be made with full certainty. Gain strength from powerful objects.

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    Meaning

    The shoulders of the nation belong to the Maruts, that is, the stormy troops of defence are the shoulders of the nation. The first and top part of the spine belongs to Vishvedevas, that is, the generous and enlightened people are the top of the nation’s spine. The second part of the spine belongs to the Rudras, men of law and justice. The third part belongs to the Adityas, brilliant people and children of the earth. The tail end belongs to Vayu, breath and fragrance of the nation. The hips of the nation belong to Agni and Soma, the heat of fire and coolness of water in the national mind. The poets and artists, two beautiful hansa birds, are comparable to the loins of the nation. Indra and Brihaspati, ruler and teachers, are comparable to the thighs. Mitra and Varuna, friendship and discrimination, are comparable to the groins. Develop force and advancement by the strength and suppleness of the thighs. Judge the strength and vitality of the nation by the slopes of the groin. (Note here that the rashtra/nation/Samraat purusha is compared to the individual purusha (Eka- raat purusha), and also to the universal purusha, i. e. , the Viraat Purusha. Life thus is an organism at every stage from the individual to the universe. )

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    Translation

    The shoulders belong to the cloud-bearing winds (Maruts), the first rib cartiledges to all the bounties of Nature (Visvedevah), the second to the punishers (Rudras), the third to the suns (Adityas), the tail to the air (Vayu), the two huge haunches to the Lord adorable and blissful (Agni-Soma). The two hips are for the two curlews (kruncas), two thighs are for the Lord resplendent and Supreme (Indra-Brhaspati), the two groins are for the Lord friendly and venerable (Mitra- Varuna), the two buttocks are for the forward motion (akramanam), and the two loins for the propelling strength (balam). (1)

    Notes

    Kruncabhyam, for the two curlews; semi-sacred birds like cakravāka. Bhãsadau, two hips. Algabhyām, अल्गौ वंक्षणौ ऊरुसंधी, two groins. Kuṣṭhābhyām, two loins.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
    পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ–হে মনুষ্যগণ! (মরুতাম্) মনুষ্যদিগের (স্কন্ধাঃ) স্কন্ধ (বিশ্বেষাম্) সকল (দেবানাম্) বিদ্বান্দিগের (প্রথমা) প্রথম ক্রিয়া এবং (কীকসা) নিরন্তর শাসনগুলি (রুদ্রাণাম্) রুদ্র বিদ্বান্দিগের (দ্বিতীয়া) দ্বিতীয় তাড়নরূপ ক্রিয়া (আদিত্যানাম্) অখণ্ডিত ন্যায়কারী বিদ্বান্দিগের (তৃতীয়া) তৃতীয় ন্যায়ক্রিয়া (বায়োঃ) পবন সম্পর্কীয় (পুচ্ছম্) পশুপুচ্ছ অর্থাৎ যদ্দ্বারা পশু নিজের শরীরকে বায়ু দেয় (অগ্নীষোময়োঃ) অগ্নি ও জল সম্পর্কীয় (ভাসদৌ) যাহারা প্রকাশকে দিবে উহারা (ক্রুঞ্চৌ) কোন বিশেষ পক্ষী বা সারস (শ্রোণিভ্যাম্) কটি প্রদেশ দ্বারা (ইন্দ্রাবৃহস্পতী) পবন ও সূর্য্য (ঊরুভ্যাম্) ঊরু দ্বারা (মিত্রাবরুণৌ) প্রাণ ও উদান (অল্াভ্যাম্) পরিপূর্ণ গমনরত প্রাণীদের দ্বারা (আক্রমণম্) চলন তথা (কুষ্ঠাভ্যাম্) নিষ্কর্ষ এবং (স্থূরাভ্যাং) স্থূল পদার্থ দ্বারা (বলম্) বলকে তোমাকে সিদ্ধ করা উচিত ॥ ৬ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–মনুষ্যদিগকে বাহুসকলে বল, নিজের অঙ্গের পুষ্টি, দুষ্টদিগকে তাড়না এবং ন্যায়ের প্রকাশাদি কর্ম্ম সর্বদা করা উচিত ॥ ৬ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    ম॒রুতা॑ᳬं স্ক॒ন্ধা বিশ্বে॑ষাং দে॒বানাং॑ প্রথ॒মা কীক॑সা রু॒দ্রাণাং॑ দ্বি॒তীয়া॑ऽऽদি॒ত্যানাং॑ তৃ॒তীয়া॑ বা॒য়োঃ পুচ্ছ॑ম॒গ্নীষোম॑য়ো॒র্ভাস॑দৌ॒ ক্রুঞ্চৌ॒ শ্রোণি॑ভ্যা॒মিন্দ্রা॒বৃহ॒স্পতী॑ऽঊ॒রুভ্যাং॑ মি॒ত্রাবর॑ুণাব॒ল্গাভ্যা॑মা॒ক্রম॑ণᳬं স্থূ॒রাভ্যাং॒ বলং॒ কুষ্ঠা॑ভ্যাম্ ॥ ৬ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    মরুতামিত্যস্য প্রজাপতির্ঋষিঃ । মরুতাদয়ো দেবতাঃ । নিচৃদতিধৃতিশ্ছন্দঃ । ষড্জঃ স্বরঃ ॥

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